Saturday, December 14, 2013

छ: कवितायें ...... हरे प्रकाश उपाध्याय

....
......



अँजुरी भर शब्द____


मेरे पास कुछ नहीं है
अँजुरी भर शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं
धन न अस्त्र-शस्त्र पर लड़ूँगा
यकीन रखना जीतूँगा भी

वे जब करेंगे वार
अपने अस्त्र-शस्त्र से / धन से
मैं अँजुरी भर शब्दों को फेंकूँगा उनकी ओर
उनकी बौखलाहट बढ़ेगी
और देखते ही देखते उजड़ जायेगी
धन और अस्त्र-शस्त्रों से सजी दुनिया
और मेरे शब्द लौट आयेंगे
उन्हें घायल करने के बाद

नहीं रहूँगा चुपचाप
उनके आतंक से डरे लोगों को बटोरूँगा
शब्दों से सिहरन पैदा करूँगा और ताकत

बटोरता रहूँगा शब्द
अच्छे अच्छे शब्द बटोरूँगा
तब ढेर सारे अच्छे शब्द
बन जायेंगे सृष्टि के मंत्र।
……







लड़की ____


एक लड़की
सुनती है, देखती है
कि गर्भ में मार दी जा रही
हैं लड़कियाँ
वह सोचती है
वह भी गर्भ में ही
मार दी गयी होतीं तो...

यह मर्दानी दुनिया
ये दबाव दुख...

वह सोचकर
हँसती है न रोती है
चादर तानकर चुप सो
लेती है...!
.......







औरतें ____


औरतें
धरती पर पाँव नहीं रोप पाती थीं
चार कदम चलना हो तो छह बार गिरती थीं
न जाने कैसी तो थीं औरतें
दुर्गा, काली के रूप में पूजी जाती थीं
मगर धरती पर सीता की नियति ही पाती थीं

माथे पर पति
और बच्चों की जिंदगी
आँखों में समुद्र
और छाती में अमृत ढोये चलती थीं
मगर खुद दिन में सौ-सौ बार मरती थीं

नाराज होना
मना था इनके लिए
होतीं तो गुस्सा
चूल्हे और बरतनों पर उतारती थीं

देख न ले कोई पराया मर्द
घूँघट से ढँककर रखती थीं चेहरा
वैसे कोई किस्सा वैशाली की
नगरवधू का भी है पर
आज चौखट से बाहर
रास्ते पर
उतरी हैं औरतें
मर्दो से आँखें मिला रहीं हैं

औरतें
घेर रही हैं विधानसभा
हवा में उड़ रही हैं
जमीन पर दौड़ रही हैं
उड़नखटोला उड़ा रही हैं
नारे लगा रही हैं
राज चला रही हैं
क्या से क्या हो रही हैं औरतें
आँख निकल रही है गुस्साये मर्दो की...
……







पिता ____


पिता जब बहुत बड़े हो गये
और बूढ़े
तो चीजें उन्हें छोटी दिखने लगीं
बहुत-बहुत छोटी

आखिरकार पिता को
लेना पड़ा चश्मा

चश्मे से चीजें
उन्हें बड़ी दिखाई देनी लगीं
पर चीजें
जितनी थीं और
जिस रूप में
ठीक वैसा
उतना देखना चाहते थे पिता

वे बुढ़ापे में
देखना चाहते थे
हमें अपने बेटे के रूप में
बच्चों को 'बच्चे' के रूप में
जबकि हम
उनके चश्मे से 'बाप' दिखने लगे थे
और बच्चे 'सयाने'
……







लुहार ____


लोहे का स्वाद भले न जानते हों
पर लोहे के बारे में
सबसे ज्यादा जानते हैं लुहार
मसलन लुहार ही जानते हैं
कि लोहे को कब
और कैसे लाल करना चाहिए
और उस पर कितनी चोट करनी चाहिए

वे जानते हैं
कि किस लोहे में कितना लोहा है
और कौन-सा लोहा
अच्छा रहेगा कुदाल के लिए
और कौन-सा बंदूक की नाल के लिए
वे जानते हैं कि कितना लगता है लोहा
लगाम के लिए

वे महज
लोहे के बारे में जानते ही नहीं
लोहे को गढ़ते-सँवारते
खुद लोहे में समा जाते हैं
और इंतजार करते हैं
कि कोई लोहा लोहे को काटकर
उन्हें बाहर निकालेगा
हालाँकि लोहा काटने का गुर वे ही जानते हैं
लोहे को
जब बेचता है लोहे का सौदागर
तो बिक जाते हैं लुहार
और इस भट्टी से उस भट्टी
भटकते रहते हैं!
....... 







