Sunday, December 30, 2012

चंद ग़ज़लें ...... मासूम गाज़ियाबादी


बलात्कार जैसी कुत्सित घटनाएं आम हो गयी हैं | स्त्री की किसी भी आयु में उसके साथ कहीं भी घर से लेकर बाहर तक दरिन्दगी ही दरिन्दगी दिखाई देती है  16 दिसंबर 2०12  की रात दिल्ली में हुई वीभत्स बलात्कारी घटना के विरुद्ध ; 'गीता पंडित'   की कविताओं के बाद आज एक और कलम  'मासूम गाज़ियाबादी'  की._______


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खिराज़े-अक़ीदत ......

जीते जी न सही हाँ मगर दामनी।
होंगे क़ातिल तेरे दार पर दामनी।।

जो मशालें जला कर के सोई है त
देंगे हम उनको ख़ूनेजिगर दामनी ।।

है जानाज़े के पीछे वतन का वतन।
कौन रुख़सत हुआ इस कदर दामनी।।

जिसमे हसरत का तेरी लुटा कारवां।
बंद कर देंगे वो रहगुज़र दामनी॥

आसमां कह रहा है किसी मौत पर।
मैंने देखी नहीं ऐसी तरदामनी ।।

हाँ बताता है तेरी चिता का धुआं।
है अँधेरा यहाँ किस कदर दामनी।।

चलती-फिरती हुई ज़िंदा लाशें हैं हम।
तेरा किस्सा रहेगा अमर दामनी।।

तेरे मासूम ख्वाबों के क़ातिल सब।
हम-वतन हों कि या राहबर दमानी। 

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अब हमें शीशा न सागर ओ सुराही चाहिए।
नस्ले-नौ की बस हिफ़ाज़त या-इलाही चाहिए॥

हम बग़ावत पर बस उनकी हिफ़ाज़त वो करें।
जिनको दहशत से भरी ये बादशाही चाहिए॥

बच्चियां तक भी नहीं महफ़ूज़ ए हाक़िम बता।
कह उठी दिल्ली तो फिर किसकी गवाही चाहिए॥

ए सदी इक्कीसवीं तू अब भी शर्मिन्दा नहीं।
और चेहरे को तेरे कितनी सियाही चाहिए॥

अध्द-जले एक पेड पर देखा नया जब घोंसला।
तब लगा हमको भी तो ये होसला ही चाहिए॥

जिनका डर दिखला के रक़्क़ासा बनाया क़ौम को।
अब हमें उन क़ैद्ख़ानों की तबाही चाहिए॥

देश की चौपाल क़ातिल को तो क़ातिल कह गई।
देखना है सच में ही या वाहवाही चाहिए॥

ज़ुल्म का सर काटना है तो ये रखना है ख़्याल।
जगता तहज़ीब का इक-इक सिपाही चाहिए॥

ख़ौफ़ में मासूम कलियां हैं निगह्बाने-चमन।
खत्म हो जानी तेरी अब कज-निगाही चाहिए

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अलग जब सच से हक़िम हो गया है।
मेरा चुप रहना लाज़िम हो गया है॥

जो शातिर था अलीबाबा हुआ वो।
जो था नादान क़ासिम हो गया है॥

भुगतता है सज़ा किस के किए की।
जो बचपन ही में ख़ादिम हो गया है॥

हैं आंखें नम परस्तरे-चमन की।
जिसे देखो वो नाज़िम हो गया है॥

ज़माने को जो उलझन बांटता था।
सुना है अब वो हातिम हो गया है॥

मुझे मासूम कहना पड रहा है।
ज़माना इताना ज़ालिम हो गया है ?

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रह के साए में कुछ अमीरों के 
अपनी पहचान भूल जाते हैं

तम्गे दे-दे के सर-फ़रोशों को
उनके एहसान भूल जाते हैं

ज़ुल्म ज़रदार के ग़रीब यहां
खा के पकवान भूल जाते हैं

दर्दे-ग़ुरबत को कुछ सियासतदां
बनके सुलतान भूल जाते हैं

सुनके मासूम मेरी ग़्ज़लों के
लोग उन्वान भूल जाते हैं

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प्रेषिता 
गीता पंडित 


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