Tuesday, March 10, 2015

कहानी - निर्भया नहीं मिली.... विवेक मिश्र

      
“मैं चाहता था कि सब कुछ ऐसा ही रहा आए। वह जानती थी कि कुछ भी ऐसा नहीं रहेगा। वह गीले कैनवास पर अधसूखे रंगों को धीरे से छूती, …कहती, ‘कितने अच्छे हैं, …पर धुंधला जाएंगे।’ मैं आंखें बंद कर कहता, ‘मैं और बना दूंगा, इनसे भी अच्छे, और चटक, और गहरे।’ ”
लाल होते आसमान में दिन और रात दम साधे हुए खड़े थे और उनके बीच सांझ धीरे-धीरे वेदना जन रही थी। उसके खो जाने से बच्चों की सी रुलाई गले तक भरी आती थी…
वह अक्सर ऐसे खेल खेला करती थी। कभी छुप जाती। कभी चीजें छुपा देती। छुपाती  क्या बस उन्हें अपनी जगह से ज़रा-सा यहां-वहां कर देती और मुझे लगता वे खो गई हैं। मैं उन्हें ढूंढते-ढूंढते हैरान हो जाता। वह मुझे खूब खिजाती, फिर मेरे देखते ही देखते उस चीज को बड़ी सहजता से अपनी नई जगह से उठा कर मेरे सामने रख देती।
  बड़े दुलार से कहती, 'किस दुनिया में खोए रहते हो, सामने रखी चीज नहीं दिखती,  चीजें हमेशा उस जगह नहीं मिला करतीं जहां तुम उन्हें छोड़ देते हो, या जहां तुम उनके  होने की उम्मीद करते हो। कई बेजान दिखने वाली चीजें भी अपनी जगह बदल लेती हैं।'
मैं हाथ पकड़कर उसे अपने पास बिठा लेता, 'तुम अपनी जगह मत बदलना, कहां ढूंढूगा तुम्हें।’ वह मेरा सिर अपनी बाहों में लेकर सीने से चिपटा लेती। मैं उसकी छातियों के बीच ही बुदबुदाता, 'तुम्हारे बिना तो मैं ख़ुद को भी नहीं ढूंढ सकता।’ वह और जोर से भींच लेती। कुछ देर तक मेरी सांस रुकी रहती फिर जैसे उसे मेरी रुकी हुई  सांसों का ख्याल आता और वह अपनी पकड़ बस इत्ती-सी ढ़ीली करती कि उसमें से सिर्फ़ हवा घुस सके, रोशनी नहीं। मैं उस नर्म अंधेरे में नाक गड़ाकर सांस खींचता जो उसकी खुशबू से सराबोर होती, ऐसा करके मैं ख़ुद को आश्वस्त करता कि उसे कभी नहीं खोऊंगा पर वह जानती थी कि एक दिन वह अपनी जगह बदल लेगी और शायद इसीलिए मुझे धीरे-धीरे उस आपात स्थिति के लिए तैयार करती।
गर्मियों में उसके दुपट्टे से एक अलग ही गंध आती। वह शायद धूप में चलके आने के कारण माथे पर छलक आए पसीने की होती जिसे वह दुपट्टे के कोने से पोछती। यह खुशबू हवा में नशा घोल देती, उसके आस-पास एक रहस्य रचती। छुपना, खो जाना, वहां होकर भी न होना, होश खोकर निढाल पड़ जाना,…मर जाना, उसके लिए खेल था। पर भीतर ही भीतर शायद वह खो जाने से, कहीँ चले जाने से, या फिर मर जाने से डरती भी रही होगी। थोड़ी देर को अपने लिए किसी को हैरान होते देखना जैसे उसे अच्छा लगता। मानो वह जानना चाहती कि उसके दुनिया में न रहने पर क्या है जो नहीं रहेगा। उसके खो जाने पर कौन उसे ढूंढने निकलेगा।
मैं चाहता था कि सब कुछ ऐसा ही रहा आए। वह जानती थी कि कुछ भी ऐसा नहीं रहेगा। वह गीले कैनवास पर अधसूखे रंगों को धीरे से छूती, …कहती, ‘कितने अच्छे हैं, …पर धुंधला जाएंगे।’ मैं आंखें बंद कर कहता, ‘मैं और बना दूंगा, इनसे भी अच्छे, और चटक, और गहरे।’ हम और पास आ जाते पर एक अजीब सी दूरी हमारे बीच फिर भी बनी रहती। लगता दोनों अलग-अलग समय में खड़े एक ऐसे पल को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं जो किसी तीसरे समय में है। ऐसा करते हुए मुझे अपने गांव की नहर में तैरती हुई एक लड़की याद आती जो तेजी से तैरते हुए किनारे की घास का एक तिनका तोड़ती हुई ले जाती थी। मुझे लगता वह पल उसी तिनके जैसा है बहुत छोटा-मामूली पर उस तैरती हुई लड़की के लिए बेहद जरूरी। हम भी उस पल को टटोलते हुए किसी नहर में तेज़ी से तैरने लगते फिर उस पल को ठीक सामने पाकर हम एक दूसरे को कसकर पकड़ लेते। हमारे बीच की दूरी मिट जाती, इतनी कि हम चाहकर भी एक-दूसरे को देख नहीं पाते। हमारे चारों ओर बस उस पल की चमक ही होती।
