Monday, June 27, 2011

शाहिद अख्तर की चार कवितायेँ ..जवां होती हसीं लड़कियां.. .

संक्षिप्त परिचय

नाम: मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर
जन्‍मतिथि: 21 मार्च 1962
जन्‍म स्‍थान: गौतम बुद्ध की नगरी, गया
शिक्षा: बीआईटी, सिंदरी, धनबाद से केमिकल इं‍जीनियरिंग में बी. ई.
लेकिन मेरी असली शिक्षा समाज के बीच हुई।

हर शख्‍स की तरह मेरे भी गम-ए-जानां हैं और साथ ही गम-ए-दौरां भी अपनी शिद्दत के साथ है। अपने इसी गम-ए-दौरां और गम-ए-जानां को अपनी नज्‍मों और कविताओं में अभिव्‍यक्‍त करने की कोशिश करता हूं। बेशक मैं यह जानता हूं कि:

बस कि दुश्‍वार है हर बात का आसां होना
आदमी को भी मयस्‍सर नहीं इंसां होना
(गालिब)

प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) की हिंदी सेवा 'भाषा' में वरिष्‍ठ पत्रकार के रूप में कार्यरत।
प्रकाशन:
1. समकालीन जनमत, पटना में विभिन्‍न समसामयिक मुद्दों पर लेखन
2. अंग्रेजी में महिलाओं की स्थिति, खास कर मु‍स्लिम महिलाओं की स्थिति पर कई लेख प्रकाशित
3. उर्दू के कई अखबारों में लेख प्रकाशित
4. नेशनल बुक ट्रस्‍ट के लिए भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के तीसरे अध्‍यक्ष (1887), बदरूद्दीन तैयबजी के लेखों के संकलन और उनकी जीवनरेखा पर कार्यरत

अनुवाद:
1. गार्डन टी पार्टी और अन्‍य कहानियां
कैथरीन मैन्‍सफील्‍ड
राजकमल प्रकाशन

2. प्राचीन और मध्‍यकालीन समाजिक संरचना और संस्‍कृतियां
अमर फारूकी
ग्रंथशिल्‍पी, दिल्‍ली

संप्रति: मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर
फ्लैट नंबर - 4060
वसुंधरा सेक्‍टर 4बी
गाजियाबाद - 201012
उत्‍तर प्रदेश
फोन नंबर: 0120- 4118828
मोबाइल: 9971055984
ईमेल: shazul@gmail.com






जवां होती हसीं लड़कियां -१


जवां होती हसीं लड़कियां
कुछ शोख सी होती हैं
हंसती हैं, खिलखिलाती हैं
दिल के चरखे पर बुनती हैं
हसीं सुलगते हुए हजार ख्‍वाब !
तब आरिज़ गुलगूं होता है
हुस्‍न के तलबगार होते हैं
आंखों से मस्‍ती छलकती है
अलसाई सी खुद में खोई रहती हैं
गुनगुनाती हैं हर वक्‍त
जवां होती हसीं लड़कियां...
वक्‍त गुजरता है
चोर निगाहें अब भी टटोलती हैं
जवानी की दहलीज लांघते
उसके जिस्‍म-ओ-तन
अब ख्‍वाब तार-तार होते हैं
और आंखें काटती हैं
बस इंतजार की घडि़यां।
दिल की बस्‍ती वीरान होती है
और आंखों में तैरता है
टूटे सपनों का सैलाब
रुखसार पर ढलकता है
सदियों का इंतजार
जवानी खोती हसीं लड़कियां...

जवानी खोती हसीं लड़कियां
काटती रह जाती हैं
दिल के चरखे पर
हसीं सपनों का फरेब  
और न जाने कब लांघ जाती हैं
जवानी की दहलीज

जवां होती हसीं लड़कियों के लिए
जमाना क्‍यों इतना आसान नहीं होता?
उनके हसीं सपनों के लिए
हसीं सब्‍ज पत्‍ते क्‍यों दरकार होते हैं ?
........






