Tuesday, June 12, 2012

चार कवितायें ....... पूर्णिमा वर्मन


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मगर बजती रही फिर भी 
कोई झनकार चुटकी में___

कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
कभी सर्दी ,कभी गर्मी, कभी बौछार चुटकी में

ख़ुदाया कौन-से बाटों से मुझको तौलता है तू
कभी तोला, कभी माशा, कभी संसार चुटकी में

कभी ऊपर ,कभी नीचे ,कभी गोते लगाता-सा
अजब बाज़ार के हालात हैं लाचार चुटकी में

ख़बर इतनी न थी संगीन अपने होश उड़ जाते
लगाई आग ठंडा हो गया अख़बार चुटकी में

न चूड़ी है, न कंगन है, न पायल है ,न हैं घुँघरू
मगर बजती रही फिर भी कोई झनकार चुटकी में
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एक दीप मेरा ___

दुनिया के मेले में 
एक दीप मेरा
ढेर से धुँधलके में 
ढूँढ़ता सवेरा 
वंदन अभिनंदन में
खोया उजियारा
उत्सव के मंडप में 
आभिजात्य सारा
भरा रहा शहर 
रौशनी से हमारा
मन में पर छिपा रहा 
पूरा अंधियारा 
जिसने अंधियारे का साफ़ किया डेरा
जिसने उजियारे का रंग वहां फेरा
एक दीप मेरा 
सड़कों पर भीड़ बहुत
सूना गलियारा
अंजुरी भर पंचामृत 
बाकी जल खारा
सप्त सुर तीन ग्राम 
अपना इकतारा
छोटे से मंदिर का 
ज्योतित चौबारा 

जिसने कल्याण तीव्र मध्यम में टेरा
जिससे इन साँसों पर चैन का बसेरा
एक दीप मेरा   
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खोया खोया मन ____

जीवन की आपाधापी में
खोया खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन 
लगता है
दौड़ बड़ी है समय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है
चैन कहाँ अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर खप कर के-
जितना जोड़ा
कितना भी हो कम लगता है
सफलताओं का नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा-
ऐसा हर पल
सच में बौनापन लगता है
खून ख़राबा मारा मारी
कहाँ जाए जनता बेचारी
आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन लगता है
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अब तो नींद ____

अब तो नींद नहीं आएगी
देख सिरहाने याद तुम्हारी
हमने तो रिश्ता बोया था
प्यार न जाने कब उग आया
कब सींचा कब हरा हो गया
कैसे कर दी शीतल छाया
अब इस दिल को कौन संभाले
ना कांधा ना बांह तुम्हारी
कब जाना था साथ बंधे तो
दूर-दूर हो अलग चलेंगे
सातों कसमें खाने वाले
दो बातों तक को तरसेंगे
आधी रातें घनी चाँदनी
आँगन सूना मौसम भारी
दुनिया छोटी है, सुनते थे
दूर न कोई जा पाता है
समय लगा कर पंख, कहा था
पल भर में ही उड़ जाता है
पर पल भी युग बन जाता है
नहीं पता थी यह लाचारी
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संपादिका 
गीता पंडित 
साभार (कविता कोश ) से