Monday, November 28, 2011

स्त्री पर दो कवितायें .... प्रेमचंद गांधी

....
......


बस में नींद लेती एक स्त्री ___


घर से दफ़्तर के स्टाप तक
सिटी बस के चालीस मिनट के सफ़र में सुबह-शाम
पैंतीस मिनट नींद लेती है स्त्री

      घर और दफ़्तर ने मिलकर लूट ली है स्त्री की रातों की नींद
      वह स्त्री आराम चाहती है जो सिर्फ़ बस में मिलता है 
      स्त्री इस नींद भरे सफ़र में ही हासिल कर पाती है
      अपने लिए समय

स्त्री के चेहरे पर ग़म या ख़ुशी के कोई निशान नहीं है
वहाँ एक पथरीली उदासी है
जो साँवली त्वचा पर बेरुख़ी से चस्पाँ कर दी गई है

      उसके एक हाथ की लकीरों में बर्तन माँजने से भरी कालिख़ है
      तो दूसरे हाथ में ख़राब समय को दर्शाती पुरानी घड़ी है
      जल्दबाजी में सँवारे गये बालों में अंदाज़ से काढ़ी गई माँग है
      और माँग में झुँझलाहट से भरा गया सिंदूर है
      आपाधापी से भरी दुनिया में अब 
      वह भूल चुकी है माँग और सिंदूर के रिश्ते की पुरानी परिभाषा

स्त्री की आँखों में नींद का एक समुद्र है 
जिसमें आकण्ठ डूब जाना चाहती है वह 
लेकिन घर और दफ़्तर के बीच पसरा हुआ रेगिस्तान
उसकी इच्छाओं को सोख लेता है 

      स्त्री इस महान गणतंत्र की सिटी बस में नींद लेती है
      गणतंत्र के पहरुए कृपया उसे डिस्टर्ब न करें
      उसे इस हालत तक पहुँचा देने वाले उस पर न हँसें

उसकी दो वक्तों की नींद
इस महान् लोकतंत्र के बारे में दो गम्भीर टिप्पणियाँ हैं
इन्हें ग़ौर से सुना जाना चाहिए |
.......




दादी की खोज में ___


उस गुवाड़ी में यूँ अचानक बिना सूचना दिये मेरा चले जाना
घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
मेरी दादी की बहन थी
मुझे ग़ौर से देखने लगी
अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
बिना बताए ही पहचान लिया मुझे 

‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’
मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार
थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
एक पुरानी सभ्यता की तरह
थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
उसके साथ आये
चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
उनके पीछे एक लड़की और लड़का
स्कूल-यूनिफार्म में
कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी 

मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला
मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी 
ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
कहते हैं पिताजी
‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’
उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
अपनी दादी को खोजते-खोजते
अपनी बेटी तक चला आया 

जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
उनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल में | |
...


साभार (कविता कोष से )

प्रेषिता
गीता पंडित 

Monday, November 21, 2011

पाँच कवितायें....... अनामिका की


पाँच कवितायें ..... अनामिका की

......
.....


बेजगह ____




अपनी जगह से गिर कर        
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाख़ून” -
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर।  
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।


जगह? जगह क्या होती है?
यह वैसे जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही।


याद था हमें एक-एक क्षण
आरंभिक पाठों का–
राम, पाठशाला जा !
राधा, खाना पका !
राम, आ बताशा खा !
राधा, झाड़ू लगा !
भैया अब सोएगा
जाकर बिस्तर बिछा !
अहा, नया घर है !
राम, देख यह तेरा कमरा है !
‘और मेरा ?’
‘ओ पगली,
लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता।"


जिनका कोई घर नहीं होता–
उनकी होती है भला कौन-सी जगह ?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।


कटे हुए नाख़ूनों,
कंघी में फँस कर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली?


घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
छूटती गई जगहें
लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में
फँसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!


परंपरा से छूट कर बस यह लगता है–
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूँ–
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग।


सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ
ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ
जैसे तुकाराम का कोई
अधूरा अंभग!
.........




स्त्रियाँ  ___

पढ़ा गया हमको 
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज 
बच्चों की फटी कॉपियों का 
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले! 
देखा गया हमको 
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे 
देखी जाती है कलाई घड़ी 
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद ! 

सुना गया हमको 
यों ही उड़ते मन से 
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने 
सस्ते कैसेटों पर 
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में ! 

