Friday, September 4, 2020

हिंदी माह सितम्बर में अब से निरंतर रचनाएँ पढ़ें -

 दुःख शायद इसी को कहते है ( स्त्री) __

तुम्हें जानने के लिए 
फैला दीं बाहें 
उतार फेंके लाज के वस्त्र
उतरना चाहा 
पूरा का पूरा तुम्हारे भीतर 
लेकिन तुम 
अपनी ही यात्रा में मग्न 
दुहराते जा रहे हो स्वयं को


मैं ऐसे ही भौचक खड़ी 
देखती हूँ तुम्हें 
और सोचती हूँ 


तुम्हारी ही मॉस-मज्जा से बनी 
मैं कैसे हो गई अभूली गाथा 
तुम्हारे लिए


दुःख 
शायद इसी को कहते हैं |


(गीता पंडित)
24 अगस्त 2017
मेरे कविता संग्रह ( शिखंडी समय में ) से

Tuesday, August 4, 2020

मेरी पसंद में आज - बुरा आदमी - प्रज्ञा

आज से ब्लॉग पर मेरी पसंद-
जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं स्याह और सफ़ेद ऐसे ही हर व्यक्ति के अंदर भी यह स्याह और सफ़ेद निरंतर घटने वाला उपक्रम है जो उसे शैतान और देवता या अच्छा और बुरा व्यक्ति बनाता है लेकिन दोनों में से वह क्या बनता है यह परिस्थियाँ तो निर्धारित करती ही हैं मगर विवेक उसे ऊँगली पकड़कर सही राह दिखाता है. एक पल की कमज़ोरी कई बार पूरे जीवन का पश्चाताप बन जाती है और उसी पल की सूझबूझ जाने कितनों के लिए प्रेरणादायी हो जाती है. प्रज्ञा बख़ूबी इस पक्ष को अपनी कहानी में दिखाने में सफल हुई हैं. आप भी पढ़ें मेरी पसंद में 
★ बुरा आदमी
◆ प्रज्ञा
आज मैंने ठान लिया था टूटेजा सर शाम के समय कोई चक्कर लगवाएंगे तो साफ इंकार कर दूंगा। कई दिन से देख रहा हूं वो अक्सर मेरे साथ यही कर रहे हैं। सुबह के समय फील्ड का काम निबटाने जाते समय कितनी दफा पूछता हूं - 'सर! कोई इमरजेंसी?’ कंधे उचकाकर मना कर देते हैं पर जैसे ही शाम को घर निकलते समय बैग में दोपहर बाद धूल फांक रहा खाने का डिब्बा डालने को होता हूं ठीक उसी समय आवाज आती है-
''देवेंदर! फलां साहब की मोटी किश्त का टाइम पूरा हो गया। जाकर फलां इलाके से कलैक्ट करता आ। क्लाइंट ने अभी बुलाया है... इमरजेंसी है।’’
काम करते हुए मुझे लंबा अरसा बीत चला है पर दिमाग की सोच और चेहरे के भावों को अलगाने का हुनर अब तलक सही तरह नहीं सीख पाया हूं। मेरा बॉस बीमा कंपनी का बेहद सफल एजेंट है। क्लाइंट को नई स्कीम बेचनी हो या मेरे चेहरे के भाव पढ़ने हों - वह दोनों में माहिर है। मुद्दत से चाहता हूं वो मेरा मन भी पढ़े पर उसका उसूल है --मन पढ़ेगा तो धंधा खटाई में पड़ जाएगा। रोज़ किसी उल्टी दिशा में काम के लिए भेजे जाने से अक्सर मैं देर से घर पहुंचता हूं। यूं हर शाम, रात में ढलने की अभ्यस्त है पर मैं इस देर और गहरी रात का अभ्यस्त नहीं होना चाहता। ऑफिस शहर के एक कोने में है तो ठिकाना एकदम दूसरे कोने में। मैं रोज इनके बीच चकरघिन्नी-सा घूमता हूं। आज भी वही हुआ जिसका मुझे अंदेशा था। क्लाइंट का घर दिल्ली से सटे दूसरे स्टेट में और मेरा घर बिल्कुल अलग स्टेट में। यानी शाम के समय मैं बॉस की कृपा से तीन राज्यों में भटकता फिरूं। उनका क्या है जबान हिला दी। क्लाइंट के घर से मेरे ठिकाने की दूरी लंबी थी। पौने छह तो ऑफिस में ही हो गए थे। काम पूरा होते न होते दिन पूरी तरह ढल गया।
''साली! ये भी कोई जिंदगी है? रोज मरो-खपो और जिंदा रहो ,बार-बार मरने-खपने को। आज कोई ठीक जगह काम मिल जाए तो अभी लात मार दूं, इस नौकरी पर।’’
मेरी झुंझलाहट बेतरह बड़बड़ाने लगी। गुस्से और लाचारी के बीच एक यही बड़बड़ाहट तो है जो सच्ची साथी लगती है। मेरी बड़बड़ाहट नाजायज नहीं थी। अब रात को मेरे इलाके की तरफ जाने वाले साधन बेहद कम रह जाएंगे। या तो मैं इस तकलीफ़ को नियति मान लूं या फिर अपने समय की रक्षा के लिए मुस्तैद हो जाऊं। मैंने अपना समय बचाने के लिए क्लाइंट के घर से निकलते ही कैब कर ली। लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी पर मेरा ठिकाना था। कैब शहर के व्यस्त ट्रैफिक से जूझती रुक-रुककर बढ़ी जा रही थी मानो दुनिया भर के वाहनों का सैलाब उसे रोकने इसी सड़क पर बिछ गया था। मोबाइल की बैटरी लो मिलने और कैब में मेरी वाली चार्जर पिन न मिलने पर मन फिर टीसा। कुछ देर में आगे बढ़ती कैब सीमेंटी जंगलों को पछाड़ने लगी। बाहर देखते-देखते मेरी आंखों में नींद उतरती गई। रात कैब में उतरकर मुझे अपनी आगोश में लेने लगी। न जाने कितनी देर मैं बेसुध रहा। कैब की अजीब घरघराहट और उसके झटके-से रुकने पर मेरी नींद टूटी।
''सर जी! आप कोई दूसरी कैब कर लो। इसे तो सुधारना पड़ेगा। न जाने कितनी देर लगेगी। मुझसे नहीं संभली तो दस बजे यहां भला मुझे कौन मिलेगा? न आदम, न आदम की जात।’’
कैब का ड्राइवर परेशानी में बोला।
घटती दूरी, घर पहुंचने का भरोसा और सीट पर अधलेटी मुद्रा के इत्मीनान को कैब ड्राइवर के चंद शब्दों ने चौपट कर दिया। अगले ही पल मैंने खुद को एक सुनसान जगह पर पाया।
''क्या मतलब दूसरी कैब कर लूं? खराब गाड़ी लेकर ही क्यों चला तू?’’
कुछ देर शांत रही मेरी झुंझलाहट ने फिर सिर उठाया। ड्राइवर सवारियों के नखरों-झगड़ों का आदी था, चुप रहा। मैंने दूसरी कैब करने के लिए मोबाइल निकाला, बैटरी कम थी। मामला बीच में अटक सकने का खतरा देख मैंने फोन वाला हाथ झटका और झुंझलाया -
''मरवा दिया तूने आज...’’
