Sunday, December 30, 2012

चंद ग़ज़लें ...... मासूम गाज़ियाबादी


बलात्कार जैसी कुत्सित घटनाएं आम हो गयी हैं | स्त्री की किसी भी आयु में उसके साथ कहीं भी घर से लेकर बाहर तक दरिन्दगी ही दरिन्दगी दिखाई देती है  16 दिसंबर 2०12  की रात दिल्ली में हुई वीभत्स बलात्कारी घटना के विरुद्ध ; 'गीता पंडित'   की कविताओं के बाद आज एक और कलम  'मासूम गाज़ियाबादी'  की._______


.....

खिराज़े-अक़ीदत ......

जीते जी न सही हाँ मगर दामनी।
होंगे क़ातिल तेरे दार पर दामनी।।

जो मशालें जला कर के सोई है त
देंगे हम उनको ख़ूनेजिगर दामनी ।।

है जानाज़े के पीछे वतन का वतन।
कौन रुख़सत हुआ इस कदर दामनी।।

जिसमे हसरत का तेरी लुटा कारवां।
बंद कर देंगे वो रहगुज़र दामनी॥

आसमां कह रहा है किसी मौत पर।
मैंने देखी नहीं ऐसी तरदामनी ।।

हाँ बताता है तेरी चिता का धुआं।
है अँधेरा यहाँ किस कदर दामनी।।

चलती-फिरती हुई ज़िंदा लाशें हैं हम।
तेरा किस्सा रहेगा अमर दामनी।।

तेरे मासूम ख्वाबों के क़ातिल सब।
हम-वतन हों कि या राहबर दमानी। 

........






अब हमें शीशा न सागर ओ सुराही चाहिए।
नस्ले-नौ की बस हिफ़ाज़त या-इलाही चाहिए॥

हम बग़ावत पर बस उनकी हिफ़ाज़त वो करें।
जिनको दहशत से भरी ये बादशाही चाहिए॥

बच्चियां तक भी नहीं महफ़ूज़ ए हाक़िम बता।
कह उठी दिल्ली तो फिर किसकी गवाही चाहिए॥

ए सदी इक्कीसवीं तू अब भी शर्मिन्दा नहीं।
और चेहरे को तेरे कितनी सियाही चाहिए॥

अध्द-जले एक पेड पर देखा नया जब घोंसला।
तब लगा हमको भी तो ये होसला ही चाहिए॥

जिनका डर दिखला के रक़्क़ासा बनाया क़ौम को।
अब हमें उन क़ैद्ख़ानों की तबाही चाहिए॥

देश की चौपाल क़ातिल को तो क़ातिल कह गई।
देखना है सच में ही या वाहवाही चाहिए॥

ज़ुल्म का सर काटना है तो ये रखना है ख़्याल।
जगता तहज़ीब का इक-इक सिपाही चाहिए॥

ख़ौफ़ में मासूम कलियां हैं निगह्बाने-चमन।
खत्म हो जानी तेरी अब कज-निगाही चाहिए

.......





अलग जब सच से हक़िम हो गया है।
मेरा चुप रहना लाज़िम हो गया है॥

जो शातिर था अलीबाबा हुआ वो।
जो था नादान क़ासिम हो गया है॥

भुगतता है सज़ा किस के किए की।
जो बचपन ही में ख़ादिम हो गया है॥

हैं आंखें नम परस्तरे-चमन की।
जिसे देखो वो नाज़िम हो गया है॥

ज़माने को जो उलझन बांटता था।
सुना है अब वो हातिम हो गया है॥

मुझे मासूम कहना पड रहा है।
ज़माना इताना ज़ालिम हो गया है ?

........





रह के साए में कुछ अमीरों के 
अपनी पहचान भूल जाते हैं

तम्गे दे-दे के सर-फ़रोशों को
उनके एहसान भूल जाते हैं

ज़ुल्म ज़रदार के ग़रीब यहां
खा के पकवान भूल जाते हैं

दर्दे-ग़ुरबत को कुछ सियासतदां
बनके सुलतान भूल जाते हैं

सुनके मासूम मेरी ग़्ज़लों के
लोग उन्वान भूल जाते हैं

........



प्रेषिता 
गीता पंडित 


Friday, December 28, 2012

ब्रूनो की बेटियाँ ........ आलोक धन्वा

Photo: दस दिन से आलोक धन्वा की  कविता "ब्रूनो की बेटियाँ" दिमाग में घुमड़ रही है, मन को मथ रही है. अंततः मैं इसे आपके सामने रख कर अपना बोझ हल्का कर रहा हूँ.