भोगा गया हमको 
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह 
एक दिन हमने कहा– 
हम भी इंसान हैं 
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर 
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद 
नौकरी का पहला विज्ञापन। 

देखो तो ऐसे 
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है 
बहुत दूर जलती हुई आग। 

सुनो, हमें अनहद की तरह 
और समझो जैसे समझी जाती है 
नई-नई सीखी हुई भाषा। 

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई 
एक अदृश्य टहनी से 
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें 
चींखती हुई चीं-चीं 
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं– 
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं 
अगरधत्त जंगल लताएं! 
खाती-पीती, सुख से ऊबी 
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही 
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ। 
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’ 
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी) 
बाक़ी कहानी बस कनखी है। 

हे परमपिताओं, 
परमपुरुषों– 
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
......



एक नन्ही सी धोबिन ( चिरैया ) ___


दुनिया के तुडे-मुडे सपनों पर, देखो-
कैसे वह चला रही है
लाल, गरम इस्तिरी!
जब इस शहर में नई आई थी-
लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!
ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी
चुपचाप
सारे मुहल्ले में।
आती वह चार बजे
जब सूरज
हाथ बाँधकर
टेक लेता सर
अपनी जंगाई हुई सी
उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर
और धूप लगने लगती
एक इत्ता-सा फुँदना-
लडकी की लम्बी परांदी का।
कई बरस
हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-
उसके मतलब का
कोई शब्द नहीं मिला।
चुपचाप सोचती रही देर तक,
लगा उसे-
इस्तिरी का यह
अध सुलगा कोयला ही हो शायद
शब्द उसके काम का!
जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है
नम्बर कपडों के
वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।
लेकर उजास और खुशबू
मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,
मजबूती पारे से
धार और विस्तार
अलगनी से
उसने
एक नई भाषा गढी।
धो रही है
देखो कैसे लगन और जतन से
दुनिया के सब दाग-धब्बे।
इसके उस ठेले पर
पडी हुई गठरी है
पृथ्वी ।
.......




दरवाज़ा ____

मैं एक दरवाज़ा थी 
मुझे जितना पीटा गया 
मैं उतना ही खुलती गई। 
अंदर आए आने वाले तो देखा– 
चल रहा है एक वृहत्चक्र– 
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है 
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई 
गरज यह कि चलता ही रहता है 
अनवरत कुछ-कुछ ! 
... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू 
तारे बुहारती हुई 
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर– 
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो 
एक टोकरी में जमा करती जाती है 
मन की दुछत्ती पर।
......




चौका ___

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी 
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़ 
भूचाल बेलते हैं घर 
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर। 

रोज़ सुबह सूरज में 
एक नया उचकुन लगाकर 
एक नई धाह फेंककर 
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी। 
पृथ्वी– जो खुद एक लोई है 
सूरज के हाथों में 
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने 
कि लो, इसे बेलो, पकाओ 
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में 
पकाती हैं शहद। 

सारा शहर चुप है 
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन। 
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी 
और मैं 
अपने ही वजूद की आंच के आगे 
औचक हड़बड़ी में 
खुद को ही सानती 
खुद को ही गूंधती हुई बार-बार 
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी ।
.........


प्रेषिका 
गीता पंडित 

( कविता कोष से साभार )

Wednesday, November 16, 2011

फिर हुई संध्या काव्यमयी __ मुक्तिबोध की कविताओं पर काव्य नाटक ... गीता पंडित


मुक्तिबोध की कविताओं पर अशोक चक्रधर द्वारा लिखित और 'रोबिन दा' द्वारा निर्देशित 'स्याह 

चन्द्र का प्युज़ बल्ब' काव्य-नाटक 15 / 11 /11 की शाम ' मेघदूत कोमप्लेक्स ' में मंचित 

किया गया |  आनंदोत्सव की सीमा नहीं थी |  मुक्तिबोध का सजीव चित्रण उनकी कविताओं 

पर सम्पूर्ण टोली का मन- भावन अभिनय संध्या को अमिट याद के रूप में चित्रित कर गया |



अंत में अशोक चक्रधर द्वारा जब स्वयम नाटक का एक चरित्र बनकर एक सम्पूर्ण कविता का 

पाठ और नाटक का समापन किया गया तो आनंद चरमोत्कर्ष पर था | रौंगटे खड़े हो गये उतार 

- चढ़ाव , उत्साह कविता में जैसे स्वयम उतरकर जीवंत हो उठे | 



'रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव परिचयदास सचिव'  "हिन्दी अकादमी ' के अथक प्रयास से ये सब 

संभव हो पाया | लेकिन -- नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, हिन्दी अकादमी, संगीत  कला अकादमी 

-- तीनों का संयुक्त आयोजन दर्शकों  को अदभुत रस का आस्वादन करा रहा था |




काश !!!!!  ऐसे उत्सव बारम्बार हों और दुसरे कवियों पर भी इस तरह के आयोजन किये जाएँ 