''मेरे फोन से करा लो बुक’’ ड्राइवर ने मेरी परेशानी समझकर अपना फोन आगे बढ़ाया।
''बस... बस रहने दे। नहीं चाहिए तेरी मेहरबानी।’’
मैंने जलती हुई आंखों से उसे घूरा और पैसे चुकाते हुए अपनी ठसक से आगे बढ़ गया।
मेरे ठिकाने की दूरी आठ-नौ किलोमीटर की थी। यहाँ से ऑटोरिक्शा, बस की उम्मीद करना बेकार था। शाम ढले इक्का-दुक्का बैटरी रिक्शा किस्मत वालों को मिल जाया करते थे फिर भी उम्मीद का दामन थामकर कुछ दूरी पर किसी ऑटो के मिलने की आस में मैं पैदल चल पड़ा। मेरे लाख चाहने पर भी रात गहरा चुकी थी। भूख धीरे-धीरे आंतों से लड़ाई पर उतरने लगी और मैं रास्ते की दूरी से लड़ रहा था।
मेरे शहर का ये इलाका बसी हुई पुरानी कॉलोनियों की तरह शोरोगुल में अभी नहीं डूबा था। पुरानी बसी हुई कॉलोनियां अक्सर दिन में ही नहीं देर रात तक गुलज़ार रहती हैं. एक-दूसरे से सटे घरों में सांस लेने से लेकर लड़े जाने वाले आगामी मोर्चों की खबरें भी पोशीदा नहीं रहने पातीं पर ये जगह अभी इस रंग में नहीं रंगी थी। शहर की सीमा पर बिल्डरों द्वारा तेजी से उठाई जा रही बहुमंजिला इमारतों से धीरे-धीरे पटते जा रहे इस इलाके में फिलहाल अधिकांश बंदोबस्त अस्थाई थे। वो मजदूर जो इलाके में एक बस्ती का ख्वाब उतार रहे थे वे कुछ समय बाद न जाने किन्हीं और ख्वाबों को पूरा करने किन अनजान रास्तों पर निकल चले जाने वाले थे। वो तमाम बिल्डर जो अभी अपने समय के एक बड़े सपने को बेच देने की फिराक में थे इससे भी बड़े सपनों की तलाश में दौड़ने -दौड़ाने के मंसूबे पहले से बनाए बैठे थे। उनके रचे सपनों को बिकवाने वाले एजेंटों की लंबी-चौड़ी जमात जिन सुविधाजनक शिविरों में ग्राहकों के लिए बैठती थी वे सभी पहले से ही अस्थाई थे। कुछ सपने तो लगभग तैयार खड़े थे । रोज़ किसी का हो जाने की राह तकते और शाम को थककर ऊंघने लगते। यूं कुछ किलोमीटर पर आधा बसा, आधा उजड़ा एक मोहल्ला भी था जो अब तक एक पुराने गांव का नाम अपने कांधों पर ढो रहा था। मुख्य सड़क से अंदर की तरफ कुछ किलोमीटर के फासले पर सपनों के आलीशान बियाबान में ऐसे दो-एक मोहल्ले रौशन थे। शाम होते न होते पूरा इलाका किसी कोहरे की चादर में सिमट जाता। इलाके की मुर्दनी देखकर मेरे शरीर में एक अजब-सी झुरझुरी दौड़ गयी पर मेरे कदम कुछ और तेज हुए। अचानक मेरी बगल से पुलिस की एक गाड़ी फर्राटे से निकल गयी। मेरे कदम ठिठके। मैं फिर बड़बड़ाने लगा।
''शहरों में अपराध का आंकड़ा आखिर कहां जाकर थमेगा? आए दिन, दिन के चौबीस घंटों में अपराधों की बढ़ती वारदातें... जैसे शहरों में होड़ लगी है कि कौन बड़ा अपराधी है? बेहिसाब हत्याएं, वहशी बलात्कार, लूट-पाट के नए से नए हथकंडे। पंद्रह रुपये कोई कीमत होती है किसी की जिंदगी से खेलने की? पर नहीं कीमत हर हाल में वसूली जानी है। टी.वी. परसों ही तो चीख-चीखकर बता रहा था कि एक जिंदगी पंद्रह रुपये भाव तुल गई। कई बार लगता है इंसान कम और वारदातें ज्यादा हैं। हर चमकदार आईना पीठ पीछे मैला-कुचैला। जीना जैसे रोज अपने को किसी जोखिम से निकालना हो गया है... मैं किसी जमाने में कविताएं लिखा करता था, पर अब? शहर ने मेरे शब्दों को मारकर मुझे क्लाइंट्स के टार्गेट तले कबका कुचल दिया।
इस बार की बड़बड़ाहट निर्जन रास्ते में ज्यादा उन्मुक्त थी पर जैसे ही लूटपाट जैसा शब्द जबान पर आया मैंने हाथों से अपना पर्स टटोला। सड़क कहीं अधिक सुनसान दिखाई देने लगी। पुलिस वैन मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी। मोबाइल पर उंगलियां गईं और संकोच में सिमट गईं। मैं उसकी चार परसेंट बैटरी को बेकार गंवाना नहीं चाहता था। चलते-चलते मैं उन दिनों के बारे में सोचने लगा जब जगह-जगह पी.सी.ओ. की सुविधा थी। मोबाइल न भी हो तो कोई खतरा नहीं। बात के तार टूटते नहीं थे। फिर पी.सी.ओ. का मतलब बसावट भी तो था। कुछ लोग, चाय की गुमटी, उसके साथ सटी कोई छोटी-सी दुकान। एक सुविधा दूसरी को कितनी जल्दी लील जाती है। मेरे आगे एक टैम्पू में उनींदा बैठा परिवार मुझ पर गौर किए बिना निकल भागा। सड़क भी उसे देखकर हैरान थी। खुद को अकेला पाकर भी मैंने राहत की सांस ली।
''शुक्र है अकेला हूं। परिवार साथ नहीं है। नहीं तो रोज मेरे इंतजार में वो भी परेशान रहता।’’
पैदल चलकर मैंने काफी दूरी तय कर ली। आगे एक छोटा-सा बाजार था जिसकी तमाम दुकानें बंद हो गयी थीं। बाजार सड़क के दूसरी तरफ था मैं दूसरी तरफ जहां कोई दुकान न थी। कुछ दूरी पर कुछ नौजवान लड़के खड़े दिखाई दिए। मन में एक पल भी कोई नेक ख्याल न आया। मुझे अकेले को देखकर कहीं ये बिना वजह हमलावर न हो जाएं? मेरी सांसें तेज चलने लगीं। मेरी चाल अपने आप बहुत सतर और व्यवस्थित हो गई। अकेलेपन से निपटने की यह खास कला थी जिसमें बच गए तो कला सार्थक वरना बेकार। लड़कों ने एक अजीब निगाह मुझ पर डाली जिसे मैंने महूसस किया पर खुद पर हावी नहीं होने दिया। पहले मैं उनके सामने से गुजरा, दिल जोरों से धड़का। मैं कुछ आगे बढ़ा तो पीठ पर कई जोड़ी आंखों की चुभन महसूस हुई पर धीरे-धीरे एक बेशऊर ठहाके ने मेरी लानत-मलामत करके मुक्ति पाई। मेरी सांसें आगे बढ़कर भी संयत नहीं हुई थीं। सड़क अंधियारे में तैर रही थी। मैंने यादों के दरवाजे को धकेला और जानना चाहा कि पहली बार कब अंधेरे ने मुझे बेचैन किया होगा? देर तक धूल सनी यादों को झाड़ा और महसूस किया बचपन से ही अंधेरे के साथ आशंकाओं के अनगिनत बीज रोप दिए जाते हैं। मेरी बड़बड़ाहट ने फिर शक्ल अख्तियार की-