ब्रूनो की बेटियाँ-  आलोक धन्वा

ज्योर्दानों फ़िलिप्पों ब्रूनो सोलहवीं सदी के महान इतालवी वैज्ञानिक और दार्शनिक थे। उन्होंने गिरजे के वर्चस्व और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कोपरनिकस की इस स्थापना का समर्थन किया कि ब्रह्मांड के केन्द्र में सूर्य है और हमारी पृथ्वी के अलावा और भी पृथ्वियाँ हैं। सन 1600 में ईसाई धर्म न्यायालय के आदेश पर उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया। बाद में महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी वैज्ञानिक सिद्धांत का विकास किया।

(यह कविता सामन्ती दानवों द्वारा  बिहार के आंचलिक इलाके की मेहनतकश मजदूर औरतों के साथ बलात्कार करके उन्हें जिन्दा जला दिये जाने की एक बीभत्स और जघन्य बारदात की महाकाव्यात्मक गाथा है. इसे बार-बार गया जाना चाहिए, जब तक हमारा देश औरतों के रहने लायक नहीं हो जाता.)

वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं
उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।

उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी
जिन्होंने उनकी हत्या की !

उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थी धूप में।

गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !

वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं
और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी?
कि उन्होंने बगैर किसी इच्छा के जन्म दिया?

उदासीनता नहीं थी उनका गर्भ
ग़लती नहीं थी उनका गर्भ
आदत नहीं थी उनका गर्भ
कोई नशा-
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ

कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री?

उनके सनम थे
उनमें झंकार थी

वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी व्हेल के भीतर नहीं-पूरी दुनिया में
पूरी दुनिया के नौ महीने !

दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का?

तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आये
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी?

किस देश की नागरिक होती हैं वे
जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वी की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे 
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया !

क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों की दुनिया?

आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं

उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है !

कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी
और 
अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी।

वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफेद तने पर

बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर

वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थी यहाँ तक।

उनके दरवाज़े थे

जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तम्बाकू के पत्ते-
जो धीरे धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी।

वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे

उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में।

वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था

दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़ियाँ पकड़ लेती थीं हवा में ही। 

वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी।

वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थीं झाड़ियों को
आँगन में जाने से।

घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छाएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया था उन्होंने
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाखुन से नहीं

कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर 
वे मिट्टी की दीवारों थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नयी मिट्टी
चढ़ाई जाती थी !
वे उनके घर थे-इन्तज़ार नहीं।
पेड़ केे कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं।

सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया के नक्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे

वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं? वे कहाँ आती थीं?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह?

क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्या मेरे लिए नहीं?
क्या तुम्हारे लिए नहीं?

क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारो का पेट पालना था?

कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िन्दगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है?

कैसे देखते हो तुम श्रम को !

शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा

शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए

उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं !

शहर उनकी ज़िन्दगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं !

उनकी हत्या की गयी
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्त्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !

वह क्या था उनके होने में 
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षो। में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?

वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका

जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूकों के घेरे में?

बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ !

मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर !

वह क्या था उनके होने में 
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता !

पागल तलवारें नहीं थरं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं

रानियाँ मिट गयीं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की

रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रहीं हैं।

(कविता कोश से आभार सहित)
                                       आलोक धन्वा



ब्रूनो की बेटियाँ ____




ज्योर्दानों फ़िलिप्पों ब्रूनो सोलहवीं सदी के महान इतालवी वैज्ञानिक और दार्शनिक थे। उन्होंने गिरजे के वर्चस्व और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कोपरनिकस की इस स्थापना का समर्थन किया कि ब्रह्मांड के केन्द्र में सूर्य है और हमारी पृथ्वी के अलावा और भी पृथ्वियाँ हैं। सन 1600 में ईसाई धर्म न्यायालय के आदेश पर उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया। बाद में महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी वैज्ञानिक सिद्धांत का विकास किया।





वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं


उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।

उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी 
जिन्होंने उनकी हत्या की !

उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थी धूप में।

गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !

वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं
और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी?
कि उन्होंने बगैर किसी इच्छा के जन्म दिया?

उदासीनता नहीं थी उनका गर्भ
ग़लती नहीं थी उनका गर्भ
आदत नहीं थी उनका गर्भ
कोई नशा-
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ

कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री?

