Friday, March 15, 2013

सात कवितायें ... हेमा दीक्षित

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उस पल की मिट्टी
आज भी
मेरे जेहन में
उतनी ही और वैसी ही
ताज़ा और नम है
जैसे कि उस रोज
मेरी उँगलियों के 
पोरों पर लिपट कर
उन्हें बेमतलब ही चूमते हुए थी
जब ...
मैंने तुम्हे बताया था कि
'मैं तुम्हारे प्रेम हूँ'
थामी हुई हथेलियों के
नीम बेहोश दबावों के मध्य
जाने कौन से और कैसे
हर्फ़ों में लिखा था तुमने
एक ऐसे
साथ का वचन पत्र
जिसकी दुनियाँ में
प्रेम की खारिज़ किस्मत
ताउम्र रोज़े पर थी ...

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मैंने सुना है
स्वर्ग होता है,
होता है
जीवन के बाद
मृत्यु के पार
होता है
और बहुत खूब होता है ...

वहाँ ‘सब कुछ’ होता है
वह सब कुछ
जो धरती का नरक भोगते
बसता है तुम्हारी कल्पनाओं में
जिसके सपनों के पंखों पर
उड़-उड़ कर
रौरव नरकों के
जमीनी पल काटे जाते है ...

सुना है
वहाँ सर्व-इच्छा पूर्ति के
कल्पवृक्ष हुआ करते है
कामधेनु सरीखी
स्वादों की गाय होती है ...

समय के अणु जैसे थिर जाते हैं
नदी के तल पर टिक गई
किसी शिला की तरह
चिर युवा होते हो तुम ...

वहाँ बोटोक्स की सुइयाँ और
वियाग्रा की बूंदे नही मिलती
क्योंकि झुर्रियों और जरावस्था को
स्वर्ग का पता नहीं बताया गया है ...

वहाँ सोलह श्रृंगार रची
मेनका और रम्भा में बसी
सहस्त्रो, अक्षुण्ण यौवन वाली अप्सराएं हैं
सुर है सुरा है
नाद है गन्धर्व-नाद है
ऐश्वर्य है उत्सव है
उत्साह है अह्लाद है ...

राजपुरुषों से जीवन का
राजसिंहासनों पर बैठा
स्वर्ग में
सब सामान है ...

विस्मित हूँ मैं
मृत्यु के बाद भी
जीवन के पार भी
परलोक की रचना करने वाले
मक्कारों की व्यूह रचना पर ...

स्वर्ग में अप्सराएं बसती है
पर स्त्रियाँ नही मिलती ...

है किसी को पता ...
कि ‘उनके’ हिस्से का
वैभव, अह्लाद और स्वर्ग कहाँ है ...

क्यों नही है स्वर्ग में
अप्सराओं के पुरुषांतरण ...

कल्पनाओं में भी नहीं है ...

क्यों नहीं हैं
स्त्रियों के हिस्से के
आमोद की रचनाएं ...

सोचने पर
ढूँढें से भी मुझे
गले मिलने नहीं आते
उनके उत्सव ...

विस्मित हूँ और
क्रोधित भी
कि सृष्टि के
उत्सों की भाषा में
क्यों नहीं रचे गये
स्त्रियों के
निजी सुख ... !!!

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पुराण-मन्त्र लादे
गाँठ जोड़े
बैठी रहती हो, अलंकृत,
लिए ठोस जड़ कीमियागिरी
पाँव के नाख़ून से
सिर के बाल तक ,
अनुष्ठानकर्ताओं के
निवेश यज्ञों में दुष्चक्रित,
और अनजाने ही लेती रहती हो
अपने ही निजत्व के
विगलन का सेवामूल्य
सेवाधर्मिता और सतीत्व के
रुग्ण खंभ से कसी बंधी
कसमसाती 'सेविका '
तुमको करनी होगी
हाड़ तोड़ मशक्कत
खोलने होंगे स्वयं ही,
अपने कीलित हाथ पाँव
त्यागना होगा
मेनकाओं की
छद्म काया में
जबरन मोहाविष्ट कराया गया
अपना ही प्राण ...
हे सखी -
अपनी अभिमंत्रित आँखे खोलो
और करो -
अपनी ही
काया में प्रवेश ,
पीछे पड़े
फांसी के फंदों पर लटके
सिर कलम हुए
नाख़ून उखड़ी उँगलियों वाले
अँधेरी स्मृतियों में दफ़न
अनाम क्रांतिकारियों की बीजात्मा
बड़ा तड़फड़ाती है
छाती कूटती है
और पुकारती है तुम्हे -
उठाओ अंत्येष्टि घट
काटना ही होगा तुमको
उपनिवेशी चिताओं का फेरा
मुखाग्नि का हक
सिर्फ तुम्हारा है 

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अन्याय के विरोध में 
आवाज उठाने से पहले
देख लेना -
कि तुम्हारी जाति क्या है ... 

