Tuesday, September 27, 2011

आज मुझे माँ ! गाओ ... गीता पंडित



...
....


मेरे मन के 
प्रांगण में भी
भाव सुमन भर लाओ,
मैं नित-नित 
गाती हूँ तुमको
आज मुझे  माँ ! गाओ


शंख नाद के 
पावन भावों
सी भर आये मेरी लेखनी,
सत्यं शिवं 
सुंदरं बनकर
जनमन कथा सुनाये लेखनी,
वीणा पाणी 
मात शारदे !
ऐसा वर ले आओ |


मैं नित-नित 
गाती हूँ तुमको
आज मुझे  माँ ! गाओ |


लिखी सूर की 
तुमने पाती
बनीं कबीर की भाषा सादी,
बाँची तुलसी 
की रामायण
कालीदास को आयीं गाती ,
रुद्ध कण्ठ है 
अधर हैं कंपित
सुर सरिता लहराओ  |


मैं नित-नित 
गाती हूँ तुमको
आज मुझे माँ ! गाओ |


 तुमको गाती 
आयी युगों से
कब गाने मैं पायी.
तुम ही मात्रा 
अक्षर बिंदु कब
वर्ण समझ मैं पायी, 
बरसें नयना हर पल मेरे
गीतों में ढल आओ ।



मैं नित-नित 
गाती हूँ तुमको
आज मुझे माँ ! गाओ ||



गीता पंडित 

Monday, September 19, 2011

हक्की -बक्की ... एक लघुकथा ...मुक्ता शर्मा

                                                    
                


                          जब पिता के घर से बिदा हो कर आयी थी तो माँ और बाबु जी ने दुलार से सर पर हाथ रखते हुए कहा था, " अपने घर जा रही हो, सबका सम्मान करना और सुख दुःख में साथ निभाना " कहीं एक टीस सी उठी थी जमुना के मन में, क्या ये उसका घर नही था ! यहाँ की हर ईंट , कोने, दीवार से कितनी यादें जुड़ीं थी उसकी. उसका बचपन, वो छुपन छुपाई का खेल, हर त्यौहार पर घर का सजाना......सब कुछ तो अपना घर समझ कर करती आयी थी वो !


                            माँ उसके सुघड़पन पर बलैयां  लेती नहीं थकती थी. कहतीं, " मेरी जमुना जिस घर जाएगी, स्वर्ग बना  देगी. मन ही मन जमुना खीज जाती, भाई को तो नहीं कहती जाने के लिए, मुझे चाहती है तो हमेशा भेजने की बात क्यूँ कहतीं है ! माँ उसे समझाती, " ये घर भी तेरा है पर लड़की का घर उसकी ससुराल होता है, पति के पास, तू वहां की रानी होगी !" पर वह मन ही मन संकल्प करती कि कभी नहीं जाएगी माँ, बाबु जी को छोड़ कर |


  
                             लेकिन वट वृक्ष के सामान विशाल और गहरी जड़ों वाले समाज और रीती रिवाजों के सामने जमुना के निश्चय की बेल ज्यादा न फ़ैल सकी. बाबु जी ने अपनी समझ से अच्छा घर और लड़का देख कर उसका विवाह कर दिया. चंद्रेश से विवाह के बाद जमुना ससुराल आ गयी और अजनबी चेहरों और कमरों को अपना बनाने की पुनः कोशिश में जुट गयी |
    

                               ससुराल में आ कर उसका नाम भी बदल दिया गया, चंद्रेश की पत्नी होने के कारण उसे किरण  नाम से अलंकृत कर दिया गया. जमुना कुछ न कह पायी. शुरू शुरू में सास जब भी उसे नए नाम से बुलाती तो वह स्वयं ही उत्तर न पाती , जैसे किसी और को बुलाया जा रहा  हो. सास अक्सर खीज जाती और कहती,  


 " बहु   को कितना भी लाड प्यार दो, कभी बेटी नहीं बन सकती |  जमुना अक्सर सोचती की आखिर वह क्या बने, बेटी या बहू !!"  धीरे - धीरे साल बरस बीतते गए,  जमुना बेटी से बहू से माँ बन गयी.  जमुना न जाने कहाँ खो गयी और किरण घर के काम धाम में छुप गयी |


                                  आज घर में बड़े बेटे लोकेश के विवाह की चर्चा छिड़ी. पति और ससुर विचार विमर्श कर रहे थे. रात को पति से   बोली, " अपने पड़ोस में राधिका रहती है. मैं कई बार मिल चुकी हूँ उससे, अच्छी लड़की है, पढ़ी लिखी और सुशील. उसके पिता उपाध्याय जी को आप जानते होंगे. साधारण परिवार है किन्तु सभ्य हैं. मैंने लोकेश से भी बात की है, उसे लड़की पसंद है. मेरा दिल कहता है, यह 
रिश्ता अच्छा रहेगा, आप राधिका के पिता से बात करिए |" 