''जीवन के साथ इन बीजों के फूटने और बीहड़ में ढलते जाने का चक्र चलता रहता है। आखिर बचपन के किन हाथों में आशंकाओं के बीहड़ छांटने की दरांती आती होगी?’’
अंधेरे में कदम बढ़ाता मेरा मन इस समय बेचैनी से भर उठा। दिल में एक तेज भाप उठी और उसने मेरे सीने पर जैसे फफोले उगा दिए। अंधेरा, रात और सड़क - मैं कहां से लाता इन फफोलों के लिए मरहम? मैंने मोबाइल निकाला। उसने ग्यारह का समय दिखाया। मैं बेरहम की तरह उसे ताकता रहा। मर रहे आदमी की आखिरी चीख-सा वह घनघनाया और शांत हो गया। एक पल ठहरकर मैंने अंधेरे को टटोला वह इत्मीनान से माहौल में पसर चुका था। मद्धम रौशनी उसके आगे दम तोड़ रही थी और आस-पास की अनेक अबूझ आकृतियां मुझे अपने पंजों में जकड़ने को बढ़ी चली आ रही थीं। मैंने रफ्तार पकड़ ली। आगे एक मोहल्ला और उसके बाद एक लंबा निर्जन ,तब मेरा ठिकाना-अंधेरे के पंजों से बचने के लिए मैंने अपनी गति दोगुनी कर दी। मेरे भागते पैर कुछ ही देर में हांफने लगे।
रात में दूरियां किस कदर बढ़ जाती हैं यह वक्त मुझे बता रहा था। मैं रुका नहीं बढ़ता रहा। अचानक मेरी बगल से एक आकृति बदहवास-सी भागी। मैं लगभग गिरते-गिरते बचा पर मेरी एक भरपूर चीख अंधेरे को चीरती हुई निकल गई। सोचने-समझने की इंद्रियां जैसे जड़ हो गईं। आकृति के इंसान होने पर मुझे संदेह हुआ। कितनी बार अंधेरे से बड़े अंधेरे के ख्याल होश उड़ा देते हैं। मैं भौंचक-सा किसी सुरक्षित जगह पर पहुंचने की जल्दी और रौशनी की तलाश में लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़ा कि एक चीख मुझे सुनाई दी। इस बार मैं नहीं चीखा था। मैं ठिठक गया। आकृति और इंसान एक-दूसरे से मिल जाने की कोई जुगत लगा रहे थे। मैं पलटा। फिर वापस आगे बढ़ा। फिर रुका और हिम्मत करके चीख की दिशा में बढ़ने लगा। आकृति की मरियल-सी कराहें मुझे रास्ते का पता दे रही थीं। अंधेरे में सूझता भले कुछ नहीं पर आवाज़ों के रास्ते बेहद उजले रहते हैं।
कुछ दूरी पर दूसरी सड़क के नीचे की ओर एक अंडरपास दिखाई दिया जहां मामूली-सा बल्ब अपनी सारी शक्ति लगाकर भी टिमटिमा भर रहा था। आकृति मुझे वहीं दिखाई दी। मैं सड़क पार कर उसके नजदीक पहुंचा तो उसकी पीठ मेरी तरफ थी। मेरे आने से अनजान वह अपनी चोट सहला रही थी। उसके शरीर पर चुस्त फ्राक और कंधों पर ढलके बालों ने उसकी किशोर उम्र का अंदाजा मुझे दे दिया। मैंने हौले से उसके कंधे पर ज्यों ही हाथ रखा उसके बदन में भयानक सिहरन हुई उसने पूरी ताकत लगाकर कंधे से हाथ को झटका और वह बिना पलटे चीखकर आगे की ओर भागी। आगे घुप्प अंधेरा था। वह अंधेरे में खो गई। उसकी इस हरकत पर मैं अवाक रह गया। कुछ क्षण की खामोशी के बाद मैं उसे पुकारने लगा। मुझे डर था कि वह कहीं बहुत आगे न निकल जाए।
''तुम भाग क्यों रही हो? ये जगह ठीक नहीं है तुम्हारे लिए... सुन रही हो...’’
कोई जवाब नहीं आया। मैं निराशा में भी लड़की की दिशा में कान लगाए रहा। वहां से लड़की के रोने की आवाज आई। उसने मुझे भीतर तक हिला दिया। उसका तनाव अंधेरे की तरह घना महसूस हुआ जिसके पार पहुंचना मेरे लिए असंभव था। फिर भी मैंने कोशिश नहीं छोड़ी।
''देखो! तुम डरो नहीं, भागो मत। यहां आओ... अच्छा मैं ही आता हूं तुम्हारे पास।’’
''यहां मत आना मेरे पास।’’ उसने दो टूक कहा।
''मेरा यकीन करो मैं बुरा आदमी नहीं हूं। मैं यहीं खड़ा हूं, नहीं आ रहा तुम्हारे पास। ठीक है। अब तो लौटकर आओ। ऐसे मत करो।’’
वह कुछ नहीं बोली।
''इतनी रात यहां क्या कर रही हो इस सुनसान में?’’
इस बार भी कोई जवाब नहीं आया पर रोने की आवाज आई जिसे सुनकर मेरा दिल और तेजी से धड़का।
''देखो! ये जगह तुम्हारे लिए ठीक नहीं। सुनो! लौट आओ।’’
मैं देखता रहा पर वह नहीं आई।
''मेरी बात मान लो यहां इतनी रात ठीक नहीं है और मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। वैसे मुझे भी यहां नहीं होना चाहिए था इतनी रात...। सुन रही हो तुम... ये अच्छी बात नहीं है। तुम्हें भी यहां नहीं होना चाहिए था। देखो! रोओ मत।’’
मैंने बोलते-बोलते रुमाल निकालकर माथे पर आ गए पसीने को पोंछा। मेरी आवाज थरथरा रही थी। बेचैनी, घबराहट और उत्तेजना से मेरी आवाज भर गई। मैंने महसूस किया मुझे अपनी आवाज बहुत भीतर से आती हुई सुनाई दे रही थी। कितना मुश्किल होता है न यह साबित करना कि आप जो कह रहे हैं वो सच है। उस तरफ से आवाज का कोई सुराग नहीं मिल रहा था। मन में ख्याल आया छोड़ देता हूं इसे यहीं... 'अरे! नहीं नहीं...’ - मन ने डपटा।
''सुनो! तुम डरो नहीं ..आओ न इधर। आओ! घबराओ नहीं मुझे बताओ क्या बात है? मुझे पता है तुम डरी हुई हो। किसी से नाराज होकर आई हो क्या?’’
इस बार कदमों की आहट मुझ तक पहुंची। वह अंडरपास की ओर लौट रही थी। अपनी बेचैनी में मैं एकदम चुप रहा। कहीं मेरे शब्द उसका इरादा न बदल दें।
आकृति संकोच में पास आती गई। जब वह मेरे हाथ बराबर दूरी पर थी तो मैंने कहा -
''मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा, यकीन करो।’’
वह चुप थी। रोने के कारण कुछ-कुछ पल बाद निकल रही उसकी सिसकी ही उसकी आवाज थी जिससे मुझे बहुत कुछ समझना-जानना था। वह अब भी कांप रही थी। उसकी सांसें तेज चल रही थीं। मैंने उसके चेहरे पर नजर गढ़ाई तो उसकी सूजी हुई आंखें दिखीं। सीधी आंख के ऊपर एक चोट का निशान भी था। मेरी घबराहट लगातार बढ़ रही थी। फिर भी मैंने पूरी शक्ति बटोरकर कहा -
''मैं गलत आदमी नहीं हूं।’’
''मैं आपको जानती हूं।’’
मैं चौंक गया।
''मुझे?... कैसे?....’’
सावधानी से लैस होकर मैंने उसका चेहरा टटोला। मुझे हैरानी हुई। कहां देखा है इसे? कौन है ये? मैं कब-कैसे मिला था इससे?- मन में अनेक सवाल उछाल मारने लगे।
''आप इतनी रात में यहां क्या कर रहे हैं?’’
उसने मुझसे ऐसे पूछा जैसे मुझे अच्छी तरह जानती हो पर मुझे वह क्यों याद नहीं आ रही थी? मैंने महसूस किया कि उसका स्वर और शरीर पहले के मुकाबले स्थिर-सा हुआ है।
''तुम कैसे जानती हो मुझे?’’ आखिरकार मैंने पहचान में असमर्थ अपनी नजर की हार मान ही ली।
''आपको मैं याद नहीं?... पहले आप रहते थे हमारे मोहल्ले में... यहीं पास में। दीक्षित अंकल के घर आते थे वहीं तो था मेरा घर। याद नहीं आपको मेरे पापा की दुकान थी उसी मोहल्ले में।
मैंने जोर मारा तो दीक्षित जी याद आए। भले व्यक्ति थे। वो दुकान और उसका एक पैर से बेकार दुकानदार याद आया, उसकी सुंदर बीवी भी याद आई... याद आई उसके संग रहती एक लड़की...
''अरे! तुम... हां-हां याद आ गया मुझे। कमाल है तुमने मुझे पहचान लिया। इस घुप्प अँधेरे में भी?’’
एक पल की राहत के बाद मैं फिर बैचेन हो उठा। पहचान के घेरे किस कदर फिक्रमंद होते हैं-
''तुम घर से दूर, इतनी रात गए यहां अकेली क्या कर रही हो?’’
सवाल के जवाब में वह खामोश खड़ी रही। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था।
''घर क्यों नहीं जाती हो?... चलो मैं संग चलता हूं। मुझ पर भरोसा करो। मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा।’’
मैंने कहा पर मेरे शब्द उसकी चुप्पी नहीं पिघला सके। शायद मेरे सवालों ने उसे काठ की गुड़िया बना दिया था। मैं कुछ देर खड़ा रहा। वह भी खड़ी रही। मैं अचरज में था उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। मेरे आगे दो ही रास्ते थे या तो मैं उसे छोड़कर अपनी राह निकल जाऊं या फिर इसे इसके घर पहुंचा दूं।
''चलो...’’
''नहीं। मैं उस घर में नहीं जाऊंगी।’’
''पर क्यों?’’
उसने गहरी सांस ली, एक घूंट-सा भरा।
''बस।’’
''ये क्या बात हुई? देखो! कई बार घर में कुछ बातें हो जाती हैं पर इससे क्या कोई घर छोड़ देता है?’’
''मैं नहीं जाऊंगी। आप जाओ। आपको जाना है तो।’’
इस बार उसके शब्द सख्त थे। मैंने महसूस किया उसके शब्दों ने मेरे पैरों में जंजीर-सी डाल दी। ऐसा लगा जैसे नीचे जमीन ही नहीं है।
''देखो! मैं ऐसे नहीं जा सकता। खासतौर पर अब तो नहीं।’’
मुझे बताओ न क्या बात है? मैंने कहा।
मेरे स्वर की दृढ़ता भांपकर वह बोली-
''आप मेरे साथ बैठोगे कुछ देर?’’
झिझक में लिपटा उसका सवाल मुझे घूरने लगा।
''य...हां? ....आं... हां-हां’’
लड़की के मिलने पर अंधेरा कुछ समय के लिए मुझसे दूर हो गया था पर उसके इस सवाल के साथ वह फिर नमूदार हुआ। रात कितनी घिर गई है। मैं फिर आशंकाओं में घिरने लगा। अंधेरे जगह-जगह घात लगाए बैठे थे। मैंने लड़की का साथ नहीं छोड़ा। अंडरपास छोड़कर हम आगे बढ़े। मेरा यकीन कहता था रात के सफर ने कैलेंडर के हिस्से में नया दिन उगा दिया होगा। बैठने की जगह तलाशते हम कुछ दूर चुपचाप चले। काफी आगे अंधेरे में नहाया एक पार्क दिखा। पार्क तो क्या उजाड़ ही था। टूटी मुंडेर से हम अंदर हुए और जर्जर- से बेंच पर जा बैठे। दूर-दूर तक रौशनी का कोई जुगनू भी नहीं था। ऊपर चांद की बारीक फांक और नीचे हम दोनों। वहां बैठकर मुझे अपने पैरों की थकान का जबरदस्त एहसास हुआ। दोनों हथेलियों से मैं अपने पैर दबाने लगा।
''क्या नाम है तुम्हारा?’’
''मेरा नाम यशू है... आप भूल गए?’’
" यहां अकेले डर तो नहीं लग रहा?"
''पहले लग रहा था... अब...’’
यशू के शब्द ने आखिर मेरे भरोसे की डोर को थाम लिया था।
''मैं घर से भाग आई हूं। अब मेरा मन वहां नहीं लगता।’’
मैंने अंधेरे में ही उसके चेहरे की रेखाएं टटोलीं ,वहां घर से लगाव का कोई रेशा मुझे न दिखा। वो बामुश्किल पंद्रह-सोलह बरस की होगी। मैं हकबका गया। अब क्या करूंगा? मेरा दिमाग चौगुनी रफ्तार से काम कर रहा था। यहां आस-पास कोई फोन भी नहीं और फोन होता भी तो उसके घर का नम्बर कहां था मेरे पास? कैसे खबर करूं इसके घर? मेरी चिंताओं को किसी करवट चैन न था।
''आज पापा ने मुझे बहुत मारा... मैं नहीं जाऊंगी घर।’’
उसकी दृढ़ता भांपकर मुझे कोई सही जवाब नहीं सूझा पर मेरी खामोशी उसे चुभ न जाए और कारण पूछना अखरे नहीं इसलिए मैंने कहा - ''हां, होता है ऐसा कई बार।’’
कुछ देर एक लंबी खामोशी हमारे बीच रही फिर वह बोली -
''मैंने आपसे कभी नहीं कहा, पर आप मुझे बहुत अच्छे लगते हो।’’
सुनकर मैं सकपकाया। लड़की उम्र में मुझसे काफी छोटी थी। कुछ क्षण रुककर मैं बोला -