देख लेना -
कि जो अन्याय का शिकार हुआ 
उसकी जाति क्या है ...

देख लेना -
कि वो जो मर-खप गये कभी के
तुम्हारे-हमारे पूर्वज
उनके कर्मों के
क्या है इतिहास ...

देख लेना -
उनके धर्म-कर्म
और देश-जाति की पहचान ...

समझना इस बात को -
कि अन्याय का
विरोध करने के अधिकार के लिए भी
पहले निपटाने होंगे आपको
मरे हुए लोगों के
और कभी की मिट्टी में मिल गई
मरी हुई बातों के हिसाब-किताब ...

कि इतनी बंटी हुई दुनियाँ से ...

इतने कटे हुए सिरों से ...

इतनी उघाड़ी और काटी गई छातियों से ...

इतने फाड़ कर और नोच कर फेंके गये
गर्भाशयों से ...

भालों की नोक पर टंगी अजन्मी
धर्महीन संततियों से ...

इतनी गुमनाम
सामूहिक कब्रों से ...

इतने खून से भरी
नदियों और रास्तों से ...

इतनी कलपती छाती कूटती
माँ,बहनों और पत्नियों से ...

इतनी ख़ाक और ज़मीनदोज़ हुई
पीढ़ियों और सभ्यताओं से ...

कि अभी जी नहीं भरा है
इन तकसीमपसंदो का ...

इंसान और इंसानियत पर
भारी पड़ गई इतनी सारी ...

पूरी धरती को
अपने ठन्डे मरेपन से
दाबे और दबोचे बैठी ...

इन नामुराद काल्पनिक
सीमा-रेखाओं से ...

जिन्होंने धर्म-जाति ,वर्ण, देश-प्रदेश,
ऊँच-नीच के खाके खींचे
शतरंजे बिछाई...

निरीह प्यादे बैठाए ...

निजी स्वार्थों की शातिर चाले चली ...

भाँति-भाँति की औकातों के बंटवारों किये ...

कोई और नही
वह भी तुम ही थे ...

और आज भी
उसी शतरंज को खेलते ...

निरीह प्यादों की
गरदने उमेठते वो तुम ही हो ...

मक्कार और स्वार्थी
निजी सत्ताओं और वर्चस्व के लोभी ...

'महत्वाकांक्षी तुम' ...

जाओं ...
और चिंदी-चिंदी कर डालो
इस बची-खुची दुनियाँ के
बचे रह जाने की
थोड़ी बहुत गुंजाइशों को भी .

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स्त्रियाँ
जाँची जाती है
आँखों से
सवालों से
उँगलियों के पोरों से
पूछे गये इतिहास से
कही-अनकही
रुग्ण व्याख्याओ से
सुनी जाती है आलो से
देखी जाती है
खूब ही गहरे
जाने किन-किन ताखो से,
भांति-भांति के नमूनों से
परखी जाती है
पूरा का पूरा ही
परोस दी जाती है स्त्रियाँ
अजनबी हाथ,
फिर अभिलेखों में होती है दर्ज
यूँ ही बस
किसी पुरानी
गुम चोट के नाम ...

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चलने को 
बना दी गई
गाढ़ी-पक्की
सीधी-सरल लकीरों की
पूर्व नियत फकीरी में
गाड़ा हुआ
खूँटा तुड़ा कर
छूट भागी स्त्रियाँ
हर ऐरे-गैरे की
ऊहा के
उत्खनन की
खटमिट्ठी झरबेरी हो जाती हैं ...

पूरी निष्ठा से
अपना फर्ज निभाते हुए
दौड़ पड़ते है
सारे खेतिहर ...

अपने-अपने
फरुआ,गैती,कुदाल,हल उठा कर
आखिर मेहनतकशी जो ठहरी ...

खूंदना-मूँदना है
उसका आगत-विगत
सोना-जागना, उठना-बैठना
साँस-उसाँस, उबासी
यार-दयार ... सब कुछ ...

और बीजना है
भूमिपतियों को
उस पर,
चटखारों की लिखावट का
अपना-अपना
दो कौड़ी का सिंदूर ...

चारों दिशाओं से उठती
असंख्य तर्जनियाँ
अपने काँधो पर पड़ा यज्ञोपवीत
अपने कानो मे
खोंस लेती है ...

लकीरों से हट कर
चलने वाली
स्त्रियों की
फ़िज़ा बनती है
बनाई जाती है
फ़िज़ाओं में घोली गई स्त्रियाँ,
स्त्रियाँ कहाँ रह जाती है ...