                                    सुनते ही लोकेश भड़क गया, बोला,  " किसने कहा है तुम्हें अपनी अक्ल लड़ाने के लिए, सारी उम्र इस चार दिवारी   में गुजारी है , दीन दुनिया जानती नहीं हो, चली हो मुझे सुझाने , उय्ना करो जितना  कहा जाये , चूल्हे चौके तक ठीक है, उसके बाहर की दुनिया  में टांग मत अडाओ. जन्म दिया है तुमने पर लोकेश का भला बुरा बाप से अच्छा कोई नही जानता |"
  

                              हक्की बक्की रह गयी जमुना. कितनी देर तक जड़वत खड़ी रही |  आज बरसों बाद भी अपने घर का रास्ता ढूँढती रह गयी जमुना ...


                                   
                                     
 प्रेषिका 
 गीता पंडित  

  

 
    

Wednesday, September 14, 2011

पाँच कवितायें ......... मधुरिमा सिंह

1)
 
   भ्रूणकाया
 
 
मुझे 

बहुत अच्छा लगा था 
उस दिन

जब पहले पहल 
     मेरी माँ को 
     मेरे
 आने का पता चला 

उसके हाथ में थी 
भ्रूण परीक्षण की रिपोर्ट
जिसे उसने कारीडोर में
बैठे मेरे पिता को देते हुए कहा था
"लड़की" है

मेरे पिता  
मेरी दो बहनों के साथ  
बैठे खेल रहे थे  
मुझे घुंघराले बालों वाली  

दोनों बहने

बहुत प्यारी लगी थीं
किन्तु चौंक पड़े थे पिता 
  

कुछ कठोर-सा 
हो गया था उनका स्वर
"
चलो इसे कहीं गिरवा देते हैं"

 

माँ पत्थर की तरह  
शून्य में निहारती रही दूर तक  
फिर धीरे से बोली "नहीं" 
"पागल हो क्या  
दो तो पहले से ही हैं  
फिर एक और  
मुझे सिर्फ बेटा चाहिए" बोले पिता
माँ मना करती ही रही  
अंतिम क्षण तक

अस्पताल का वह 'शल्यकक्ष
वह ईथर की बदबू  
मुझे बहुत भयावह  
लग रही थी

मैंने कहना चाहा  
अपने पिता से  
आने दो मुझे  
मै भी बैठना चाहती हूँ  
माँ की गोद में  
झुलना चाहती हूँ  
तुम्हारी बाँहों में  
खेलना चाहती हूँ  
हरे-भरे मैदानों में  
बच्चों के साथ

किन्तु अपनी नष्ट भ्रूण-काया को  
अस्पताल की  
कूड़े की बाल्टी में  
फेके जाने के समय तक भी 
मै कुछ कह नहीं पाई थी  
काँप कर रह गए थे मेरे होंठ 


      क्योंकि मै औरत थी
             .........






2)
रात हमारी आँखों से फिर बही कहानी अम्मा की ।


रात हमारी आँखों से फिर बही कहानी अम्मा की ।
खिड़की से सटकर महकी जब रात की रानी अम्मा की ।

कढ़ी भात खट्टी चटनी और दाल परोंठे गोभी के,दही दूध अदरक लहसुन सी गंध सुहानी अम्मा की ।

बेसन की सोंधी रोटी-सा यह भी मुझको याद अभी,पीठ फेरकर पानी पीकर भूख छुपानी अम्मा की ।

घर के सुख में उसने खुद को पूरा - पूरा बाँट दियादो जोड़े सूती धोती में गई जवानी अम्मा की 

आज अचानक उसको देखा अम्मा जैसी लगती थी,चाची के टूटे छज्जे पर दही मथानी अम्मा की ।

बाबा की वह गिरी हवेली दादी का तुलसी का चौरा,पिछवाड़े की नीम भी जाने उमर खपानी अम्मा की ।

जब गैया की पूँछ थी खींची गौरैया का अंडा फोड़ा,मेरे साथ नहीं सोना यह सज़ा सुनानी अम्मा की ।

छोड़-छाड़ कर चले गए सब किसको उसका याद रहा,बस बाबू को याद रही वो चिता जलानी अम्मा की 


जब बच्चे के होने में मै तड़फ - तड़फ कर रोई थी,तब देखी थी अपने जैसी पीर उठानी अम्मा की ।

मैंने अम्मा की झुर्री को धीरे- धीरे ओढ़ लिया,कैसे मै बिटिया से कह दूँ बात पुरानी अम्मा की ।
..........