मैं कहता, ‘तुम बहुत अच्छी हो’ वह न में सिर हिलाती। मैं कहता 'हम दोनों बिल्कुल एक जैसे हैं।' वह अपने को जैसे इस वाक्य से विलग करती हुई कहती ‘नहीं, तुम बहुत प्यारे हो।’ मैं वाक्य से उसके विलग होने को लक्ष्य नहीं करता। वह निरापद हो कहती, ‘ प्यारी चीजें खो जाया करती हैं, तुम भी खो जाओगे।’ पता नहीं मुझे अपने अच्छे होने या उसके ऐसा कहते हुए निरापद होने पर गुमान होता। मैं उसे खींचकर उसकी उदासी उतार देता। वह मुस्करा देती।
आज जैसे उसने खुद को छुपा लिया या अपने होने की जगह बदल ली। मैं उसे ढूंढता हुआ खीज रहा हूँ। मैं इतना खीज गया हूं कि उसे नहीं ढूंढ पा रहा हूं। वह यहां नहीं है जो मेरे लिए खुद को ढूंढकर मेरे सामने ला खड़ा करे। मैं कमरे में बिखरे ब्रश, रंग, कैनवास सब उलट-पुलट के देख रहा हूं। एक कोने में उसकी छतरी टिकी है। बारिश में नहीं धूप में लगाने के लिए। एक कोने में उसकी सैंडल पड़ी हैं। एक की एड़ी, दूसरे पर चढ़ी हुई। एक दिन वह रूठकर बिना इन्हें पहने ही चली गई थी। वह जानती थी मैं इस कमरे की कोई भी चीज नहीं बदलूंगा और उसके जाने के बाद भी यह छतरी, ये सैंडिल ऐसे ही रखे रहेंगे। हमेशा-हमेशा के लिए।
मैं मदद के लिए कुछ लोगों को फोन करता हूं। वे कहते हैं, ‘उन्होंने उसे कभी नहीं देखा।’ मैं अकेले ही उसे ढूंढने की हिम्मत करता हूं। मुझे आज अपने लिए उसे ढूंढना होगा। मैं जा रहा हूं पर मैंने तो कभी कुछ ढूंढा ही नहीं, बस रास्ते तय किए, समय बिताया, सांसें लीं…और? और उसे चाहा। वही सब कुछ रखती गई रास्ते पर…और उसी से पसंद-नापसंद बनती गई मेरी। आज उसे ढूंढना ख़ुद को ढूंढने जैसा है।
उसके जाने के बाद बनी खाली जगह में भी वही रही आती है। वह गंध जैसी है जो किसी के न होने पर भी होती है। जहां-जहां वह बैठी थी, मैंने जस का तस उतार लिया था उसे अपने कैनवास पर। आज फिर एक तस्वीर बनानी है, उसकी। पर वह कमरे में कहीं नहीं है।
मैं निकल पड़ता हूं, बाहर अंधेरा हो चला है। अभी लोगों ने बत्तियां नहीं जलाई हैं। मैं उसका घर नहीं जानता पर कई गलियों में भटकता हूं। कोई चेहरा उसके जैसा नहीं। कोई गंध उसके जैसी नहीं। वह आखिर गई कहां। वह कहा करती थी मैं खो जाऊंगा पर मैं तो हूं, सब कुछ है, बस एक वही नहीं है। गली, मुहल्ले, रास्ते, बाजार, पुल सब नाप रहा हूं, मैं। सब अटे पड़े हैं लोगों से। उनमें से कोई-सी भी आकृति उसकी हो सकती है पर वह कहीँ नहीं है। वह अक्सर कहती थी, ‘मैं यहां ज्यादा दिन नहीं रहूंगी, मुझे पसंद नहीं है ये भीड़ भरे रास्ते, हां इस एकांत में, गली के नुक्कड़ पर तुम्हारा कमरा मुझे पसंद है जिसकी खिड़की के चौखट्टे से आसमान का वो हिस्सा दिखता है जिसके नीचे से अमलतास की एक डाल सहसा निकलती है।’ मैं कहता, ‘बाहर और बड़ा आसमान है, अमलतास की डाल के नीचे पूरा पेड़ है, उसका आसमान में निकलना सहसा नहीं है।’ वह कहती, ‘होगा! मुझे क्या, मेरे लिए बस इतना बहुत है, तुम इतना ही आसमान उस अमलतास की डाल के साथ कैनवास पर बना कर रख छोड़ना मेरे लिए।…क्योंकि यह खिड़की से दिखता आसमान जिसे सिर्फ़ मैं और तुम जानते हैं, खो जाएगा एक दिन।’ वह ऐसा कहते हुए खिड़की के पास जाकर गहरी सांस लेती। कहती ‘यहां कुछ भी हमेशा नहीं रहता।’
मैं उस खिड़की से दिखते आसमान से बहुत दूर आ गया हूं। अब मैं कुछ हिलती-डुलती आकृतियां देखता हुआ एक चौड़ी और सुनसान सड़क पर आ जाता हूं जिस पर कभी-कभी कोई गाड़ी सन्नाटा तोड़ती हुई तेज़ी से निकल जाती है। तभी मुझे लगता है वहां से एक बस निकली है। एक आकृति जो हिलती हुई आगे बढ़ रही है। वह अभी-अभी उस बस में चढ़ी है, यह वही है। मैं उस बस के पीछे भागता हूं। लगता है वह मुझे आवाज़ दे रही है, शीशे के उस पार से हाथ हिला रही है। वह बहुत तक़लीफ़ में है। मैं भाग कर बस मैं चढ़ जाता हूं। मैं चढ़ते हुए, गिरते-गिरते बचता हूं। फिर भी मैं चढ़ जाता हूं। वह बस में नहीं है। जो बस में हैं वे मुझे चलती बस से धकेलकर नीचे उतार देते हैं। मैं दौड़ते हुए उतरता हूं। मुझे उतरने और दौड़ने के बीच याद आता है जिन्होंने मुझे उतार दिया है, उनके हाथ लाल हैं।