हम पत्थर हो रहे हैं _____


कितने लाख लोग दुनिया के भीख माँग रहे हैं
कितने अपाहिज हो गये हैं मेरी तरह
कितने प्रेमियों के साथ दगा हो गया है
बस यही बचा है सुनने-बताने को

मेरी तरह कितने ही लोग
इन खबरों में हाय-हाय कर रहे हैं
हाय-हाय की दहला देने वाली चीखें
घुटी-घुटी हैं
न जाने कौन इनका गला घोंट रहा है

मैं सोचता हूँ
निकलूँ और दौड़ू सड़कों पर
अपने तमाम खतरों के बावजूद
चिल्लाऊँ शोर मचाऊँ
कि पड़े सोए लोगों की नींद में खलल
पृथ्वी की छाती में
कील ठोंका जा रहा है
और अजीब-सी बात है कि मेरे साथी सब सो रहे हैं
बस चिल्लाने का काम ही मेरे वश में है
जो मैं नहीं कर रहा हूँ
नहीं तो करने को बचा ही क्या है
भरोसाहीन इस दौर में

निराशा की यह घनी शाम
दुख की बूँदा-बाँदी
तुम्हारी यादें
गलीज जिंदगी की ऊब
और एक सख्तजान बुढ़िया की कैद
जो उल्लास के हल्के पत्तों के संगीत से भी
चौंक जाती है और चीखने लगती है
इन सबसे बिंधा
कितना असहाय हो रहा हूँ मैं
कहीं कोई भरोसा नहीं
पता नहीं किस भय से काँप रहा हूँ मैं

सारी चिट्ठियाँ अनुत्तरित चली जाती हैं
कहीं से कोई लौटकर नहीं आता
दोस्त मतलबी हो गए हैं
देखो मैं ही अपनी कुंठाओं में
कितना उलझ गया हूँ

संवेदना के सब दरवाजों को
उपेक्षा की घुन खाये जा रही हैं
बेकार के हाथ इतने नाराज हैं
कि पीठ की उदासी हाँक नहीं सकते

हम लगातार अपरिचित होते जा रहे हैं
हमारे पाँव उन गलियों का रास्ता भूल रहे हैं
जिनमें चलकर वे बढ़े हैं
देखो तुम ही इस गली से गई
तो कहाँ लौटी फिर!

घास के उन घोंसलों की उदासी तुम भूल गयी
जिन्हें हम अपने उदास दिनों में देखने जाते थे
और लौटते हुए तय करते थे
परिन्दों की गरमाहट लौटाएँगे
किसी-न-किसी दिन इन घोंसलों को
देखो हम किस कदर भूले सब कुछ
कि खुद को ही भूल गए

हमें प्यास लगी है
और हमें कुएँ की याद नहीं
हम एक पत्थर की ओर बढ़ रहे हैं
पूरी बेचैनी के साथ...।
……. 





साभार 
http://www.hindisamay.com/writer/writer_details_n.aspx?id=848&name=हरे+प्रकाश+उपाध्याय

प्रेषिता 
गीता पंडित 










Thursday, December 12, 2013

पाँच कवितायें ......योगेन्द्र कृष्णा

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......


लौटना है हमें अपनी जड़ों में _____ 


लौटना है हमें अपनी जड़ों में
जैसे लौटती है कोई चिड़िया
अपने घोंसले में
दिन भर की 
परवाज़ से

जैसे लौटता है अंततः
चूल्हे पर खौलता हुआ पानी
उत्तप्त उफनता हुआ सागर
अपनी नैसर्गिक प्रशांति में

जैसे लौटता है
ऊंचे पहाड़ों से झरता हुआ पानी
आकाश में उमड़ता घुमड़ता हुआ
स्याह पानीदार बादल
धरती की आगोश में

............................. 

