जब पिता के घर से बिदा हो कर आयी थी तो माँ और बाबु जी ने दुलार से सर पर हाथ रखते हुए कहा था, " अपने घर जा रही हो, सबका सम्मान करना और सुख दुःख में साथ निभाना " कहीं एक टीस सी उठी थी जमुना के मन में, क्या ये उसका घर नही था ! यहाँ की हर ईंट , कोने, दीवार से कितनी यादें जुड़ीं थी उसकी. उसका बचपन, वो छुपन छुपाई का खेल, हर त्यौहार पर घर का सजाना......सब कुछ तो अपना घर समझ कर करती आयी थी वो !
माँ उसके सुघड़पन पर बलैयां लेती नहीं थकती थी. कहतीं, " मेरी जमुना जिस घर जाएगी, स्वर्ग बना देगी. मन ही मन जमुना खीज जाती, भाई को तो नहीं कहती जाने के लिए, मुझे चाहती है तो हमेशा भेजने की बात क्यूँ कहतीं है ! माँ उसे समझाती, " ये घर भी तेरा है पर लड़की का घर उसकी ससुराल होता है, पति के पास, तू वहां की रानी होगी !" पर वह मन ही मन संकल्प करती कि कभी नहीं जाएगी माँ, बाबु जी को छोड़ कर |
ससुराल में आ कर उसका नाम भी बदल दिया गया, चंद्रेश की पत्नी होने के कारण उसे किरण नाम से अलंकृत कर दिया गया. जमुना कुछ न कह पायी. शुरू शुरू में सास जब भी उसे नए नाम से बुलाती तो वह स्वयं ही उत्तर न पाती , जैसे किसी और को बुलाया जा रहा हो. सास अक्सर खीज जाती और कहती,
" बहु को कितना भी लाड प्यार दो, कभी बेटी नहीं बन सकती | जमुना अक्सर सोचती की आखिर वह क्या बने, बेटी या बहू !!" धीरे - धीरे साल बरस बीतते गए, जमुना बेटी से बहू से माँ बन गयी. जमुना न जाने कहाँ खो गयी और किरण घर के काम धाम में छुप गयी |
आज घर में बड़े बेटे लोकेश के विवाह की चर्चा छिड़ी. पति और ससुर विचार विमर्श कर रहे थे. रात को पति से बोली, " अपने पड़ोस में राधिका रहती है. मैं कई बार मिल चुकी हूँ उससे, अच्छी लड़की है, पढ़ी लिखी और सुशील. उसके पिता उपाध्याय जी को आप जानते होंगे. साधारण परिवार है किन्तु सभ्य हैं. मैंने लोकेश से भी बात की है, उसे लड़की पसंद है. मेरा दिल कहता है, यह
रिश्ता अच्छा रहेगा, आप राधिका के पिता से बात करिए |"
हक्की बक्की रह गयी जमुना. कितनी देर तक जड़वत खड़ी रही | आज बरसों बाद भी अपने घर का रास्ता ढूँढती रह गयी जमुना ...
गीता पंडित
19 comments:
आज भी औरत अपना घर ही ढूँढ रही है जो उसे कभी नही मिलता…………सटीक चित्रण किया है।
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Nirmal Paneri
सही में जमना का रास्ता ही इस समज की कश्म कश है ....प्रेरक और मार्मिक शाब्दिक उद्घोस करते शब्द ...!!!कई आयामों को सोचने पर विवश करती अभिव्यक्ति !!!!!!!!!!!!!!
आपका अभिनंदन और आभार
" हम और हमारी लेखनी " की तरफ से मुक्ता जी ..
स्त्री की मनोदशा का मार्मिक रूपान्तरण करने में ये लघुकथा पूर्णता: सफल हुई है ..
सस्नेह
गीता पंडित
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Abha Nivsarkar Mondhe
bahut badhiya... sunder..
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Abha Nivsarkar Mondhe
padhte hi aankhe dabdabaa guyee gita ji...
दुखद है ....आभा जी...
स्त्री की संरचना में जड़ों से उखडना एक
भयावह पीड़ा का कारण है ...
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Abha Nivsarkar Mondhe
लगता है जैसे स्त्री एक उपकरण हो.. जिससे घर, वंश आगे बढ़े, वो लोगों को खाना खिलाए, उनकी गालियां खाए और बस मर जाए.. इससे ज्यादा कुछ नहीं... ऐसा नहीं है कि स्थिति बेहतर नहीं हुई है.. लेकिन अब भी ८० फीसदी महिलाएं ऐसी ही हैं.. और मजे की बात यह है कि वह खुद भी इससे निकलना नहीं चाहतीं...
हाँ ऐसा बड़ी संख्या में हो रहा है ....
आजकल मैं इसे सोशल वर्क की तरह ले रही हूँ.....
मेरा हर तरह की स्त्रियों से मिलना हुआ है
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Sanjay Dubey
इस धरती से मातृशक्ति का मान नहीं जा सकता है...नर के मन से नारी का सम्मान नहीं जा सकता है...घर में बेटा हो तो बेशक चूल्हा ठंडा रह जाए ...बेटी घर में हो तो भूखा मेहमान नहीं जा सकता
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Mukta Sharma
Gita ji, bahut bahut dhanyavaad, aabhari hun aapki !!
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Surendra Chaturvedi
mukta ji lagu khatha na ye ansh marmik hai.Gita ji aapko bhi bhadhai
दिमाग की परतों को खोलती बढ़िया कथा का स्रजन किया है आपने!
मुक्त जी की सशक्त लघुकथा पढवाने का आभार
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 22 -09 - 2011 को यहाँ भी है
...नयी पुरानी हलचल में ...हर किसी के लिए ही दुआ मैं करूँ
गीता पंडित जी,
नमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगसपाट डाट काम" के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
सशक्त कहानी... साधा हुआ चित्रण...
सादर...
आह त्रासद ..कब पाएगी भारतीय औरत अपना घर...
प्रभावी कथा.
nari ki aaj bhi yahi sthiti hai...kuchh bhi apna kahne ko nahi.
sashakt shabd vinyas me bandhi sateek laghu katha ke liye badhayi.
हक्की-बक्की......
क्या यही है तरक्की ?
बहुत ही उत्कृष्ट लघु कथा.
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