जवां होती हसीं लड़कियां -2

जवां होती हसीं लड़कियां
सिर्फ हसीन होती हैं
सिर्फ हुस्‍न होती हैं
सिर्फ जिस्‍म होती हैं।
कौन झांकता हैं उनकी आंखों में
कि वहां सैलाब क्‍यों है? कौन टटोलता है उनके दिल को
कि वहां क्‍या बरपा है?
जवां होती हसीं लड़कियां
हसीं ति‍‍तलियों के मानिंद हैं।
हर कोई हविस के हाथों में
उन्‍हें कैद करने को दरपा है।
जवां होती हसीं लड़कियां
कब तलक रहें महुए इंतजार? कब तलक बचाएं जिस्‍मो-जान?
कब तलक सुनाएं दास्‍तान-ए-दिल फिगार??
.......



जवां होती हसीं लड़कियां -3


जागती जागती सो जाती हैं ख्‍वाबों में खो जाती हैं
जवां होती हसीं लड़कियां
ख्‍वाब बुनते-बुनते खुद ही
नींद और ख्‍वाब खो देती हैं
जवां होती हसीं लड़कियां
आंखों में किसी का अक्‍स लिए
दिल में मीठा कसक लिए
होश गंवा देती हैं
जवां होती हसीं लड़कियां
थोड़ी पागल सी, थोड़ी चंचल सी
किसी पहाड़ी नदी के मानिंद
किसी दरिया में समा जाती हैं
जवां होती हसीं लड़कियां
......






जवां होती हसीं लड़कियां -4


जवां होती हसीं लड़कियां परी होती हैं
परियां जन्‍नत से भेजी जाती हैं
कुछ परियां इस धरती तक पहुंच नहीं पाती
क्‍योंकि कुछ बंदों को लगता है
कि ये उनके घर को जहन्‍नुम बना देंगी
कि जवां हो कर ये परियां
घरों पर बोझ बन जाती हैं
जवां होती हसीं लड़कियां ...

- शाहिद अख्‍तर

प्रेषिका
गाता पंडित

Tuesday, June 21, 2011

मन तुम हरी दूब रहना [गीता पंडित के काव्य संग्रह पर चर्चा] – राजीव रंजन प्रसाद

 स्त्री का लेखन भी स्त्री विमर्श है


“मन तुम हरी दूब रहना” किसी काव्य संग्रह का ही शीर्षक हो सकता है। कवियित्री गीता पंडित के भावुकता भरे शब्दों में किसी भी मन-दूब को हरी भरी रखने की क्षमता है। कविताओं में ताजगी है और नयापन भी। कौस्तुभ प्रकाशन हापुड से प्रकाशित काव्य संग्रह का मुखपृष्ठ जितना कलात्मक है इसके फ्लैप पर प्रस्तुत कविता ‘स्त्री’ जैसे इस रचना संग्रह की भूमिका प्रस्तुत करती है –

सिक्त नयन हैं/ फिर भी मन में
मृदुता रख कर/ मुस्काती
अपने स्वपनों की/ बना अल्पना
नभ को रंग कर/ सुख पाती।

कवियित्री नें अपना संग्रह पिता तथा कवि स्व. श्री मदन ‘शलभ’ को समर्पित किया है। कवियित्री नें अपनी बात में कहा है “...दो विपरीत ध्रुवों क्के बीच पीडा है, छटपटाहट है, जिज्ञासा है, जकडन है, खिन्नता है और खोज है। इसी खोज नें मुझे रथारूढ कर दिया शब्द रथ पर।“ कवियित्री आगे कहती हैं “स्त्री संबंध का पोषण भी करती रहे और जीती भी रहे। सामंजस्य बनाने में उपलब्धि हुई अश्रु की। लेकिन अश्रु अशक्तता नहीं अवसाद नहीं और हताशा भी नहीं। वरन सुदूर छूर के पार जा कर कुछ सार्थक कर निकलने का प्रयास है, वह भी मनके अंतर्पटल को उपजाऊ रख कर, हरी दूब की भाँति निर्मल रख कर। यह प्रयास ही मेरा परिचय है।“ एक “आभार” पर निगाह ठहरती है। कवियित्री नें अंतर्जाल को एक मंच करार देते हुए “ओरकुट” का आभार व्यक्त किया है। हिन्दी साहित्य जगत अब अंतर्जाल को यह कह कर तो हर्गिज खारिज नहीं कर सकता कि यह महज संवाद के आदान प्रदान का माध्यम है।