तो कविता जो कहा जा रहा है कि कहीं नहीं है हर तरफ हँसती हुई दिखाई देगी ___



...
मुझे नहीं मालूम
मेरी प्रतिक्रियाएँ
सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ
सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य

सुबह से शाम तक
मन में ही
आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ
अपनी ही काटपीट
ग़लत के ख़िलाफ़ नित सही की तलाश में कि
इतना उलझ जाता हूँ कि
जहर नहीं
लिखने की स्याही में पीता हूँ कि
नीला मुँह...
दायित्व-भावों की तुलना में
अपना ही व्यक्ति जब देखता
तो पाता हूँ कि
खुद नहीं मालूम
सही हूँ या गलत हूँ
या और कुछ

सत्य हूँ कि सिर्फ मैं कहने की तारीफ
मनोहर केन्द्र में
खूबसूरत मजेदार
बिजली के खम्भे पर
अँगड़ाई लेते हुए मेहराबदार चार
तड़ित-प्रकाश-दीप...
खम्भे के अलंकार 

सत्य मेरा अलंकार यदि, हाय
तो फिर मैं बुरा हूँ.
निजत्व तुम्हारा, प्राण-स्वप्न तुम्हारा और
व्यक्तित्व तड़ित्-अग्नि-भारवाही तार-तार
बिजली के खम्भे की भांति ही
कन्धों पर रख मैं
विभिन्न तुम्हारे मुख-भाव कान्ति-रश्मि-दीप
निज के हृदय-प्राण
वक्ष से प्रकट, आविर्भूत, अभिव्यक्त
यदि करता हूँ तो....
दोष तुम्हारा है

मैंने नहीं कहा था कि
मेरी इस जिन्दगी के बन्द किवार की
दरार से
रश्मि-सी घुसो और विभिन्न दीवारों पर लगे हुए शीशों पर
प्रत्यावर्तित होती रहो
मनोज्ञ रश्मि की लीला बन
होती हो प्रत्यावर्तित विभिन्न कोणों से
विभिन्न शीशों पर
आकाशीय मार्ग से रश्मि-प्रवाहों के
कमरे के सूने में सांवले
निज-चेतस् आलोक

सत्य है कि
बहुत भव्य रम्य विशाल मृदु
कोई चीज़
कभी-कभी सिकुड़ती है इतनी कि
तुच्छ और क्षुद्र ही लगती है!!
मेरे भीतर आलोचनाशील आँख
बुद्धि की सचाई से
कल्पनाशील दृग फोड़ती!!

संवेदनशील मैं कि चिन्ताग्रस्त
कभी बहुत कुद्ध हो
सोचता हूँ
मैंने नहीं कहा था कि तुम मुझे
अपना सम्बल बना लो
मुझे नहीं चाहिए निज वक्ष कोई मुख
किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार-हित
जाली नहीं बनूंगा मैं बांस की
जाहिए मुझे मैं
चाहिए मुझे मेरा खोया हुए
रूखा सूखा व्यक्तित्व

चाहिए मुझे मेरा पाषाण
चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन
कौन हो की कही की अजीब तुम
बीसवीं सदी की एक
नालायक ट्रैजेडी

जमाने की दुखान्त मूर्खता
फैन्टेसी मनोहर
बुदबुदाता हुआ आत्म संवाद
होठों का बेवकूफ़ कथ्य और

फफक-फफक ढुला अश्रुजल

अरी तुम षडयन्त्र-व्यूह-जाल-फंसी हुई
अजान सब पैंतरों से बातों से
भोले विश्वास की सहजता
स्वाभाविक सौंप
यह प्राकृतिक हृदय-दान
बेसिकली गलत तुम।
....


(गजानन माधव मुक्तिबोध) 



गीता पंडित 

फिर हुई संध्या काव्यमयी __ मुक्तिबोध की कविताओं पर काव्य नाटक ... गीता पंडित


 
मुक्तिबोध की कविताओं पर अशोक चक्रधर द्वारा लिखित और 'रोबिन दा' द्वारा निर्देशित 'स्याह 

चन्द्र का प्युज़ बल्ब' काव्य-नाटक 11 / 11 /11 की शाम ' मेघदूत कोमप्लेक्स ' में मंचित 

किया गया |  आनंदोत्सव की सीमा नहीं थी |  मुक्तिबोध का सजीव चित्रण उनकी कविताओं 

पर सम्पूर्ण टोली का मन- भावन अभिनय संध्या को अमिट याद के रूप में चित्रित कर गया |