चिड़ियों के घोंसले
आज भी सुरक्षित हैं
अपने आदिम स्वरूप में
क्योंकि वे आज भी
पेड़ जंगल नदी पहाड़
और तिनकों के ही गीत गाती हैं

नहीं बनातीं अब
घर की गोरैया भी
हमारे घरों में अपने घोंसले
क्योंकि हम नहीं लेते
उनकी कोई खबर
अपने घरों में हम
नहीं जीते उनकी फ़ितरत
नहीं गाते उनके गीत उनकी भाषा

और क्योंकि पता है उन्हें
हमारे घरों के भीतर
दीवारों के बिना भी
बसते हैं कई कई और भी घर
एक दूसरे से पूरी तरह बेखबर
............................. 

ऐसे में…
हमें तो डरना चाहिए
फसलों की जगह
खेतों में लहलहाती इमारतों से
आकाश और समुद्र को चीरते
जहाजों के भयावह शोर से
मंदिर मस्जिद गिरिजाघरों
में सदियों से जारी
निर्वीर्य मन्नतों दुआओं से जन्मे
मुर्दनी सन्नाटों से

सड़कों पर हमारे साथ
कदमताल करते खंभों
और बिजली के तारों से
जगमग रौशनी और
फलते फूलते दुनिया के बाज़ारों से

हां, मुझे डरना चाहिए
स्वयं अपने आप से
जैसे डरती है मुझसे
अचानक सामने पड़ जाने पर
मासूम-सी कोई चिड़िया । 
……






समांतर आभासी दुनियाएं _____
(बलत्कारी बाबाओं को समर्पित)

बलात्कारी जब बाबा होते हैं
वे तुमसे सीधे बलात्कार नहीं करते
वे तुम्हारी हत्या भी नहीं करते
वे छलते हैं तुम्हें अपनी साधना से
और साधते हैं तुम्हें अपनी छलना से

वे ले जाते हैं तुम्हें
तुम्हारी आंखों पर
सम्मोहन की रेशमी पट्टियां बांध
खुद तुमसे बहुत दूर
जंगल, पहाड़ और घाटियों में
जहां छुपा रखी हैं उन्होंने
ऐषणाओं और दुनियावी आकांक्षाओं
से ऊभ-चूभ अपनी निजी समांतर दुनियाएं
जहां रात्रि के गहन अंधकार में
अपनी खोल से बाहर निकल
वे तुम्हारे ही बनाए इस ऐश्वर्य में
डूबते-उतराते हैं
तुम्हारी मूर्खता और अपने पाखण्ड पर
हंसते-इतराते हैं

और यहीं पर
वे झपट लेते हैं तुमसे
तुम्हारा विवेक
तुम्हारी दृष्टि
तुम्हारा विज्ञान
पाखण्ड और छद्म से लड़ने के लिए
इतनी जतन से अर्जित
तुम्हारे सारे हथियार और
अधिकार का कर लेते हैं अपहरण

बनते-बिगड़ते तुम्हारे सपने की एक-एक ईंट पर
चढ़ा लेते हैं अपना रंग
वे छीन लेते हैं तुमसे
तुम्हारी फ़ितरत, तुम्हारी प्रकृति, तुम्हारा पर्यावरण
जिसमें तुम रहते हो

और मुआवजे में सौंप देते हैं तुम्हें
तुम्हारे लिए ही बनाई गई
छद्म, पाखण्ड और कशिश से सरशार
आभासी एक मुकम्मल दुनिया
जिसमें रहने की उत्कट चाहत में
तुम्हें हर पल मरना होता है
जहां उड़ान भरने की कोशिश में
पर कटी किसी चिड़िया की मानिंद
तुम्हें उसी ऐश्वर्य की आगोश में
हर बार गिरना होता है

वे सीधे स्वर्ग से सीख कर आए होते हैं
चुंबन और संभोग का अध्यात्म
और काम की अद्भुत कलाएं

तुम्हारे ही द्वारा समर्पित हथियारों से
वे निरंतर करते रहेंगे तुम पर जादुई प्रहार
क्योंकि तुम ही उन्हें
किसी भी जेल की ऊंची दीवारों से
छुड़ा लाओगे हर बार…