काव्य संग्रह की भूमिका डॉ. अशोक मैत्रेय नें लिखी है। काव्य संग्रह को पढने के पश्चात मैं डॉ. मैत्रेय से सहमत हूँ कि “समकालीन कविता में जहाँ विचारों सरोकारों की प्रमुखता बढ गयी है और भावनाओं को निजी मान लिया गया है, वहाँ एक स्वर गीता पंडित का भी है जहाँ विचारों से अधिक भावना की प्रधानता है।“ मैं जोडना चाहूँगा कि आज झंडो और नारों में कविता कहीं खो सी गयी है। जब तक मन के हरी दूब होने की कल्पना कविता में नहीं होगी वह नारे जैसी तीखी या किसी नक्कारखाने की तूती जैसी हो जायेगी। अधिकांश वे कविताए एसी ही है जिन पर समकालीन होने का पोस्टर चिपका हुआ है कि उन्हें पढने के लिये हिम्मत जुटानी पडती है। कविता वह जो बहे, बहा ले जाये। कविता वह जिसका कोई काल नहीं कोई आदि नहीं कोई अंत नहीं। डॉ. मैत्रेय गीता पंडित की कविताओं के लिये आगे लिखते हैं “”...कविताओं में प्रेम की चेतना वैयक्तिक धरातल से उठ कर समिष्टि में विस्तारित होते होते उस अदृश्य में एकाकार हो जाती है जिसे हम ‘ईश्वर’ कहते हैं..”। मैत्रेय आगे लिखते हैं कि “गीता पंडित की कवितायें आशा-निराशा, लालसाओं और स्मृतियों के बीच हिचकोले लेती एक भावुक और संवेदनशील लेकिन सतर्क कवियित्री की कवितायें हैं”।

कवियित्री नें अपनी कविताओं में स्थाईयों को अत्यधिक समर्पण दिया है। कई स्थाईयाँ अपने आप में इतने गहरे भाव लिये हुए हैं कि पूरी कविता को अपने प्रभाव क्षेत्र में जकड रखती हैं –

कौन से हैं मोड ये
मुझको नहीं पहचानते।
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दीप मन के साथ जलते,
फिर भी फैले पथ अंधेरे
क्यों नहीं हैं वो पिघलते॥
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मैं मिट गया तो मिट जायेगी
तेरे मन की प्रेम-निशानी,
मैं हूँ तेरी आँख का पानी।
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बाहर तो मधुमास घिरा है,
अंदर पतझर पावन सा
मेरी अँखिया ही पगली हैं,
दोष कहाँ है सावन का।
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उन्मुक्त पलों का मर्म देख कर सुख पाते,
बहुत सहज है जीवन जो हम जी पाते।
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तुम ना महके, ना महकी, मन की कली
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बिन प्रियतम के चाँदनी मन रो रहा है,
उजली रातें फिर भी मावस बो रहा है।
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संदली मन ओढ कर,
जाने क्या सह कर गये पल,
श्वास के पल्लू से क्यूँकर
आज बंध कर रह गये पल।

गीता जी नें अपने काव्य संग्रह में निराले स्नेह संबंध की सृष्टि की है। “मीते” शब्द के सौन्दर्यबोध की ही सराहना नहीं करनी होगी अपितु पार्थिव प्रेम से उपर उनका यह बिम्ब नवीन आलम्बन देता है।

हर एकाकी पल में मीते
गीत तुम्हारा मन पर छाया
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मेरे मीते तुम्हें मनाने
मेरे गीत चले आये।
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फिर तुम्हारी याद आयी
मेरे मीते! तुम कहाँ।
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मन गगन में बरस कर
आये वही फिर प्रीत मीते।
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तुम चलोजो साथ मीते! सुर नये मिल जायेंगे।
मन के आँगन की दोपहरी में भी पंछी गायेंगे।
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तुम ही कजरी चैती मीते!
तुम में सावन गाते हैं।

गीता जी की कविता में प्रेम अपने निहितार्थ से उपर उठ कर आस्था और उपासना के चरम को स्पर्श करने लगता है। कविता में प्रेम एक अलौकिक भावना है जो कभी वेदना है कभी आशा तो कभी प्रेरणा -

प्रेम ही जब मूक बोलो
कौन किसको गाएगा
एक है जो हममेँ तुममेँ
एक कब हो पाएगा।

प्रेम बिन कैसा जगत ये
काठ बन रह जाएगा,
मौन भेजेगा निमंत्रण,
मौन ही दोहराएगा।
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हक्की बक्की खडी बजरिया
जब से तुम परदेश गये,
लोहे के से चने चबाते
पल-पल के संदेश भये,
तुम बिन ओ मनमीते मेरे!
पीर मेरे मन में झूले।
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प्रीत घन अमृत कलश के
बन के बरसें आज तो,
मन के मरुथल में सरस
सरिता बहे जाने कहाँ।
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प्रीत के मनके संभालो
तुम ही माला श्वास के