अंत में अशोक चक्रधर द्वारा जब स्वयम नाटक का एक चरित्र बनकर एक सम्पूर्ण कविता का 

पाठ और नाटक का समापन किया गया तो आनंद चरमोत्कर्ष पर था | रौंगटे खड़े हो गये उतार 

- चढ़ाव , उत्साह कविता में जैसे स्वयम उतरकर जीवंत हो उठे | 



'रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव परिचयदास सचिव'  "हिन्दी अकादमी ' के अथक प्रयास से ये सब 

संभव हो पाया | लेकिन -- नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, हिन्दी अकादमी, संगीत  कला अकादमी 

-- तीनों का संयुक्त आयोजन दर्शकों  को अदभुत रस का आस्वादन करा रहा था |




काश !!!!!  ऐसे उत्सव बारम्बार हों और दुसरे कवियों पर भी इस तरह के आयोजन किये जाएँ 

तो कविता जो कहा जा रहा है कि कहीं नहीं है हर तरफ हँसती हुई दिखाई देगी ___



 
...
मुझे नहीं मालूम
मेरी प्रतिक्रियाएँ
सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ
सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य

सुबह से शाम तक
मन में ही
आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ
अपनी ही काटपीट
ग़लत के ख़िलाफ़ नित सही की तलाश में कि
इतना उलझ जाता हूँ कि
जहर नहीं
लिखने की स्याही में पीता हूँ कि
नीला मुँह...
दायित्व-भावों की तुलना में
अपना ही व्यक्ति जब देखता
तो पाता हूँ कि
खुद नहीं मालूम
सही हूँ या गलत हूँ
या और कुछ

सत्य हूँ कि सिर्फ मैं कहने की तारीफ
मनोहर केन्द्र में
खूबसूरत मजेदार
बिजली के खम्भे पर
अँगड़ाई लेते हुए मेहराबदार चार
तड़ित-प्रकाश-दीप...
खम्भे के अलंकार 

सत्य मेरा अलंकार यदि, हाय
तो फिर मैं बुरा हूँ.
निजत्व तुम्हारा, प्राण-स्वप्न तुम्हारा और
व्यक्तित्व तड़ित्-अग्नि-भारवाही तार-तार
बिजली के खम्भे की भांति ही
कन्धों पर रख मैं
विभिन्न तुम्हारे मुख-भाव कान्ति-रश्मि-दीप
निज के हृदय-प्राण
वक्ष से प्रकट, आविर्भूत, अभिव्यक्त
यदि करता हूँ तो....
दोष तुम्हारा है

मैंने नहीं कहा था कि
मेरी इस जिन्दगी के बन्द किवार की
दरार से
रश्मि-सी घुसो और विभिन्न दीवारों पर लगे हुए शीशों पर
प्रत्यावर्तित होती रहो
मनोज्ञ रश्मि की लीला बन
होती हो प्रत्यावर्तित विभिन्न कोणों से
विभिन्न शीशों पर
आकाशीय मार्ग से रश्मि-प्रवाहों के
कमरे के सूने में सांवले
निज-चेतस् आलोक

सत्य है कि
बहुत भव्य रम्य विशाल मृदु
कोई चीज़
कभी-कभी सिकुड़ती है इतनी कि
तुच्छ और क्षुद्र ही लगती है!!
मेरे भीतर आलोचनाशील आँख
बुद्धि की सचाई से
कल्पनाशील दृग फोड़ती!!

संवेदनशील मैं कि चिन्ताग्रस्त
कभी बहुत कुद्ध हो
सोचता हूँ
मैंने नहीं कहा था कि तुम मुझे
अपना सम्बल बना लो
मुझे नहीं चाहिए निज वक्ष कोई मुख
किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार-हित
जाली नहीं बनूंगा मैं बांस की
जाहिए मुझे मैं
चाहिए मुझे मेरा खोया हुए
रूखा सूखा व्यक्तित्व

चाहिए मुझे मेरा पाषाण
चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन
कौन हो की कही की अजीब तुम
बीसवीं सदी की एक
नालायक ट्रैजेडी

जमाने की दुखान्त मूर्खता
फैन्टेसी मनोहर
बुदबुदाता हुआ आत्म संवाद
होठों का बेवकूफ़ कथ्य और

फफक-फफक ढुला अश्रुजल

अरी तुम षडयन्त्र-व्यूह-जाल-फंसी हुई
अजान सब पैंतरों से बातों से
भोले विश्वास की सहजता
स्वाभाविक सौंप
यह प्राकृतिक हृदय-दान
बेसिकली गलत तुम।
....


(गजानन माधव मुक्तिबोध) 



गीता पंडित