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2)
रात हमारी आँखों से फिर बही कहानी अम्मा की ।
रात हमारी आँखों से फिर बही कहानी अम्मा की ।
खिड़की से सटकर महकी जब रात की रानी अम्मा की ।
कढ़ी भात खट्टी चटनी और दाल परोंठे गोभी के,दही दूध अदरक लहसुन सी गंध सुहानी अम्मा की ।
बेसन की सोंधी रोटी-सा यह भी मुझको याद अभी,पीठ फेरकर पानी पीकर भूख छुपानी अम्मा की ।
घर के सुख में उसने खुद को पूरा - पूरा बाँट दिया, दो जोड़े सूती धोती में गई जवानी अम्मा की ।
आज अचानक उसको देखा अम्मा जैसी लगती थी,चाची के टूटे छज्जे पर दही मथानी अम्मा की ।
बाबा की वह गिरी हवेली दादी का तुलसी का चौरा,पिछवाड़े की नीम भी जाने उमर खपानी अम्मा की ।
जब गैया की पूँछ थी खींची गौरैया का अंडा फोड़ा,मेरे साथ नहीं सोना यह सज़ा सुनानी अम्मा की ।
छोड़-छाड़ कर चले गए सब किसको उसका याद रहा,बस बाबू को याद रही वो चिता जलानी अम्मा की ।
जब बच्चे के होने में मै तड़फ - तड़फ कर रोई थी,तब देखी थी अपने जैसी पीर उठानी अम्मा की ।
मैंने अम्मा की झुर्री को धीरे- धीरे ओढ़ लिया,कैसे मै बिटिया से कह दूँ बात पुरानी अम्मा की ।
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3)
हाँ मै औरत हूँ
हाँ मै औरत हूँ
एक महावृक्ष
गमले में उगा हुआ
सज्जाकक्षों में सजा हुआ
अतिथियों तथा आगंतुको की
जिज्ञासा और प्रशंसा का पात्र
वे भी प्रयोग में लाना
चाहते हैं वह कला
जिससे वृक्षों, लताओं,
फूलों और फलों को
बौना बनाकर
अन्तः कक्षों को सजाया जा सके
मेरे स्वामी बताते हैं
यह कला कोई
दुःसाध्य नहीं
सरल सी प्रक्रिया है
एक जटिल अनुवांशिक दोष की
बस एक छिछले से पात्र में
रोपना होता है एक महावृक्ष
और करना होता है
विकास की प्रक्रिया में हस्तक्षेप
समय-समय पर
छाँटते रहें उसकी टहनियाँ
नोचते रहें किसलय और कोपलें
साथ ही उसकी जड़ें
इस ख़ूबसूरती से काटते
और तराशते रहें
ताकि वह अधिक गहरे न उतरे
किन्तु माटी से उखड़े भी नहीं
मै देखती हूँ
घर के बाहर
चलती हुई
ख़ुशबू भरी तेज़ हवाएँ
मै भी
गमले में उगे महावृक्ष की तरह
खुली हवाओं में घूम नहीं सकती
वर्षा में भींग नहीं सकती
क्योंकि मै औरत हूँ
मुझसे मेरी ज़मीन
और आसमान इस तरह
से छीना गया
कि मुझे पता ही
नहीं चला
और जब तक
मै यह षड्यंत्र
समझ पाती
बहुत देर
हो चुकी थी
कई युगों के अथक श्रम से
मुझे शयनकक्षों तथा अन्तःपुरों में
कुशलतापूर्वक
सजाया जा चुका था
मेरी जड़ें अपनी
ज़मीन की गहराइयाँ
खो चुकी थी ,
मेरी चिंतना की
टहनियाँ छाँटी जा चुकी थी
मेरी अभिव्यक्ति और
संवेदना की कोपलें
नुच चुकी थीं
मेरी मुट्ठियों में
मेरा आकाश नहीं
मेरे आकाश का
आभास भर था
हाँ , मै औरत हूँ
पुरुष की हथेली पर
बौना करके
उगाया गया
एक महावृक्ष |
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4)
कैसे भोग लगाऊँ
कैसे भोग लगाऊँ
जोगी ,
कैसे भोग लगाऊँ
पाप से जूठी मन की तुलसी कैसे भोग लगाऊँ
जनम-जनम की भोगी काया कैसे सेज सजाऊँ
तेरे मन की भूलभुलैया सदा-सदा खो जाऊँ
भोग की नदिया में अग्नि के आखर फूल चढ़ाऊँ
जोगी मै तो कफ़न भी अपना केसरिया रंगवाऊँ
तन की लकड़ी चिता की लकड़ी साथ-साथ जलवाऊँ
तेरी कुटिया के द्वारे पर अपनी राख बिछाऊँ
जले हाथ की जली लकीरें भाग कहाँ पढवाऊँ
पत्थर के पन्नो पर जोगी काँच का कलम चलाऊँ
मधु तेरे बिन जीना कैसा कैसे तुझे बताऊँ
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5)
मुट्ठी का सच
जब से तुमने
मेरी हथेली पर
कोई अमूर्त-सी अनुभूति
और मूर्त-सी संवेदना
रखकर मेरी मुट्ठी
बंद कर दी थी ।
तब से मै निरंतर
यह बंद मुट्ठी
लिए जी रही हूँ ।
कभी कभी मन करता है
खोलकर देखूँ
कि वह क्या था ?
कोई सम्बन्ध, अनुबंध
या कोई अधिकार ?
अथवा जन्म-जन्मान्तरों
की सहयात्रा का स्वीकार ?
शनैः शनैः मेरी बंद मुट्ठी
भीतर ही भीतर
पसीजती रही
और वह जो कुछ भी था
मेरे रोम-रोम में समाता हुआ
मेरी चेतना का अंग बन गया ।
और अचानक ही मुझे लगा कि
मेरी मुट्ठी खाली है ।
आज सोंचती हूँ यदि तुम्हे
तुम्हारी धरोहर लौटाना चाहूँ भी ,
तो लौटा नहीं सकती ।
फिर चाहे वह कोई
यथार्थ हो अथवा स्वप्न
या किसी अधिकार का भ्रम
या स्वयं तुम ....।।
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साभार (कविता कोष से )
प्रेषिका
गीता पंडित