गीता जी की कविताओं में केवल अनुरक्ति की अभिव्यक्ति भर नहीं है अपितु भाव और प्रस्तुति में नूतनता और वैविध्य दोनों ही दृष्टिगोचर होता है। गीति, काव्यात्मक शिल्प, दार्शनिक चिंतन, बिम्ब आदि की विवेचना करते हुए यह समझना कठिन हो जाता है कि बात कवियित्री के प्रथम काव्य संग्रह पर हो रही है। बिम्ब स्वाभाविक है और भाव को सुग्राह्य ही बनाते हैं। कवियित्री नें कहीं भी केवल विद्वत्ता प्रदर्शन के लिये शब्दों की जटिलता को नहीं ओढा न ही एसे बिम्ब प्रयोग में लाये हैं जो पाठक का मष्तिष्क मंथन करें।

हिम पर बैठे हुए शब्द थे।
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मीठे झरने की कहानी
खारे जल में है पली।
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आओ मन से मुस्कुरायें
पल के माथे पर लिखें कोई कविता
आओ हम हरेक पल को जीते जायें
क्यूँ ना जाने, आज इस पल में कहें
मन सुमन ना खिल सके तो रूठे जायें।
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नींद बेघर सी ना जाने है कहाँ
सपनों के पाखी बहकते हैं यहाँ
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आज इस पल में भरें मन की मेरी ये बस्तियाँ,
क्या पता कल हों ना हों फिर साथ मेरे अस्थियाँ
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बाँधकर घुंघरू प्रणय के,
पंजनी बन बोलता मन।
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जग सितार पर मीठी मीठी
धुन बन कर सो जाउँगी
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जिस पल तुमने याद किया
वो पल मन का श्रृंगार बना
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मन मेरा तो एक सरिता है
तुम से ही भरकर जल आये।

कवियित्री अपनी पीडा को बोल देना चाहती तो हैं किंतु वे ‘प्रीत बिन ना श्वास  आना’ की मनोवृत्ति में भी हैं। कभी उन्हें अम्बर से उत्तर चाहिये तो कभी मन ही से। वेदना का अर्थ ठहर जाना तो हर्गिज नहीं है। बहुत समय बाद हिन्दी कविता में प्रेम को एसी सादगी भरी गीति मिली है और इन कविताओं की भाव-सुषमा में कई बार अनायास ही महादेवी की स्मृति हो आती है। असाधारण है यह प्रेम जो डूबती उतराती लहरों सा चंचल है, आन्दोलित है प्रश्न लिये हुए है उत्तर पाने के लिये व्यग्र है और अपने मीते को गाना चाहता है।

नयन ना बरसात लाना
इस तरह ना याद आना
प्रीत बिन ना श्वास आना,
इस तरह ना याद आना।
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संवेदना पल-पल ढले,
पीर से मिलकर गले,
प्रीत के दीपक जलाये,
बंद मन के कोष्ठ में
होती विकल वो कौन है।
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आस के तरुवर पे छाया मौन क्यूँ,
हर कली के मन को भाया कौन क्यूँ,
क्यूँ निरुत्तर पल का अम्बर हो गया,
शब्द मन के सोख अंतर सो गया
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धूम्र तन में हूँ लपेटे
अंशु-मन की रश्मियाँ,
पीर की घनघोर बदली
मुझमें भरती बिजलियाँ,
मन सलिल को हूँ संभाले
पल में मैं ठहरी रही।
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एक एक पल में एक एक युग सा
समय निगोडा आता है
नयनों की बस्ती में जाने
कैसा सागर लाता है
डूबती उतराती लहरों संग
मैं लहरें बन जाती हूँ
तुमको गाना था प्रियतम
आज ना गाने पाती हूँ।
-----
 