उनके सनम थे
उनमें झंकार थी

वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी व्हेल के भीतर नहीं-पूरी दुनिया में
पूरी दुनिया के नौ महीने !

दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का?

तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आये
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी?

किस देश की नागरिक होती हैं वे
जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वी की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे 
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया !

क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों की दुनिया?

आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं

उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है !

कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी
और 
अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी।

वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफेद तने पर

बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर

वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थी यहाँ तक।

उनके दरवाज़े थे

जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तम्बाकू के पत्ते-
जो धीरे धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी।

वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे

उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में।

वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था

दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़ियाँ पकड़ लेती थीं हवा में ही। 

वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी।

वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थीं झाड़ियों को
आँगन में जाने से।

घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छाएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया था उन्होंने
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाखुन से नहीं

कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर 
वे मिट्टी की दीवारों थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नयी मिट्टी
चढ़ाई जाती थी !
वे उनके घर थे-इन्तज़ार नहीं।
पेड़ केे कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं।

सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया के नक्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे

वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं? वे कहाँ आती थीं?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह?

क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्या मेरे लिए नहीं?
क्या तुम्हारे लिए नहीं?

क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारो का पेट पालना था?

कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िन्दगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है?

कैसे देखते हो तुम श्रम को !

शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा

शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए

उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं !

शहर उनकी ज़िन्दगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं !

उनकी हत्या की गयी
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्त्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !

वह क्या था उनके होने में 
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षो। में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?

वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका

जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूकों के घेरे में?

बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ !

मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर !

वह क्या था उनके होने में 
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता !

पागल तलवारें नहीं थरं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं

रानियाँ मिट गयीं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की

रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रहीं हैं।

.........
(बिहार के आंचलिक इलाके की मजदूर औरतों के साथ बलात्कार करके उन्हें जिन्दा जला दिये जाने पर )



प्रेषिता
गीता पंडित


(कविता कोश से साभार )


Wednesday, December 26, 2012

बिना शीर्षक के कुछ कवितायें ..... गीता पंडित


दिल्ली में (16 दिसंबर  2012 ) बलात्कार की नृशंस घटना पर गीता पंडित के मन की  पीड़ा और आक्रोश जिस तरह निकला 
यहाँ प्रस्तुत है ____

आज साधिकार भरोसे, हौसले के साथ क्रिसमस की सुबह को आशा भरी नज़रों से देख रही हूँ आप सभी के साथ.... ढेर सारी बधाई और शुभ-कामनाएँ .... जन-जाग्रति विजयी हो ...
घर में सुरक्षित नहीं मैं
समाज में देह मात्र
देश बस कहलाने के लियें मेरा देश
क्या सीता बन धरती में समाना
ही एक मात्र विकल्प 
मेरे लियें

नहीं ...
आज बुलंद आवाज़ में
मैं इसे नकारती हूँ
यह देश मेरा है
और जीना मेरा अधिकार है
 ............ 

( 25 दिसंबर 1012)




.......
एक ही आवाज़ 
उठनी चाहिए अब 
और नहीं 
अब और नहीं 
अब और नहीं 
बस्सस्स...
............

(21 दिसंबर 2012)





......

मैं लज्जित हूँ 
अपने आप से 
शर्मसार है 
मेरी कोख 
क्यूंकि 
यही तो कारण है 
ऐसे दरिंदों को 
जन्म देने के लियें 
जो मेरे ही प्रतिरूप का शिकार कर 
पूर्ण आहूति देते हैं 
अपनी पैशाचिक प्रवृति को
धिक्कार है मुझ पर
धिक्कार है
..............

17  दिसंबर 2012





.... 

मैंने कभी नहीं ललकारा 
तुम्हारे पुरुषत्व को 
तुमने ललकारा 
मेरे स्त्रीत्व को 
एक बार नहीं, दो बार नहीं 
जाने कितनी बार बरसों सदियों 

मेरा प्रेम समर्पित था तुम्हारे लियें 
तुम्हारी इच्छाओं के लियें 
तुम्हारे सुख-सौंदर्य-वैभव के लियें 
कहाँ रास आया तुम्हें 
पूजनीया बनाकर 
मुझे बना दिया बंधक 
भूल गये मेरा मन, 
मेरी चेतनता, मेरा प्रेम , मेरा समर्पण
यहाँ तक कि मेरा अस्तित्व
बन गयी अहिल्या
सीता, मांडवी उर्मिला रुक्मणी सी 
राह देखती रही तुम्हारी
हाय रे भाग्य ! रह गयी केबल देह मात्र
एक जीवित लाश