''हां इसमें क्या है, तुम भी बहुत अच्छी हो।’’
''नहीं... आप सच में मुझे बहुत पसंद हो। आप जब दिखते थे मोहल्ले में मैं चाहती थी आपसे कभी बात करूं।’’
इस बार लड़की की आवाज़ कम लरजी। सकुचाई तो कतई नहीं। अब तक वह पूरी तौर पर संयत हो चुकी थी। मेरे यकीन की हद के भीतर उसकी कंपकंपी, रुलाई और डर की हर दीवार ढह रही थी।
''लेकिन हम तो कभी मिले ही नहीं। हम क्या बात करेंगे?’’
अब तक मैंने जान लिया था कि इससे डांट-डपट नहीं की जा सकती और समझाना भी अभी बेकार रहेगा फिर इस रात में, इस बियाबान में इसे अकेला कैसे छोडूं? यही सब सोचकर मैं उसकी बातें पूरे धैर्य से सुनता रहा। ऐसे कि उसे लगे कि मैं उसकी बातों में दिलचस्पी ले रहा हूं। उसके पास अनंत बातें थीं। धरती से लेकर चांद की, हवाओं से लेकर दरियाओं की, आग से लेकर फूल की। वह जिस गति से बोले जा रही थी उस गति से मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी। मैं अपनी चिंता को भरसक छिपा रहा था।
''मैंने कभी इतने तारे एक संग नहीं देखे। तारे तो क्या मैंने रात के इस वक्त कभी आसमान ही नहीं देखा... कितना सुंदर है ये आसमान।’’
वह पूरी बेफिक्री में आसमान को निहार रही थी। मैं सोचने लगा कितना फर्क है कुछ देर पहले की और इस समय मेरे साथ बेंच पर बैठी इस लड़की में। सिर उठाकर आसमान को देखा तो लगा जाने कितने अर्से बाद मैं भी एक पूरा आसमान देख रहा हूं। आसमान में बिखरे चिंदी-चिंदी तारों को देख रहा हूं। अंधेरा भी खूबसूरत हो सकता है - आज के तमाम बुरे अनुभवों में ये पहला सुकून मेरे जेहन में दर्ज हुआ। हम दोनों बिना कुछ बोले देर तक अपने हिस्से का आसमान और आसमान के हिस्से के चांद-तारे निहारते रहे। शाम ढलने के बाद केवल यही क्षण था जब सारी चिंताएं आसमान ने परे धकेल दीं। समय अंधेरे के नुकीले सिरे घिसने लगा। लड़की फिर बोलने लगी। उसके पास किस्सों की कमी नहीं थी और किस्सों के सिरों को बिना किसी तरतीब से जोड़े वह एक पगडंडी से दूसरी ,दूसरी से तीसरी पर बेधड़क बढ़ती गयी। कुछ समय बाद बोलते-बोलते उसने अपने दोनों पैरों को बेंच पर सिकोड़कर रखा। वह मेरे नजदीक आई और मेरे कंधे पर सिर रख दिया। धीरे-धीरे आसमान को निहारते हुए उसकी आंखें मुंदी और वह सो गई।
मैं खामोश रहा। अपने हिलने-डुलने को मैंने बेहद नियंत्रित कर लिया कि लड़की की नींद में कोई खलल न पड़े। मैंने इस कदर अपने कंधे को उचका लिया कि उसका सिर उसमें पूरे इत्मीनान से अटका रहे। मैं उसकी राहत की तमाम कोशिशें कर ही रहा था कि मेरा खून सूख गया। अचानक मन में ख्याल आया कि यदि यहां इस वक्त कोई आ जाए तो हम दोनों को देखकर क्या सोचेगा? उसकी नाबालिग उम्र और आदमी की उम्र का मैं? किसी भी सोचने वाले के मन में ओछा इरादा ही सिर उठाएगा। सोचते हुए आदतन मेरे नाखून दांतों के तले चले गए। मैं उन्हें काटने लगा। बचपन से मेरी परेशानी है। चिंता सवार होती है तो मैं नाखून कुतरने लगता हूं। मेरा मन मुझे धिक्कारने लगा। मैंने क्यों डांट-डपट से इसे सीधा नहीं किया? क्यों आ बैठा इसके साथ? अपने सवालों के साथ मैं बेहरकत कुछ देर बैठा रहा। मन में फिर एक सवाल कौंधा - ''इस लड़की ने मुझसे ये क्यों कहा कि आप मुझे बड़े अच्छे लगते हैं?’’ इस बार मैंने नजर भरकर उसके चेहरे को देखा पर चेहरे ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने उसके सिर के दबाव को अपने कंधे पर और महसूस किया। वो गहरी सो चुकी थी। वो मुझसे सटी हुई थी। उसके सारे शरीर का भार मुझ पर था। रात की उस हल्की ठंडक में जैसे एक गर्म भाप मेरे कंधे को छू रही हो। यही नहीं उसकी सांसों की आवाज़ को मैं बहुत अच्छी तरह सुन पा रहा था। मेरे पूरे बदन में एक झनझनाहट दौड़ गई। दिल में अजीब-सी बेचैनी होने लगी। मैंने अपने सूखते गले में एक घूंट भरा, थूक निगला। मैं उसके बेहद नजदीक था। मेरा हाथ उसके कुर्ते के किनारे को छू रहा था। थोड़ी देर में वो किनारा मेरे नाखून के नीचे था। मैंने महसूस किया कि नाखून बढ़ रहा है। नुकीला, खूंखार और निर्मम। मैंने गहरी सांस ली। अपने दिल की धड़कन को महसूस किया। मैंने देखा उस वीराने में बहुत सारे नाखून उग रहे हैं। खून से सने। मैं बहुत सारी गहरी आंखें आग-सी दहकती हुई महसूस कर रहा था। उस वीराने में कई जोड़ी हाथ उगने लगे। सब तरफ अंधेरा था। मैंने झटके से आंखें खोलीं। अपनी सांस को महसूस किया। मैंने हाथ को देखा और चुपचाप लड़की के कुर्ते के किनारे से उसे अलग किया। मेरी हथेली पसीज गई थी। अपने हाथों को अपने घुटनों पर रखा और आंखें गड़ाकर देखा उस वीराने में कोई नहीं था। न हाथ, न आंखें और न नाखून। मैंने एक हाथ से अपनी आंखों को साफ किया और बुदबुदाया-बुरा आदमी। मैं हल्के-से मुस्कुराया। फिर से मेरे शब्द मुझे सुनाई दिए- बुरा आदमी। कहीं दूर चिड़ियाओं के चहकने की हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी। मैंने देखा आसमान की धरती चटखने लगी और उसकी कालिमा धुंधला रही है।
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प्रज्ञा जी की एक नई कहानी जो पिछले दिनों पहल पत्रिका के नए अंक में प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़ें 
(पहल 122 अंक में प्रकाशित।)