विगत हुए युग प्रीत
पथिक पथ में ही भटक रही है।

खोल दो सब बंद द्वारे
मीत अंतर में पधारे
दीप अर्चन आरती बन
मन स्वयं को आज वारे।

गीता जी के गीत सधे हुए एवं शब्द-शब्द नपे तुले हैं। पढते हुए कोई भी शब्द बाधा उत्पन्न नहीं करता। शब्द चयन भावानुकूल है एवं जहाँ भी शब्दों के साथ प्रयोग किये गये हैं जैसे - कूकेगी, मात, मीते, प्रीते, शूले आदि, वे अबूझ नहीं होते। कवियित्री नें ध्वन्यात्मक शब्दों को भी अपनी भाव संप्रेषणीयता का माध्यम बनाया है। छम-छम, खन-खन, कल-कल, ढुल ढुल जैसी ध्वनिया पाठक के आगे चित्र उकेरने में समर्थ हो जाती हैं। आवश्यकता पडने पर कवियित्री नें देशज शब्दों से भी गुरेज नहीं किया है -

गहन उदासी, बढते साये
नयनों में घन घिर घिर आये,
मन तरुवर पर बैठी बुलबुल
पीडा के बोलों में ढुल ढुल
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नभ में घन की मेखला भी
बुंदिया भर भर साथ लायी
झूले कजरी चैती गाने
सखि सहेली संग लायी
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है धरोहर कौन सी जो मन को लानी है अभी,
याद ना आयें मुझे अब पीर बोते हैं सभी,
पीर की बोली छिपी है, मन के हर एक गाँव में
ना जाने क्यों खो गये मग, प्रीत की हर ठाँव में।
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नयन बेकल पथ निहारें रैन की है माँग सूनी,
बिन तुम्हारे मीत मेरे पीर की है आग दूनी।

कवियित्री की प्रस्तुत रचनाओं में  स्त्री विमर्श पर केन्द्रित अथवा सामाजिक सरोकारों के लिये लेखन की कुछ झलकियाँ उनकी कुछ पंक्तियों में  -

मैं हूँ मात यशोदा जिसको
कान्हा का यहाँ प्यार मिला
हूँ मैं वो गीता भी जिसमें
गीता का हर एक सार खिला
क्या मेरा है सभी तुम्हारा
तुम्हें लौटाने आयी हूँ
मैं हूँ बेटी इसी देश की,
तुमसे मिलने आयी हूँ
-----
 
मन में करुणा बोलती है
कर ना पाती मन द्रवित,
धर्म, जाति के झमेलों
में फंसा जन है भ्रमित
-----
 
चुक जाये ऋण धरा का
रहें जीवित ये प्राण
उर में भक्ति, पग में शक्ति
बस ये ही हो सामान

कविता से दूर होते पाठक को गीता जी की ये कवितायें मोर पंख से छुवेंगी। कविता आत्म से आत्मा तक के विषयों में पिरोयी हुई अवश्य हैं किंतु उनमें पाठक के अंतस में घर कर जाने की क्षमता है। केवल भावुकता कह कर आप इन कविताओं से बच नहीं सकते अपितु आपको संवेदना की इस नदी से गुजर कर कुछ एसा पढने की ताजगी का अहसास होगा जैसा इन दिनों नहीं लिखा जा रहा है। आज की कविता में उसका ढांचा भर रह गया है लेकिन उसके भीतर का मन जैसे सूख गया हो। मन को हरी दूब रखने का गीता जी का प्रयास सफल हुआ है।
 
 
साभार 
( साहित्य शिल्पी ) राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, June 14, 2011

कवियित्री प्रज्ञा पाण्डेय की पांच कवितायेँ ... "मैं हूँ जंगली" 'प्रेम में मैं असहज हूँ" " तुम्हारा ख़त" "तुम चाहते हो" "घर होती हैं औरतें सराय होती हैं"




प्रज्ञा जी की औरत को जानना  एक तमाम ज़िंदगी को
जानने जैसा है |  वह औरत  जंगली भी है , प्रेम में असहज
भी है , चश्मे का मीठा पानी है ,
और न मिलने पर तल्ख़ भी है  |
यही नही ,  वो घर भी है ,  और सराय भी |
बाबा के पीले जनेऊ से भी डरती है , और
जाती बिरादरी के चूल्हे – चौके से भी |
लेकिन ,  रीढ़ से मज़बूत है  यह औरत |
आप भी देखिये प्रज्ञा जी  की लेखनी स्त्री
पर क्या कहती है .....
 