चौक पर रहने वाली
नगरवधुओं में
तब्दील कर दी जाती है ... 

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मूर्खों को 
सुनने की विवशताएँ 
जीवन भर के लिए ...

सभागारों में 
कुर्सियों पर बैठी 
जड़ताएँ माँगती हैं 
जागने को
एक कप कॉफी कड़क
या एक धूम्रदंड
झाड़ने को राख ..

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प्रेषिता 
गीता पंडित 

Tuesday, March 12, 2013

चार कवितायें .... . अभिषेक शुक्ल

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स्त्री !
पित्रसत्तात्मक समाज की झूलती अरगनी पर 
टँगी मैली चादर सी 
जो कसी है मर्यादाओं,
रीति रिवाजों और कोरी सभ्यताओं की 
निष्ठुर चिमटियों से 
जिस पर फेंके जाते रहे ताश के पत्ते,
नीलाम होतीं रहीं तमाम द्रोपदियाँ, 
हर शाम सजतीं रहीं महफिलें,
पड़तीं रहीं आवारा पान की पीकें,
और धँसते रहे शराब के गिलास उन पर,
रात को वे मैली की जातीं रहीं
मर्दों के बिस्तरों पर
अगली ही सुबह चितकबरी चादरें
टांग दी जातीं वापस अरगनियों पर
चिलचिलाती रिश्तों की धूप में
फड़फड़ाते रहने के लिए ...!!

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सुनो,

तुम कहतीं थी न 
कि मै तुम्हारे लिए कवितायें नहीं लिखता 
क्या तुम्हे याद नहीं 
तुम्हारे सोलहवें जन्मदिन की 
वह धूसर शाम 
जब क्षितिज की आड़ में 
तुम्हारी अधखुली पलकों पर उगे साँवले सूरज को 
चूम लिया था मैंने 
काँपते, तप्त होठों से
तब लिखा था मैंने अपना पहला छंद
और उस दिन जब मेरे बहुत कहने पर
डरी,सहमी,सकुचाई सी तुम
आ पहुँची थीं गाँव के बाहर उस टूटी हवेली में
वहाँ उस रेशमी सी मुलायम चट्टान पर पसरी
तुम्हारी गुलाबी देह के हर पन्ने पर
मेरी रेंगती उँगलियों के पोरों ने
लिखी थी कोई कविता
और तुम्हारी रिसती, नमकीन हथेलियों ने
चट्टान पर उग आयी दूब को
कसकर भींच लिया था
कितनी ही कवितायें लिखीं थी मैंने
हम दोनों ने
प्रेम की वह भरी पूरी किताब
होली के रंग में रंगे दुपट्टे से लिपटी
आज भी रखी होगी
यादों की अलमारी की किसी दराज में
तुम पढ़ो तो सही...
बोलो ...पढोगी न...?

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कविता
तुम मुझे 
बचपन के सुआपंखी दिनों वाली 
मैजिक बुक की ही तरह लगती हो
जिसके चटक सफेदी से पुते पन्नों पर 
हम बनाया करते लगभग एक जैसे चित्र
भरते कुछ रंग जाने पहचाने 
और गढ़ते कहानियाँ
जो भी हम देख पाते 
स्कूल की ओर बढ़ता हुआ रामू
दूर आसमान में पतंग धकेलता मोहन
पनघट से गगरी भर ले आती मीना
किसी मोड़हीन सड़क पर
बढ़ते जाते जादुई चित्र
कदम-दर-कदम
पन्नों पर पाँव रखकर
और कह जाते कुछ अधूरी कहानियाँ
कविता
तुम भी तो सँजोए रहती हो
शब्द- चित्र
दिखाती हो सचल दृश्य
मैजिक बुक की ही तरह
आखीर में तुम छोड़ जाती हो एक प्रेणना
सुखान्त कहानी रचने की ...!!

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मै बनाऊँ एक सुराख खोपड़ी में
तुम लेकर आओ एक कीप 
और भर लाओ ज्ञान 
वेद,ऋचाओं,उपनिषदों और हिमालय की कन्दराओं का 
तुम उड़ेल दो समूचे ब्रम्हाण्ड का ज्ञान 
मेरे मस्तिष्क के सभी कोटरों में
ताकि मै जान सकूँ 
ज्ञान होना पर्याप्त नहीं
ज्ञान होने का विषय नहीं
ज्ञान विषय है अनुभूति का
ज्ञान के पार भी है एक संसार
निर्वात का
ज्ञान
हो सकता है माध्यम
उस निर्वात तक पहुँचने का
जोकि भरा है खालीपन से
विशुद्ध
खालीपन से...!!

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प्रेषिता 
गीता पंडित