साभार गंगा शरण जी के फ़ेसबुक स्टेटस से 

Friday, June 12, 2020

कहानी ऐसे नहीं - गीता पंडित


ऐसे नहीं ____



अनिल, सुनो ना” 
हाँ
कहो”  
हमें कम से कम अब तो मॉम डैड और नीशू से मिलने जाना चाहिये | पाँच वर्ष हमारे विवाह को हो गए
शायद अब वे मान जाएँ और हमारे प्रेम को समझ सकें |”
अनिल चुप रहा | मैंने फिर कहा 
देखो, हमारे दो बच्चे भी हो गए हैं इन्हें भी तो अपने ग्रैंड पा और ग्रैंड माँ और बुआ को जानना चाहिये |”
ह्म्म्मम्म |”
तो कब चलेंगे ?” 
अभी नहीं कह सकता | ऑफिस में काम बहुत है |” 
तो कब ?” 
मैं ज़रा ऊंची आवाज़ में बोली क्योंकि मैं समझ गयी थी कि हमेशा की तरह इस बार भी अनिल टालमटोल कर रहा है |

उसने अपनी दृष्टि उठाकर मुझे देखा शायद, मेरे लहजे की तल्खी वह पहचान गया था
अच्छा, चलेंगे बाबा | नाराज़ क्यों होती हो ? चिंता मत करो अन्नू एक दिन सब ठीक हो जाएगा और फिर मैं तो हूँ ना तुम्हारे साथ |” 

वह प्यार से अनु को अन्नू कहता है
यह कहकर उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और चुम्बन की बौछार लगा दी
हर बार यही होता है | मैं खो जाती उसके प्यार में, उसकी जादूभरी बातों में | मुझे तसल्ली मिल जाती है
लेकिन जब से मैं माँ बनी हूँ मैं माँ की तरह सोचने लगी | मेरी बेचैनी बढ़ गयी
मुझे पीड़ा होती कि अनिल की मॉम ने भी अनिल को ऐसे ही प्यार से पाला-पोसा होगा जैसे मैं अपने बच्चों को पाल रही हूँ
उन्होंने भी ऐसे ही सपने देखे होगे जो हमने चकनाचूर कर दिये
मैं जानती थी कि सपनों का टूटना इंसान को तोड़ देता है
उन्हें कितना दुःख होगा, कितना दर्द होगा जब उन्हें मालूम होगा कि अनिल ने विवाह भी कर लिया उन्हें बिना बताये और अब दो बच्चे भी हैं
वह कैसे सह पाएंगी ?
मैं मन ही मन बारम्बार उनसे माफ़ी मांगती हूँ

सच, माँ बनने के बाद ही लडकी औरत बनती है
आज मैं एक पूरी औरत थी और औरत की तरह सोच रही थी |
मुझे एक अपराध बोध सा होने लगा | इतनी गंभीरता से मैंने पहले कभी नहीं सोचा था 
लेकिन आजकल कुछ था जो मुझे अंदर ही अंदर दीमक की तरह चाटने लगा |

असलमें प्रेम विवाह था हमारा | मेरे परिवार ने हमारी पसंद पर मुहर लगा दी लेकिन अनिल जानते थे कि वे हमारे विवाह के लिए कभी भी सहमत नहीं होंगे इसलिए तीन साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद उन्हें बिना बताये हमने विवाह कर लिया
एक ऐसा प्रेम विवाह जो अरेंज्ड मेरिज की तरह हुआ जिसमें मेरा सारा परिवार रिश्ते नाते वाले और दोस्त शामिल थे लेकिन अनिल का परिवार शामिल हो सका
मैं जानती थी कि अनिल भीतर से खुश नहीं थे
खुश भी कैसे हो सकते थे केवल अपने दोस्तों से घिरे हुए खुश होने का प्रयास कर रहे थे
हमारे मित्र भी कोमन थे इसलिए हमारे एक मित्र के माता-पिता ने अनिल की तरफ से सारी रस्में पूरी कीं माता पिता की तरह ही लेकिन वो दोनों उस कमी को पूरी नहीं कर सकते थे जो उस समय हम दोनों ही महसूस कर रहे थे
समय भागता रहा | हमारे दो बच्चे भी हो गए बेटी तीन साल की और बेटा पांच महीने का लेकिन तुमने अपने घर पर अभी भी हमारे विवाह के विषय में कुछ नहीं बताया | जब भी घर वाले विवाह की बात करते तुम हंसकर टाल जाते या चुप्पी साध लेते
मैं कई बार बहुत परेशान हो उठती थी और जिद्द भी करती कि हमें वहां जाना चाहिए लेकिन तुम हमेशा ही मना कर देते | तुम्हें अभी भी विश्वास नहीं था कि वे हमें स्वीकार कर लेंगे |
इस बार मैंने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए एक हफ्ते की छुट्टियां लेकर हम कहीं किसी सैर-सपाटे पर जाने की जगह केरला जायेंगे जहां अनिल के मॉम डैड रहते हैं
अनिल को दो महीने के लिए मलेशिया जाना था
इसलिए अनिल ने कहा -

अन्नू, ट्रेनिंग से आने के तुरंत बाद इस बार मॉम डैड के पास जरूर चलेंगे
तैयारी करके रखना |”

हम इंटरनेश्नल एयरपोर्ट पर अनिल को विदा करने गए | हाथ हिलाते हुए अनिल का मेरी दृष्टि दूर तक पीछा करती रही | प्लेन के टेक ऑफ होने से पहले उसने हम सब से बारी-बारी बात की
केरला जाने के नाम पर मैं बहुत खुश थी | जाने कितने सपने थे जो बारी बारी दरवाज़ा खटखटाने लगे |
लेकिन इसके बाद वो हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती 

सूचना मिली कि प्लेन रडार की पहुँच से गायब हो गया है और कहाँ गया मालूम नहीं | किसी ने किडनैप किया है या वह क्रैश हो गया कोई निश्चित रूप से नहीं कह सकता |

ओह!!!! स्तब्ध थी सुनकर
सन्नाटा जैसे श्वासों में समा गया
समय अपनी चाल भूल गया
शिथिल देह और शिथल मन इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था
ऐसा कैसे हो सकता है ?
अनिल!!!!!! कहाँ हो
ऐसे कैसे जा सकते हो ?
मैं पागलों की तरह हेल्प लाइन पर फोन पर फोन करती रही लेकिन कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिला
बेचैनी से इंतज़ार करती रही कि कोई ये कह दे कि सब यात्री सुरक्षित हैं | प्लेन का पता मिल गया है लेकिन कहीं से कोई सूचना नहीं थी
तीन कमरों का फ्लैट है | घर में भीड़ बढ़ती जा रही है लेकिन सभी के मुँह पर जैसे पट्टी बंधी हुई है | मैं अपने कमरे में उल्टी होकर पड़ी हुई हूँ रोना भरसक रोक रही हूँ
लेकिन आँसू हैं कि सैलाब बनकर उमड़ पड़े हैं | सिसकियों पर काबू करने की कोशिश कर रही हूँ
मेरे दोनों बच्चे मेरे इधर-उधर पीट से सटे हुए हैं
ड्राइंग रूम में टी. वी. चल रहा है | सभी की आँखें और कान न्यूज़ पर लगे हैं | मन में आशा और सपने लिए सभी प्रार्थना कर रहे हैं कि प्लेन की कोई ना कोई अच्छी खबर अवश्य मिलेगी
टी. वी. की आवाज़ यहाँ तक रही है | प्लेन के पिछले हिस्से में आग लगी थी | प्लेन समुद्र में डूब गया और उसमें सवार पायलेट सहित किसी भी यात्री के बचने की कोई गुंजाईश दिखाई नहीं देती 
लेकिन तलाश जारी है
मैं जोर-जोर से चीखना चाहती हूँ लेकिन अंदर ही अंदर चीख रही हूँ | मेरी आवाज़ मेरे अंदर घुट कर रह जाती है |
मैं गठरी बनकर पड़ी हूँ
नेता लोग दुःख प्रकट कर रहे हैं
अब कोई आवाज़ नहीं रही | शायद टी. वी. बंद कर दिया गया है |
क्या करूँ, समझ नहीं पा रही ? किसी से भी बात करने का मन नहीं है | मैं अपने दोनों बच्चों को अपने से और सटा लेती हूँ |
मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा | कुछ भी समझ पाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है | मैं उन सूचनाओं पर विश्वास नहीं कर पा रही हूँ