3)

       हाँ मै औरत हूँ

हाँ मै औरत हूँ
एक महावृक्ष
गमले में उगा हुआ
सज्जाकक्षों में सजा हुआ
अतिथियों तथा आगंतुको की
जिज्ञासा और प्रशंसा का पात्र
वे भी प्रयोग में लाना
चाहते हैं वह कला
जिससे वृक्षोंलताओं,
फूलों और फलों को
बौना बनाकर
अन्तः कक्षों को सजाया जा सके
   

मेरे स्वामी बताते हैं
यह कला कोई
दुःसाध्य नहीं
सरल सी प्रक्रिया है
एक जटिल अनुवांशिक दोष की


बस एक छिछले से पात्र में
रोपना होता है एक महावृक्ष
और करना होता है
विकास की प्रक्रिया में हस्तक्षेप
समय-समय पर
छाँटते रहें उसकी टहनियाँ
नोचते रहें किसलय और कोपलें
साथ ही उसकी जड़ें
इस ख़ूबसूरती से काटते
और तराशते रहें
ताकि वह अधिक गहरे न उतरे
किन्तु माटी से उखड़े भी नहीं


मै देखती हूँ
घर के बाहर
चलती हुई
ख़ुशबू भरी तेज़ हवाएँ
मै भी
गमले में उगे महावृक्ष की तरह
खुली हवाओं में घूम नहीं सकती
वर्षा में भींग नहीं सकती
क्योंकि मै औरत हूँ


मुझसे मेरी ज़मीन
और आसमान इस तरह
से छीना गया
कि मुझे पता ही
नहीं चला
और जब तक
मै यह षड्यंत्र
समझ पाती
बहुत देर
हो चुकी थी
कई युगों के अथक श्रम से
मुझे शयनकक्षों तथा अन्तःपुरों में
कुशलतापूर्वक
सजाया जा चुका था


मेरी जड़ें अपनी
ज़मीन की गहराइयाँ
खो चुकी थी ,
मेरी चिंतना की
टहनियाँ छाँटी जा चुकी थी
मेरी अभिव्यक्ति और
संवेदना की कोपलें
नुच चुकी थीं
मेरी मुट्ठियों में
मेरा आकाश नहीं
मेरे आकाश का
आभास भर था


हाँ , मै औरत हूँ
पुरुष की हथेली पर
बौना करके
उगाया गया
एक महावृक्ष |
......... 




4)
कैसे भोग लगाऊँ

कैसे भोग लगाऊँ
जोगी ,
कैसे भोग लगाऊँ

पाप से जूठी मन की तुलसी कैसे भोग लगाऊँ
जनम-जनम की भोगी काया कैसे सेज सजाऊँ

तेरे मन की भूलभुलैया सदा-सदा खो जाऊँ
भोग की नदिया में अग्नि के आखर फूल चढ़ाऊँ

जोगी मै तो कफ़न भी अपना केसरिया रंगवाऊँ
तन की लकड़ी चिता की लकड़ी साथ-साथ जलवाऊँ

तेरी कुटिया के द्वारे पर अपनी राख बिछाऊँ
जले हाथ की जली लकीरें भाग कहाँ पढवाऊँ

पत्थर के पन्नो पर जोगी काँच का कलम चलाऊँ
मधु तेरे बिन जीना कैसा कैसे तुझे बताऊँ
..........




 
5)
मुट्ठी का सच


जब से तुमने
मेरी हथेली पर
कोई अमूर्त-सी अनुभूति
और मूर्त-सी संवेदना
रखकर मेरी मुट्ठी
बंद कर दी थी ।
तब से मै निरंतर
यह बंद मुट्ठी
लिए जी रही हूँ ।


कभी कभी मन करता है
खोलकर देखूँ
कि वह क्या था ?
कोई सम्बन्धअनुबंध
या कोई अधिकार ?
अथवा जन्म-जन्मान्तरों
की सहयात्रा का स्वीकार ?


शनैः शनैः मेरी बंद मुट्ठी
भीतर ही भीतर
पसीजती रही
और वह जो कुछ भी था
मेरे रोम-रोम में समाता हुआ
मेरी चेतना का अंग बन गया ।
और अचानक ही मुझे लगा कि
मेरी मुट्ठी खाली है 


आज सोंचती हूँ यदि तुम्हे
तुम्हारी धरोहर लौटाना चाहूँ भी ,
तो लौटा नहीं सकती ।
फिर चाहे वह कोई
यथार्थ हो अथवा स्वप्न
या किसी अधिकार का भ्रम
या स्वयं तुम ....।।
........