मुर्खताओं और चालाकी से भरी
इस दुनिया में वे फलते और फूलते रहेंगे
जबतक एक तरफ तुम उनसे
और दूसरी तरफ वे तुमसे
उपकृत-चमत्कृत होते रहेंगे
जबतक वे तुम्हारी और तुम उनकी
बुनते रहोगे समांतर दुनियाएं…

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चुप्पियां जब बोलती हैं______

मैंने चुप्पियों और शब्दों के कई कई रंग देखे हैं 

कई कई परतों में खुलती चुप्पियों 
और शब्दों के बीच गुमनाम और खुले जंग देखे हैं 
और देखी है मैंने 
चुप्पियों की जय और शब्दों की पराजय भी 
मैंने देखा है 
कोई बोलकर भी चुप रहा 
और कोई 
चुप रहकर भी बोल गया 
कोई बोलकर 
किसी के गुनाह पर परदा डाल गया 
और कोई 
चुप रह कर भी बड़े बड़ों की खोल गया 
..........






सूखे पत्तों की तरह बजते हैं शब्द _____

जबतक कि मैं 
एक सांस लेकर 
दूसरी छोड़ रहा होता हूं 
ठीक इसी अंतराल में 
हो चुके होते हैं कई-कई हादसे 
हमारे इस शहर में 

जबतक कि मैं 
सुबह की चाय के साथ 
ले रहा होता हूं 
राहत की एक लंबी सांस 
अपहृत हो चुका होता है 
पूरा का पूरा एक लोकतंत्र 
ठीक मेरे पड़ोस में... 
अपनी जड़ों से बेदखल हो चुकी होती है 
तिनके-तिनके सहेजी अनगढ़ एक दुनिया 

जबतक कि 
शाही बाग का वह अदना-सा माली 
तपती गर्मियों में छिड़कता है पानी 
एक फूल से दूसरे फूल तक… 

एक अंधे कुएं से 
दूसरे कुएं तक 
घिसट रही होती है 
उसकी अपनी दुनिया 
उसका प्यार उसकी ममता 
सिर पर गागर और 
गोद में बच्चा उठाए 
कई कई बेचैन रतजगों के बाद 
एक और सुबह की तलाश में… 

और जबतक कि मैं 
उनकी नन्हीं सी दुनिया में 
पानीदार सुबह की संभावनाओं 
के पक्ष में रचता हूं 
अपनी ही दुनिया के विरुद्ध 
अपनी कविता का अंतिम कोई बयान 
रिस-रिस कर बह जाता है शब्दों से पानी 

और सुबह तक 
सूखे पत्तों की तरह बजते हैं शब्द । 
……




प्रेम का अनगढ़ शिल्प _____

काटने से पहले
लकड़हारे ने पूछा
उसकी अंतिम इच्छा क्या है

वृद्ध पेड़ ने कहा
जीवन भर मैंने
किसी से कुछ मांगा है क्या
कि आज
बर्बर होते इस समय में
मरने के पहले
अपने लिए कुछ मांगूं

लेकिन
अगर संभव हो
तो मुझे गिरने से बचा लेना
आसपास बनी झोपिड़यों पर

श्मशान में
किसी की चिता सजा देना
पर मेरी लकड़ियों को
हवनकुंड की आग से बचा लेना

बचा लेना मुझे
आतंकवादियों के हाथ से
किसी अनर्गल कर्मकांड से

मेरी शाख पर बने
बया के उस घोंसले को
तो जरूर बचा लेना

युगल प्रेमियों ने
खींच दी हैं मेरे खुरदरे तन पर
कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं

बड़ी उम्मीद से
मेरी बाहों में लिपटी हैं
कुछ कोमल लताएं भी

हो सके तो बचा लेना
इस उम्मीद को
प्रेम की अनगढ़ इस भाषा
इस शिल्प को

मैंने अबतक
बचाए रखा है इन्हें
प्रचंड हवाओं
बारिश और तपिश से
नैसर्गिक मेरा नाता है इनसे
लेकिन डरता हूं तुमसे

आदमी हो
कर दोगे एक साथ
कई-कई हत्याएं
कई-कई हिंसाएं
कई-कई आतंक

और पता भी नहीं होगा तुम्हें

तुम तो
किसी के इशारे पर
काट रहे होगे
सिर्फ एक पेड़
……




संपादक
गीता पंडित