मैं भी पगली ! मौन तुम्हारे प्रेम में
नहीं पहचान पायी तुम्हारी छलना को
आज भी नहीं पहचानती
अगर तुमने 
नहीं कुचला होता मेरी आत्मा को
मेरे अंतस को

बस अब और नहीं
मैं लडूंगी स्वयं से, तुमसे,
इस समूचे समाज से संसार से

हाँ याद रहे
बचना मेरी राह में आने से 
........

 ( 19 द्दिसम्वर 2012 )
( असीम पीड़ा के साथ , आक्रोश के साथ सभी स्त्रियों की तरफ से )





.......

मेरी पुत्री 
समाज के संतुलन के लियें 
अनिवार्य है तुम्हारा होना

इसलियें नहीं 
कि किया जा सके तुम्हें हलाल 

आओ 
और उठाओ शस्त्र 
स्वयं बनो रणचंडी
..... 

18  2012




गीता पंडित 
26 दिसंबर 2012

Friday, December 7, 2012

दो कवितायें ..... तनु थदानी

.......
........






तुम तो धूप थी जाड़े की
जिसको मैंने प्यार से
पकड़ रखा था अपनी दोनों हथेलियों के बीच !

जो हमसे बड़े थे
सभी हँसे थे
कि धूप तो हथेलियों में भरी नजर आती है
अंततः फिसल जाती है !

नहीं फिसली धूप,
उम्र की गर्मियों में
भरी दोपहरी जब
हथेलियों में भरी धूप ने
जला डाला मुझे
तब लगा
नहीं है वो मेरी धूप
ये तो कोई और है
फिर कहाँ गई वो मीठी धूप ??

कोई नहीं रोया की धूप की मिठास खो गई
गौर से देखा जली हथेलियों को
जहां धूप से चिपक मेरी मुस्कान सो गई !

सच कहूँ
धूप को हथेलियों में पकड़ना ही गलत था
धूप को तो आलिंगन में रखना था
तभी वो मेरी हो पाती
जिस दिन धूप मेरी हो जाती
जलती तो मेरे ही भीतर
पर मुझे न जला पाती !!
 —
..............





क्या मैं तुम्हारी जिन्दगी में 
शामिल हूँ मात्र दिनचर्या की तरह ?

ऱोज ही पूजाघर में 


साथ होती हो भक्ति के ,
रसोई में साथ होती हो स्वाद के ,
बाहों में साथ होती हो आसक्ति के ,
मगर इसमें प्रेम कहाँ है ??

आओ हम दोनों खोजें मिल कर
विश्वास के गर्भ से पैदा हुआ प्रेम ,
जिसने अभी ठीक से चलना भी नहीं था सीखा ,
छोड़ दी हम दोनों ने उसकी ऊँगली !


नहीं मालूम उस नवजात को मर्यादा की चौहद्दी ,
गर्म साँसों के कंटीले जंगल में फंसे
हम अपने प्रेम की कराह सुन तो सकते हैं ,
मगर नहीं खोज पा रहे उसके अस्तित्व को !


मेरा विश्वास है वो मिलेगा ,
जरुर मिलेगा !
मगर मुझे अपनी दिनचर्या से मुक्त करोगी तब ,
मुझे अपनी अँगुलियों औं हाथों में
एक दास्ताने की तरह पहनोगी जब !

दसों उँगलियों सी पूर्णत : मेरे भीतर आओगी ,
यकीन मानो
एक भी कांटा नहीं चुभेगा ,
और तभी प्रेम को खोज पाओगी !!


............



 प्रेषिता 
गीता पंडित 






Saturday, December 1, 2012

6 कवितायें ...... मोहन श्रोत्रिय

....
......



1
नदी जब निकलती है
अपने यात्रा-पथ पर
तो बेहद शांत संयत और
अनुशासित होती है.
नदी जब यात्रा पूरी करके
मिल रही होती है सागर से
तो भी शांत और संयत ही होती है.
सागर से जा मिलने की व्यग्रता कितनी भी हो
उजागर नहीं होती दबी-छुपी रहती है.
नदी का व्यवहार
यात्रा-आरंभ और यात्रा-समापन के बीच
होता है एकदम अलग. शोर-शराबा
मौज-मस्ती
अपने होने की सतत घोषणा
उसके व्यक्तित्व की अनिवार्य विशिष्टताएं
होती ही नहीं दिखती भी है सबको
कुछ लोग नदी होने के यही मायने जानते-समझते हैं.