साभार (कविता कोष से )

प्रेषिका 
गीता पंडित 

Tuesday, September 6, 2011

एक स्त्री के रूप में "महादेवी वर्मा" गीता पंडित की दृष्टि से

 
( भाग 1 )

....
......

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार


आहा !! प्रेम का तीर्थ, आज की मीरा महादेवी वर्मा
छायावादी युग के सुन्दरतम स्तंभों में से एक, ....परिचय स्वयम देती हुई कहती हैं...


तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!
तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही विस्मत मिश्रित हाला
तेरा ही मानस मधुशाला
फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या
?

चित्रित तू मैं हूँ रेखा क्रम,मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया-छाया में रहस्यमय
प्रेयसी प्रियतम का अभिनय क्या?



जन्म मरण निश्चित हैं इस परिचय से अधिक आलौकिक कोई परिचय हो सकता है क्या
लेकिन एक अलग परिप्रेक्ष्य में महादेवी वर्मा...   एक स्त्री के रूप में ...जब सोचती हूँ तो....

सब की सीमा बन सागर सी,
हो असीम आलोक-लहर सी,
तारोंमय आकाश छिपा
रखती चंचल तारक अपने में!
शाप मुझे बन जाता वर सा,
पतझर मधु का मास अजर सा,
रचती कितने स्वर्ग एक
लघु प्राणों के स्पन्दन अपने में!


पीड़ा का महा ज्वार आंदोलित होने लगता है और प्रश्न अनगिन सम्मुख आकर 


खड़े हो जाते हैं | फरुखाबाद के 


वकीलों परिवार में 
जन्म लेने के बाद भी ___
वही असमय विवाह और फिर पीड़ा का अतिरेक कहाँ से कहाँ ले गया ___
सांसारिक मोह–माया से दूर...... कहीं अपने मन के कोष्ठ में नीड़ बना चिड़िया ने
स्वयम की श्वासों के लियें दाना पानी की व्यवस्था की शब्द के संसार में खोकर .....


छंद-रचना-सी गगन की
रंगमय उमड़े नहीं घन,
विहग-सरगम में न सुन
पड़ता दिवस के यान का स्वन,
पंक-सा रथचक्र से लिपटा अँधेरा है ।


रोकती पथ में पगों को
साँस की जंजीर दुहरी,
जागरण के द्वार पर
सपने बने निस्तंद्र प्रहरी,
नयन पर सूने क्षणों का अचल घेरा है ।
.......

वर इसे दो एक कह दो
मिलन के क्षण का उजाला!

झर इसी से अग्नि के कण,
बन रहे हैं वेदना-घन,
प्राण में इसने विरह का
मोम सा मृदु शलभ पाला?


आह !!!
पीड़ा की पराकाष्ठा .तो देखिये....


मेरी मृदु पलकें मूँद-मूँद,
छलका आँसू की बूँद-बूँद,
लघुत्तम कलियों में नाप प्राण,
सौरभ पर मेरे तोल गान,
बिन माँगे तुमने दे डाला, करुणा का पारावार मुझे!
चिर सुख-दुख के दो पार मुझे|
क्यों अश्रु न हो श्रृंगार मुझे!
.....


यह न झंझा से बुझेगा,
बन मिटेगा मिट बनेगा,
भय इसे है हो न जावे
प्रिय तुम्हारा पंथ काला!


कल्प-युगव्यापी विरह को एक सिहरन में सँभाले,
शून्यता भर तरल मोती से मधुर सुधि-दीप बाले,
क्यों किसी के आगमन के
शकुन स्पन्दन में मनाती?
...प्राण में चातक बसाती,
...सुप्त प्रहरी को जगाती,
...सजल दीपक राग गाती |


ये भी_____


किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?


 

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


 

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो,
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है ....
........

लेखनी चीत्कार करती हुई...


दीप को अब दूँ विदा, या
आज इसमें स्नेह ढालूँ ?
दूँ बुझा, या ओट में रख
दग्ध बाती को सँभालूँ ?
किरण-पथ पर क्यों अकेला दीप मेरा है ?
यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है ?


हर शब्द, हर भाव, हर गीत जैसे मन की ऋचायें,  हवन का सुगन्धित धूम्र
अंतर से उच्चारित वेद ...पावन करते जाते हैं मन को, मन के अंदर बैठे
उस स्वजन को जो उस भावना में तल्लीन होकर अपने स्व को भूल जाता है
और एकाकार हो जाता है उस लय में,  उस सुर में,  उस सरगम में जो महादेवी के
गान में बजती है, तरंगित होती है |

क्रमश:


शत-शत नमन मेरा   
माँ सरस्वती पुत्री माहादेवी को |

नत-मस्तक
गीता पंडित  ..
यह भी....