मुझे लग रहा है अचानक से अनिल जाएगा और मुझसे कहेगा 
अरे!!!! ऐसे क्यूँ पड़ी हो
क्या हुआ है तुम्हें ? और आगे बढ़कर मुझे अपनी बाहों में भर लेगा |
क्या करूँ ? अनिल की डैड-बॉडी भी तो नहीं मिली
कहीं कोई ऐसे जाता है भला
मैं अब करूँ तो क्या करूँ
ये कैसी परीक्षा है
ये कैसी पीड़ा है

अभी तो हम खुलकर हँसे भी नहीं | ज़िंदगी खिलखिलाई भी नहीं कि दी एंड हो गयी
ऐसे कैसे दी एंड हो सकती है ? मैं सोचे जा रही हूँ | मुझे किसी की परवाह नहीं है | इस भीड़ की भी नहीं जो घर से बाहर तक लगी है
केवल परवाह है तो अनिल की
उसे क्या हुआ होगा
कितनी पीड़ा में होगा
वह अब है भी या नहीं .. 
ओह !!!!!!!! सोचते हुए भी सारी देह में भूकंप सा प्रतीत हो रहा है

शायद कोई मुझसे बात करना चाहता है
मुझे सुनाई दे रहा है मम्मी किसी से कह रही हैं

उसकी तबियत ठीक नहीं है और इस समय वह होश में भी नहीं है इसलिए आपसे बात नहीं कर पा रही है | उसे आराम की सख्त जरूरत है इसलिए हम सब यहाँ ड्राइंग रूम में बैठे हैं | आप भी यहीं बैठ जाईये |”

मैं और सिकुड़ जाती हूँ | मेरे साथ मेरे बच्चे भी सिकुड़ गए हैं
मैं अपनी श्वासों से कहती हूँ-
मत आओ तुम मेरे पास मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं | अगर आना ही है तो प्लीज़ मेरे अनिल को ले आओ | मुझे केवल अनिल चाहिए | उससे बहुत सारी बातें करनी हैं

मैं बहुत थकी हुई हूँ मुझे उसकी बाँह के तकिये पर विश्राम करना है
अनजाने में मैं इधर-उधर हाथ से ढूँढने लगती हूँ
अचानक मेरी बेटी मेरा हाथ पकड़कर कहती है

मम्मा भूख लगी है | मम्मा उठ्ठो ना भूख लगी है | भैया भी भूखा है | उसे भी दूध पिलाओ ना |”

मेरी धमनियों में जैसे हरकत सी होती है रक्त का प्रवाह होने लगता है
मैं उठना चाहती हूँ लेकिन उठ नहीं पा रही
मैं कहना चाहती हूँ-

मेरी बच्ची मैं अभी तुम्हारे लिए कुछ खाने के लिए लाती हूँ और भैया को भी दूध की बोतल
लेकिन मेरी देह जैसे अकड़ गयी है | वह उठने से इंकार कर देती है | मैं बेबसी में अंदर ही अंदर जोर-जोर से रोती हूँ |
मेरी कमर से चिपटा मेरा बेटा भी रोने लगता है | उसका रोना बढ़ता जा रहा है | धीमे-धीमे मैं अवचेतना से चेतना की तरफ लौट रही हूँ
अब बेटे ने और भी जोर से रोना शुरू कर दिया है
तभी मेरी मम्मी मुझे सहारा देकर उठाती हैं | मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरती हैं और दूध की बोतल मेरे हाथ में देकर मेरी गोदी में रोते हुए मेरे बेटे को लिटा देती हैं

मैं फटी-फटी आँखों से माँ को देखती हूँ फिर बेटे को देखती हूँ और उसके मुँह से बोतल लगा देती हूँ
मेरी बेटी मुझे अजनबी सी आँखों से देख रही है
वह भूखी है और मैं अभी तक उसके खाने के लिए कुछ नहीं लाई हूँ | उसके माँगने से पहले उसकी पसंद की चीजें उसे मिल जाती थी लेकिन आज जैसे सब कुछ बदल गया है
उसकी प्रश्न बनी आँखें मुझे देख रही हैं | तभी मम्मी बिस्किट और दूध लेकर आती हैं और वह बिना मन के उन्हें खाने लगती है
उसे ये बिस्किट पसंद नहीं हैं लेकिन खा रही है 

जाने क्यूँ ? जाने कैसे
ये क्यूँ और कैसे हमारे जीवन में अचानक कहाँ से गए
दूध पीते-पीते बेटा सो गया | मम्मी ने उसे उठाकर मेरे ही पास सुला दिया
मैं जड़वत बैठी हुई हूँ
माँ बेबस आँखों से मुझे देख रही हैं | फिर वह धीरे से उठकर मुझे फिर से लिटा देती हैं
मैं लेट जाती हूँ | मुझे होश नहीं है
बिटिया फिर मेरे पास आकर लेट गयी है | वह समझ नहीं पा रही कि मम्मा को क्या हुआ है
वह धीमे से मुझसे पूछती है 

मम्मा आपको क्या हुआ है
आपको बुखार है ?
मैं सर दबा दूं |
पापा को बुलवा लो ना वो डॉक्टर के यहाँ ले जायेंगे | आप अच्छी हो जाओगी |”

मेरी आँखों से बेसाख्ता आँसू बहने लगते हैं | उस नन्ही सी जान को कैसे बताऊँ कि पापा हम सबकी आवाज़ भी नहीं सुन सकते | अब वह कभी आयेंगे, यह भी नहीं पता
फिर कभी हमें डॉक्टर के यहाँ लेकर भी जायेंगे या नहीं, क्या कहूं | वह फिर बोलती है |

मम्मा हमारे यहाँ पर क्या हो रहा है
इत्ते सारे अंकल आंटी क्यों आये हैं ?”

मैं चुप हूँ | सुनकर भी अनसुना कर रही हूँ | चाहकर भी जवाब नहीं दे पाती
मेरे दोनों होंठ एक दूसरे से चिपक गए हैं और शब्द अंदर कोहराम मचाये हुए हैं
अब शायद सब लोग चले गए हैं
मैं आँख बंद करके लेट जाती हूँ
मुझे अहसास होता है कि मम्मी मेरे बालों में उंगलियाँ फिरा रही हैं वैसे ही जैसे मेरे विवाह से पहले फिराती थीं | मेरा मन कर रहा है कि मैं एक छोटी सी बच्ची बनकर उनकी गोदी में सिमट जाऊँ और खूब जोर से चिल्लाऊं
एक जिद्दी लडकी बन जाऊँ पहले की तरह और कहूँ कि मुझे बस अनिल चाहिए
कहीं से भी लाकर दो माँ बस ला दो 

लेकिन नहीं कह पाती |
वे अपने पास मुझे सहारा देकर बिठा देती हैं
पापा भी आकर पास बैठ जाते हैं और असहाय बेबस से अपनी उंगलियाँ चटका रहे हैं
मैं समझ जाती हूँ कि वह कुछ कहना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पा रहे

मम्मी मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से कुछ कहती हैं
बेटा! तुम हमारे साथ चल रही हो | हम सब परसों सुबह ही घर के लिए निकल जायेंगे हमने हवाई जहाज में सीट्स बुक करवा दी हैं
यहाँ रहने का अब कोई कारण नहीं है |”