मैं हांफ जाता हूं।
मैं एक सुनसान पार्क की खाली पड़ी एक बेंच पर जा बैठता हूं। जब कोई अपनी जगह पर नहीं होता तो फिर वह कहीं भी हो सकता है। या फिर उसे कोई भी दिशा लील सकती है और फिर वह कहीं भी नहीं हो सकता। मुझे लगता है वह अभी, यहां इस पार्क में भी हो सकती है। तभी मैं देखता हूं दूर पार्क के कोने में बैठी एक औरत रो रही है। मैं उसके पास जाता हूं। हम दोनों की भाषा एक नहीं है। फिर भी मैं पूछता हूं। वह बताती है। मैं समझ जाता हूं।
उसका भी कोई खो गया है। वह भी उस खोए हुए को ढूंढ रही है और उसे भी मेरी तरह विश्वास है कि वह कहीं भी हो सकता है। मैं अपनी जेब से एक कागज निकालता हूं। वह उस पर बने एक पेंसिल स्कैच को अंधेरे में आंखें गड़ाकर देखती है। उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता। वह पार्क के दूसरे कोने में लगे लैंप पोस्ट की तरफ़ भागती है। कागज उसके हाथ में है इसलिए मैं भी उसके पीछे भागता हूं। हमें विश्वास नहीं होता कि हम जिसे ढूंढ रहे हैं वह नहीं मिला पर उसे ही ढूंढने वाला दूसरा भी कोई है और वह मिल गया है। हम दोनो को लगता है ‘यहां बहुत से लोगों का अपना कोई खो गया है। वे सब उन खोए हुए लोगों को ढूंढ रहे हैं। उन सबके मन में अपने खोए हुए के कभी न मिल पाने का डर है।’ बहुत रात हो गई है। अब उसे भी मिल जाना चाहिए। अब हम दोनो खीज रहे हैं।
उसे ढूंढते हुए हम दोनों थक गए हैं। मैं उस औरत को अपने कमरे पर ले आता हूं। वह उसे तस्वीरों में पहचानती है। वह उसकी छतरी, उसकी सैंडल भी पहचानती है फिर एक के ऊपर एक चढ़ी हुई सैंडल को उतार कर उन्हें सीधा रख देती है। अब वह उसका होना मेरे होने में देखने लगती है।
आधी रात बीत चुकी है।
वह औरत चाहती है हम फिर उसे ढूंढने निकलें। हम फिर उसे ढूंढने निकलते हैं। मैं उसे इशारे से बताता हूं मैंने उसे एक बस में चढ़ते हुए देखा था। मैं भाग कर उसमें चढ़ भी गया था पर वह उसमें नहीं थी। या शायद वह उसी में थी, मैं ही भागते हुए गलत बस में चढ़ गया था। तभी वह अपनी उसी भाषा में कहती है जो मैं नहीं जानता कि उसने उसे बस से उतरते हुए देखा है। मैं उसकी बात समझ जाता हूं। पर वहां तो कोई बस है ही नहीं। वह अंधेरे में एक ओर इशारा करती है। हम उस ओर लपकते हैं।
वह वहीं एक जगह जमीन पर माथा टेककर फूट पड़ती है।
उसे विश्वास है उसने अभी थोड़ी देर पहले उसे यहीं एक बस से उतरते हुए देखा है। उसका रोना- बच्चे के न रहने पर किसी मां के रोने जैसा है। मैं उसके रोने से जान जाता हूं कि वह जो खो गई है जिसे हम दोनो ढूंढ रहे हैं- यह औरत उसकी मां है। वह अपने बच्चे को सड़क से उठाकर समेटना चाहती है। वह सड़क से रेत, धूल, मिट्टी समेटकर आंचल में भर लेती है। तभी कुछ चेहरे उस औरत को ढूंढते हुए वहां आ जाते हैं। वे बताते हैं कि वह पागल है और कई दिनों से अपने किसी खोए हुए को ढूंढ रही है। वे बताते हैं, ‘वह खोया हुआ नहीं मिलेगा क्योंकि अब वह है ही नहीं। यह सच है कि वह जो खो गई थी- इसकी बेटी थी। यह भी सच है कि वह एक बस में थी और कई लोगो ने उसे एक रात मेरी तरह हाथ हिलाते हुए देखा था पर वह बस से उतर नहीं सकी थी। मैं उन्हें बताता हूं कि मैं भी उसे ही ढूंढ रहा हूं जिसे यह ढूंढ रही है। वे मुझ पर विश्वास नहीं करते। मैं अपनी जेब से उन्हें कागज निकाल कर दिखाता हूं। वे उस पर बने स्केच को ध्यान से देखते हैं। उनकी आंखें फटी रह जाती हैं। फिर वे उस औरत की भाषा में बातें करते हुए उसे लेकर लौटने लगते हैं। इस बार मैं उनकी बातें नहीं समझ पाता। मेरे समझने के बीच में भाषा आ जाती है। वह भाषा जो एक नहीं है- सबकी अलग है- सबके लिए अलग है।