1)    मैं हूँ जंगली


हाँ, मैं हूँ जंगली,  मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली
नहीं समझती
तुम्हारी भाषा
उतनी आभिजात्य नहीं कि
ओढ़ कर लबादा तुम्हारी हंसी का
बांटती रहूँ अपने संस्कार तुममें

मुझमें नहीं इतनी ताक़त
कि पी जाऊँ अपनी अस्मिता
और
परोसूँ अपना वजूद

हाँ मैं हूँ जंगली
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएँ पहन तुम होते हो वहशी |

मगर मुझे क्रोध आता है तुम्हारी हंसी पर
मुझे क्रोध आता है
जब ग्लैमर की चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हो मुझको परोसना |

हाँ मैं हूँ जंगली , नहीं जानती सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हो और मैं हूँ शोषिता |
 .......



2)प्रेम में मैं असहज हूँ--


प्रेम में मैं असहज हूँ
अव्यवस्थित
बेवजह |

कभी चाहती हूँ रौंदकर
ख़ुद को
उसी की राह बन जाऊँ
कभी चाहती हूँ
रौंद देना सब कुछ |

कभी तन्हाई का जंगल थाम
बैठ जाती हूँ
कभी चलती हूँ हर कदम ही
शोर बन कर |

यूँ तो
कायनात में
वो
इक अकेला है
और सिर्फ मेरा सिर्फ
मेरा
सिर्फ मेरा है

है चश्मे का पानी कभी
वो
मीठा मीठा सा
तल्ख़ होता है
मगर
जब
घूँट भर नहीं मिलता |

भाती है उसकी
बच्चों सी
हंसी
कब चाहती हूँ मैं कि वो रोये मगर
सिसकियाँ उसकी
भली |

पराग मेरे अंग पर
यूँ तो मला है
प्रेम ने
और मैं भी उड़ी
ख़ूब
तितलियों के संग

फिर भी
निर्मम !
पंख उनके
मसलती हूँ देह पर

प्रेम में
मैं असहज हूँ
अव्यवस्थित
बेवजह |
........ 



3)   तुम्हारा ख़त


फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकड़े बन गए इबादत के

पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त
याद आई जाती बिरादरी
याद आया चूल्हा
छिपा छूत के र से |

याद आई बाबा की
पीली जनेऊ
खींचती रेखा कलेजे में |
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे घर से |

याद आई झोंपड़ी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता 
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी |

याद आया हमारा
भरा खेत खलिहान !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हो गई छांव नीम की

और
याद आई
गाँव की बहती नदी
जिसमें डुबाये  बैठते
हम
अपने अपने पाँव !
और बहता
एक रंग पानी का |
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकड़े बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकड़े हुए |
 ......


4)
तुम चाहते  हो –



तुम चाहते हो
अकेली मिलूँ मैं तुम्हें
पर अकेली नहीं मैं
मेरे पास है
मेरी  ज्वालाओं की आग
तमाम वर्जनाओं का पूरा अतीत |
जब से ये जंगल हैं
तब से ही मैं हूँ ,ढोती हूँ
नई सलीबें !
मैंने उफ़ नहीं की
मगर बनाती गई
आग के कुएं अपने वजूद में


तुमने जाना कि मौन हूँ तो हूँ मैं मधुर
मगर मैं तो मज़बूत करती रही अपनी रीढ़
कि करूँगी मुक़ाबला एक दिन
रतजगों ने दी
जो तपिश उसको ढाला
मैंने कवच में


उसी को पहन आऊँगी तुमसे मिलने
अकेली नहीं मैं !!
...... 



५ )   घर होती हैं औरतें , सराय होती हैं


घर होती है औरतें
सराय होती है |
अन्नपूर्णा होती है
पुआल होती है |

ओढ़ना  बिछौना सपना
मचान होती हैं |
दुआर  दहलीज़ तो होती है
सन्नाटा सिवान होती है |
खलिहान और अन्न  तो होती है
अकसर आसमान होती हैं |

कच्ची मिट्टी घर की भीत
थूनी थवार होती हैं |
बारिशी दिनों में ओरी से चूती हैं
पोखर होती है सेवार होती हैं |

अकसर बंसवार होती हैं |
औरतें बंदनवार होती हैं |
छूने पर छुई मुई तो होती है
तूफानों में
खेवैया  होती हैं
पतवार होती हैं |
 ......


संपादिका
गीता पंडित