मैं अर्ध विक्षिप्त सी पड़ी हूँ | उनके शब्द सुनकर जैसे होश में आती हूँ
ऐसा कैसे हो सकता है
और फिर अनिल ना होते हुए भी यहाँ है
घर के हर कौने में एक वही तो है फिर ...
मेरा घर , अनिल, मेरे बच्चे, मेरा जॉब, अनिल के माता-पिता ओह!! 
मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ ?
मैं मम्मी के साथ कैसे जा सकती हूँ

अनिल नहीं हैं तो क्या अनिल के माता पिता मेरे कुछ नहीं लगते | वे इस समय किस पीड़ा से गुजर रहे होंगे मैं अच्छी तरह समझ सकती हूँ
मुझे हर हालत में इस पीड़ा में उनके साथ होना होगा चाहे कैसे भी | अब वे मेरी ज़िम्मेदारी हैं |

मैं सोच रही हूँ
सोचती जा रही हूँ |
सोचते-सोचते बुदबुदाने लगती हूँ-

मुझे अनिल के घर जाना है मम्मी | वही मेरा घर है |

मम्मी चौंककर कहती हैं मगर वे तो तुम्हें जानते तक नहीं तुम कैसे जाओगी ?  
हाँ... वही सोच रही हूँ जाना तो निश्चित है |” 

मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा फिर भी मैं अपने दिमाग पर जोर देती हूँ और प्लानिंग करने लगती हूँ |
क्या करूँ
कैसे जाऊं
जाना तो निश्चित है
अनिल की छोटी बहन नीशू के पास हमारी तस्वीरें हैं मेल से भेजी थीं अनिल ने | वह सब जानती है | वह हमारे विवाह के सच से परिचित है | उससे अनिल बराबर बात करता रहता था
अनिल ही क्या हम सबने की है और हमारी अभी हाल ही की तस्वीर भी उसके पास है मलेशिया जाने से पहले अनिल ने मेल की थी
मेरा मन कहता है सब ठीक हो जाएगा
नीशू से बात करनी होगी |
कल सुबह नीशू को फोन करूँगी |
रात अजनबी की तरह घर में दाखिल हुई और अजनबी की तरह ही जागती रही
इतनी काली अंधियारी रात उसके जीवन में कभी नहीं आयी
उसकी रातें तो प्रेम की खुशबु से महकती हुई हुआ करती थीं | जूही चम्पा उससे बात करती थी | गंधाये सपने उसका दिन भी गंधा देते थे
फिर अचानक ये अमावस कहाँ से गहरा गयी वह समझ नहीं पा रही थी
सारी रात मॉम उसके ऊपर अपनी बांह रखे लेटी रहीं और वह अपनी बेटी पर |
नींद तो किसी की भी आँख में थी ही नहीं लेकिन शब्द भी समय ने चुरा लिए
सारे घर में निस्तब्धता छाई हुई थी
जबकि माम्म्म्ममा से करने के लिए उसके पास कितनी बातें होती थीं | बातूनी नाम रख दिया था पापा ने मगर आज एक एक शब्द दुबककर बैठ गया है |
किसी को समझ नहीं रहा था कि क्या बात की जाए |
कैसे इस बिगड़ी को बनाया जाए
सुबह के पांच बज चुके थे |
मॉम किचिन में चाय बनाने चली गयीं |
तभी डोर बैल की आवाज़ ने सबको चौंका दिया | पांच बजे हैं, इतनी सुबह सवेरे कौन हो सकता है
कहीं अनिल तो नहीं ...
यह सोचते ही लाश बन आयी देह में जाने कहाँ से शक्ति गयी | मैने दौडकर दरवाज़ा खोला
दरवाज़ा खोलते ही मेरा मुँह खुला रह गया और आँखें झपकना भूल गयीं
अनिल के माता पिता और नीशू को देखकर मैं हतप्रभ हो गयी |
तभी अनिल की मम्मी ने आगे बढ़कर मुझे अपनी बाहों में भर लिया और फफक-फफककर रोने लगीं
मैं भी बच्चे की तरह उनकी बाहों में समा गयी |
जाने कितनी देर तक हम दोनों यूँ ही एक दूसरे से लिपटी रहीं | बिना बोले अपनी व्यथा बांटती रहीं जाने कब तक |
दोनों के आंसुओं ने आपस में बात करके सारे गिले-शिकवे मिटा दिए

यह माँ और बेटी का मिलन था 
जिसे सुबह ने देखा और सज़दे में खड़ी हो गयी |
जो अनिल के जीवित रहते हो पाया वह इस दुर्घटना के उपरान्त हो गया
अब सब साथ रह रहे हैं |

बेटे को तुम्हारी तरह ही बनना है | वह तुम्हारी तरह हंसता और बोलता है | तुम्हारी छवि मैं उसमें देख रही हूँ लेकिन मैं अभी भी वहीं तुम्हारे पास हूँ |

ऐसा क्यूँ होता है कि ना चाहते हुए भी हम वही सब याद करते हैं जहां केवल दर्द है, पीड़ा है  आँसू हैं और बेचैनी है | मैं भी पहुँचती हूँ बार-बार वहीं जो मुझे जकड़ लेता है अपनी कैद में | कान जैसे वही प्रतिध्वनियाँ सुनने के लिए बने हैं | वही सब सुनना चाहते हैं और अभी भी वही सुन रहे हैं |

सच तो ये है कि अभी भी काँपती है मेरी देह | मैं क्षणभर के लिए भी भूल नहीं पाती वो घटना
अब दिन लम्बे उबाऊ और उदास हो गए हैं | समय ठहर गया है | अपना राग भूल कर रात चुपचाप घुटने सिकोड़कर पड़ी रहती है | दिन भी गुमसुम सा गुनगुनाना भूल गया है | मौसम भी अपनी चाल नहीं चलता

काश !!!!! 
हनुमनथप्पा की तरह कोई चमत्कार हो जाए जो चौदह दिन बर्फ के नीचे दबकर भी जीवित निकल आया
काश !!!!! 
वो अपने दोनों हाथ जोडकर आँख बंदकर लेती है जैसे कह रही हो 
ऐसे नहीं जाना अनिल 
तुम्हें लौटकर आना है 
मेरे लिए 
देखो, कब से मैं सोई नहीं हूँ 
मुझे सोना है तुम्हारी बाँह पर 
जाओ प्लीज 
जाओ

अनु प्रार्थना कर रही है कि अनिल जाए तो लौट आयेगी फिर से वही खिलखिलाहट सारी सृष्टि के साथ उसकी देह में, मन में, शिराओं में, और प्राणों में जहाँ अब केवल अनकही चुप्पी है, अबोली तन्हाई है और वो है

वो है भी या नहीं, जाने कहाँ खोयी हुई, जाने क्यूँ उन अनजान लम्हों की प्रतीक्षा में जिन्हें कभी आना भी है या नही |
लेकिन इंतज़ार जीवन का सबसे ख़ूबसूरत नग्मा है 
जहाँ बेचैनी है, तड़प है
पीड़ा है, उत्सुकता है
मिलने की चाह है, बिछोह है

रेशमा की आवाज़ गूँज रही है 
मिलने वाले ने लिख डाले मिलन के साथ बिछोहे 
लम्बी जुदाई .......’
.............

(विदआउट मैन कहानी संग्रह से)

गीता पंडित 
gieetika1@gmail.com

13 जून 2020