मैं अभी भी उसे ढूंढना चाहता हूं। तेजी से जाती एक बस में, मैं बिना किसी भाषा के चिल्लाते हुए चढ़ता हूं। मुझे लगता है वह उसमें हो सकती है, पर वह उसमें नहीं है। मैं फिर कुछ लोगों को फोन करता हूं। वे झुंझला जाते हैं। वे मुझे विश्वास दिलाना चाहते हैं कि वह कभी नहीं मिलेगी क्योंकि वह कभी थी ही नहीं। मैं उसके होने के सबूत दिखाने के लिए उन्हें अपने कमरे पर बुलाना चाहता हूं। वे मना कर देते हैं पर मैं निराश नहीं होता।
रात-दिन मिलकर कुछ देर को दम साध लेते हैं। सीने में बहुत तेज़ दर्द उठता है। आसमान लाल हो जाता है। सुबह होने वाली है- हो सकता है वह ख़ुद ही कमरे पर लौट आई हो। मुझे उसकी एक और तस्वीर बनानी है कमरा खाली है। खाली कमरा देखकर ब्रश उठाने की हिम्मत नहीं होती। मैं निढाल होकर ठंडे फर्श पर गिर जाता हूं। मेरे ऊपर छत से लटका पंखा घूम रहा है। उसके डैनों के बीच लगी चकती में मेरा प्रतिबिंब बन रहा है- धराशायी, परास्त। उसकी कही बातें कमरे में तिर रही हैं। वह सही कहती थी ‘आने वाले समय के साथ तुम भी नहीं रह आओगे। खो जाओगे।’ मुझे एहसास होता है मैं भी खो गया हूं क्योंकि अब मैं खोए हुए की भाषा बोल रहा हूं। धीरे-धीरे उसी में बदल रहा हूं जिसे मैं ढूंढ रहा था। अब कुछ-कुछ जान पा रहा हूं कि वह कहां चली गई थी। उसने मेरा हाथ पकड़कर लिया है।
पंखा और तेजी से घूमने लगा है- शरीर पर कई हाथ रेंग रहे हैं। कपड़ों में सलवटें पड़ने लगी हैं। वे खिंचकर फट रहे हैं। तार-तार हो गए हैं। अब देह पर सलवटें ही सलवटें हैं। वे गहरी होकर योनियों में बदल रही हैं। शरीर पर रेंगते हाथों में गर्म लोहे की छड़ें हैं। वे शरीर पर उभरी योनियों को दाग रहे हैं। उनके हाथों में नुकीले, धारदार, पैने हथियार उग आए हैं। वे उसके शरीर पर पड़ी सलवटें छील कर उतार देना चाहते हैं।
मैं चीखना चाहता हूं पर गले से जो आवाज़ निकलती है वह मेरी आवाज़ नहीं है। वह उसकी है जो खो गया है। यह भाषा भी मेरी नहीं है। यह उस खोए हुए की भाषा है जिसे खो जाने पर ही सीखा जा सकता है। मेरे साथ हजारों खोए हुए चीखने लगते हैं। पर उन्हें कोई नहीं सुन पाता। इसलिए खोए हुओं की भाषा दुनिया को उनके खो जाने के सबूत नहीं दे पाती। वह मेरे सिर पर हाथ रखके कहती है, ‘मैं कभी नहीं मिलूंगी।’ मैं छटपाटाते हुए पूछता हूं, ‘क्यों?’ वह सिसकते हुए कहती है, ‘स्त्रियां खो जाने पर फिर कहीं नहीं मिलतीं, मैं तो तुमसे मिलने से कई साल पहले से खोई हुई हूं।’ मैं गिड़गिड़ाता हूं पर तुम तो मेरे साथ रही आती थी, ये देखो ये सब तुम्हारे ही चित्र हैं’ वह मेरे दर्द से विलग होकर निरापद हो जाती है, फिर दूर से आती हुई आवाज़ में कहती है ‘मुझे लगता था तुम खोए हुए की भाषा जान पाओगे, इसलिए मैं तुम्हारी समृतियों में, तुम्हारे चित्रों में रही आती थी।’
ऐसा कहते हुए उसकी आवाज दरकने लगती है। मैं देखता हूं देह के साथ उसकी भाषा भी लहुलुहान और विकृत हो गई है। उसके शरीर के घावों से रक्त की बूंदे छिटककर केनवास पर पड़ रही हैं। वे नीचे बहने लगी हैं, उनसे कुछ भयावह चेहरे, कुछ अंधेरी गलियां, कुछ सुनसान सड़कें, कुछ अज़नबी शहरों के नक़्शे, कुछ सनसनाती गाड़ियां बन-बिगड़ रही हैं। मैं उन अजनबी शहरों के नक़्शों में, उनकी सड़कों पर, तेज़ी से भागती गाड़ियों के पीछे भागना चाहता हूं, भागता हूं, भागते-भागते खो जाता हूं।
उस दिन के बाद, मैं भी किसी को नहीं मिलता। हालांकि उस दिन के बाद भी कई आदमी उन सभी शहरों में, अपने पुराने पतों पर पहले की तरह रहे आते हैं, मेरी तरह कुछ अपने खोए हुए को ढूंढने भी निकलते रहे होंगे और फिर मेरी तरह वे भी खो गए होंगे।
 