पर नदी तो नदी है
वह खुद का अनुशासन ही मानती है
जिसके रूप रहते हैं बदलते.

.....




2
वनस्पतियां सुख देती हैं 
आंखों को 
हरियाली राहत पहुंचाती है मन को.
ह्रदय का जो चक्र है
"अनाहत चक्र" उसका रंग भी तो
हरा है. "तबीयत हरी हो गई"
मुहावरा बना है इसी से.

वनस्पतियां संचार करती हैं
प्राण-वायु का. इतना सब कुछ
मुफ़्त देती है प्रकृति
कृतज्ञता-ज्ञापन तो बनता ही है
उसके प्रति
इन नियामतों के लिए.

पर ज़रूरी चीज़ों के महत्त्व पर
गौर न करना
शुमार हो चुका है हमारी आदतों में
बुरी आदतों में.

और कृतज्ञता?
हेठी समझते हैं हम
इसे व्यक्त करने में !
भूल जाते हैं हम
संकट से बचाते हैं हमें जो,
वनस्पतियां जिनमें प्रमुख हैं
रंग जल शुद्ध वायु
संभव नहीं जिनके बिना.

......




3

पहाड़ का अडिग अविचल रूप
देता है संदेश 
डटे रहने का. उसकी ऊंचाई
गला देती है अहंकार को.
अपनी लघुता का एहसास 
फ़ालतू उछल-कूद से रोकता है
अपने क़द से बड़ा दिखने की 
इच्छा पर लगा देता है 
अंकुश भी. बहुत कुछ है
अपने परिवेश में जो
कर देता है विवश
ज़मीन पर पैर टिकाए रखने को.

ज़मीन पर न टिके हो पैर
तो कुछ भी तो संभव नहीं
रचनात्मक तो क़तई नहीं !

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4
बोलना ज़रूरी हो जब-जब भी
अपराध निरा अपराध है 
चुप रह जाना. मौक़ा 
निकल जाने पर भी
बोलना-बोलते रहना 
निरर्थक हो जाता है.
भड़ास निकाल लेने से
राहत मिलती हो जो भी
कारगर बोलने का विकल्प
नहीं बन सकती वह.

सही वक़्त पर बोलना
और सही बोलना
गर्म लोहे पर चोट करने
जैसा असरदार होता है
रचना-जैसा सुख देता है.

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5
चीज़ें बेहतर होंगी
इसी उम्मीद पर 
टिकी रहती है ज़िंदगी.
कि आस-पास बनेगा 
सुंदर और बेहतर 
जैसे देखा जाता है यही सपना
देश-दुनिया को लेकर
आपसी रिश्तों को लेकर.
सामूहिक सपना 
होता है साकार 
सामूहिक प्रयत्नशीलता से ही.

व्यक्ति और उसके हित
हो जाते हैं गौण
वरीयता पा जाते हैं समूह
और सामूहिक हित.

यही लक्षण है पहचान है
सभ्यता और संस्कृति के स्तर की

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6
फ़िल्मों में 
झुग्गी-झोंपड़ियों पर 
रात में दिखाए जाते हैं 
हमले माफ़िया गुटों के.
असल ज़िंदगी में देखा है 
हमने 
वैसा ही हमला दिन-दहाड़े 
एक संभ्रांत बसावट में
पर
यह हमला 
लोकतंत्र पर था.

संभ्रांत दिखने वाले चेहरों पर थी एक नई तरह की क्रूरता
भाषा भी नई थी मुहावरा ऐसा जैसा पहले कभी नहीं था सुना
मर्यादा लीर-लीर उड़ गईं धज्जियां शर्म और लिहाज़ की
बदहवास इतने जैसे नष्ट करना ही था बचाने का पर्याय उनके लिए
बचाने को था खुद का हित नष्ट हुई विधि-सम्मत प्रक्रिया
मर गई संवेदना लुट गई नैतिकता
चीर-हरण एक बार फिर हुआ
द्रौपदी का. दिन-दहाड़े एक संभ्रांत बस्ती में
शहर के बीचो-बीच शहर जिसे कहते हैं गुलाबी नगरी.

मोश्रो 










प्रेषिता 
गीता पंडित