Thursday, August 24, 2017

दुःख शायद इसी को कहते है (स्त्री) __ गीता पंडित




तुम्हें जानने के लिए
फैला दीं बाहें
उतार फेंके लाज के वस्त्र

उतरना चाहा
पूरा का पूरा तुम्हारे भीतर
लेकिन तुम

अपनी ही यात्रा में मग्न
दुहराते जा रहे हो स्वयं को
मैं ऐसे ही भौचक खड़ी
देखती हूँ तुम्हें
और सोचती हूँ

तुम्हारी ही मॉस-मज्जा से बनी
मैं कैसे हो गई अभूली गाथा
तुम्हारे लिए

दुःख
शायद इसी को कहते हैं |

(गीता पंडित)
24 अगस्त 2017


( शिखंडी समय में ) मेरे कविता संग्रह से