साभार
 
प्रेषिका  
गीता पंडित

Sunday, March 8, 2015

तुम्हारी अस्वीकृति के बावज़ूद ,,, गीता पंडित

....
.......

तुम्हारी अस्वीकृति के बावज़ूद ___






जीना है स्वाभिमान के साथ

 बस इतनी सी बात  


ओ समय !

तुम्हारी हर अस्वीकृति के बाद भी ...

बढ़ते रहेंगे मेरे कदम

इसी दिशा में


जानती हूँ

फूलों की सेज नहीं हैं ये रास्ते

लेकिन नहीं डरती लहुलुहान होने से


डरना मैं भूल गयी हूँ

याद है तो बस इतना

हर पल मेरा है

मेरे लिए है

ये सारी दुनिया मेरी है

जिसे मुझे देखना है

महसूस करना है

अपने रोम-रोम में


तुम्हारी लाख दुत्कार के बावज़ूद

मैं निराश नहीं हूँ


ओ धरती!

निश्चिंत रहना

तुम्हें उठाये हुए अपने हाथों में

मैं दौडती रहूँगी तब तक

जब तक कि तुम

होने में अपना होना महसूस ना कर लो
-गीता पंडित
8 मार्च 15
( अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस  पर सभी स्त्रियों को समर्पित )