Thursday, August 7, 2014

अंतराल कहानी...... स्वाति तिवारी की



पुरस्कृत कहानी जिसका आकाशवाणी इंदौर ने नाट्यरूपांतर किया था 

अंतराल
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धूप लगातार तेज हो रही थी। लू ऐसी चल रही थी, मानो धूल का गुबार उड़ाकर मनुष्य का मजाक उड़ाना चाहती हो! शायद वह चुनौती दे रही थी कि मगना देखती हूँ, तू तेज चलता है या मैं? पर बेचारा मगना कहाँ तेज चल पा रहा था! चलना तो चाहता था, पंख होते तो उड़कर और अकेला होता तो भागकर या बस के पीछे लगेज की सीढ़ियों पर लटककर कैसे भी अस्पताल पहुँच जाता। उँगली पकड़ा हुआ बच्चा और पीछे गठरी जैसा पेट लिए, कमर पर से खिसकते मरियल दुधमुँहे बच्चे को सँभालती लाजो चल रही है। बीमार, दर्द से कहकती, लाजो को साथ लेकर तो उसे धीरे-धीरे चलना पड़ेगा न! वह सोचने लगता है, 'लाजो को साथ लेकर तो वह जीवन भर चलना चाहता है, पर इस बार जाने क्यूँ, उसका मन शंकित है। उसे लग रहा है लाजो उसका साथ ज्यादा दिन तक नहीं दे पाएगी।' ऐसा विचार आते ही उसका चलना कठिन हो जाता है। मगना सिर को झटका देता है, जैसे झटकने से बात दिमाग से निकल ही जाएगी।
छः कोस दूर, डॉक्टरनी शहर में रहती है। गाँव के दवाखाने पर चार महीने से ताला पड़ा है। लाजो बतावे थी, 'डॉक्टरनी का तबादला होई गवा है और नरस बाई छुट्टी चली गई है। सरकार कागज पे तो कित्तेईज दवाखाने और स्कूल खोले है, पर ई सरकारी अस्पताल और स्कूल बस कागज पर ही चलत रही। डॉक्टरनी थी तो भी दवाई लेने शहर ही जाना पड़ता था, अब दोईन काम शहर में करत रहे।'
''रूको....कल्लू के बापू...मैं नहीं चलत सकूँ, तनिक रुको.....'' मगना पीछे पलटकर देखता है, लाजो सड़क किनारे कमर पकड़े बैठ गई है। बच्चे को उसने एक तरफ बैठा दिया है। मगना पलटकर दौड़ता हुआ आता है। एक नजर जमीन पर पड़ी बीमार गर्भवती लाजो पर डालता है तो दूसरी जमीन पर बैठे बच्चे पर। सूखे हाथ-पैर, पीला पड़ता रंग और निकला हुआ पेट। डॉक्टर साब कहते हैं, जाने क्या, लीवर का रोग है। ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। इधर लाजो फिर पेट से है। डॉक्टर कहता है, इसका भी ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। तीसरा बच्चा जल्दी पेट में आ गया, जान का खतरा है। क्या करे मगना! उसे क्या मालूम था, बच्चों के चक्कर में उसकी फूल-सी नाजुक लाजवंती यूँ बीमार हो तड़प-तड़प दिन काटेगी। पर क्या करे, सब भाग्य का खेल है।
वह सरपट आती कार रोकने की कोशिश करता है, पर ऐसे उसके भाग्य कहाँ। सर्र-सर्र सरसराती कई गाड़ियाँ दनादन चली गईं। ''कोई तो रुक जाओ.....रे..... मेरी लाजो मर जाएगी....गाड़ी रोको-रोको, रुको साब....साबजी गाड़ी रोक दो, मेरी औरत मर रही है, कोई मदद करो....उसको डॉक्टर के पास ले चलो...'' मगना बदहवास-सा दौड़ता रहा गाड़ियाँ रुकवाने। कभी लाजो के पास आता... ''बस हिम्मत रख....थोड़ा टेम तो लगता है, अभी करता हूँ कुछ....'' फिर भागता है....पर....कब तक.... ?
''चल लाजो, उठ मेरा हाथ पकड़, चलते हैं। पास ही में तो है डॉक्टरनी का दवाखाना।'' पर दर्द से तड़पती लाजो खड़ी होने की कोशिश करके फिर जमीन पर लोटने लगती है। मगना फूट-फूटकर रोने लगता है, पर इस मगरूर शहरी जीवन में गरीब की पुकार सुनता कौन है! गरीब का रोना उसका पागलपन है और बीमारी से तड़पना नाटक समझा जाता है, पैसे माँगने का। अचानक एक ताँगेवाला आकर रुकता है...गरीब पर दया तो गरीब को ही आती है।
''क्या हुआ इसे?'' ताँगेवाले ने पूछा।
''हुजूर, माँ बननेवाली है, बहुत दरद है, डॉक्टर बोली, दरद उठे तो ले आना...आपरेशन करना पड़ेगा। पर छः कोस की दूरी, चार कोस हम ले आवे, अब नहीं चल सकत ई....।''
''चल उठा ताँगे में डाल, ले चलते हैं।''
''हाँ हजूर, बस अभी डालत हैं।'' मगना लाजो को उठाने की कोशिश करता है, ''देख, हम बोले थे ना, भगवान बड़ा दयालु है।'' ताँगेवाला उसके बच्चों को उठाकर ताँगे में बैठा लेता है। मगना से लाजो की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी। बाँटने जैसा दुःख होता तो मगना कब का अकेला ही सारा ले लेता, पर...प्रसव की पीड़ा तो लाजो को अकेले ही झेलनी थी।
डॉक्टरनी के पते पर ताँगा रूकता है तो मगना राहत की साँस लेता है, ''देख लाजो, अस्पताल आई गवा। अब चिंता की कोन बात नाही है.....सब ठीक हो जाएगा।
भगवान बड़ा दयालु है.....लाजो.....।''
ताँगेवाला पता लगाता है, डॉक्टरनी साहेबा हैं या नहीं। पता लगा, नहीं हैं। पेशेण्ट देखने गई हैं। ताँगेवाला उससे किराया भी नहीं लेता, चला जाता है। मगना उसे दुआ देता है। दरवाजे पर लम्बी लाइन लगी है। बीमार महिलाओं और बच्चों की। आदमी भी खड़े हैं, साथ में आए होंगे। सोचता है, डॉक्टरनी के आते ही पहले वह लाजो को बता देगा। सबसे ज्यादा तो उसे ही तकलीफ है। पसीने से तर होती अपनी कमीज उतारता है वह और छाती से गंगा-जमना की तरह धारबंद बहते पसीने की लकीरें देखने लगता है। नर्स आकर चिल्लाती है, ''ये क्या तमाशा है, कपड़े पहनो, इतनी औरतों के सामने।''
पर मगना बिना बहस किए पसीने से तर कमीज फिर पहन लेता है। ऊपर देखता है, शायद बादल का कोई टुकड़ा बदली बन बरस जाए। जून की तपती दोपहर से कुछ तो राहत हो। डॉक्टर के दरवाजे पर लाइन लम्बी होती चली गई। लाजो को उसने लाइन में ही लिटा दिया था, जनाना वार्ड की डॉक्टर है। .
यहाँ पेशेण्ट को ही लाइन में लगना होता है, लाजो में लाइन में खड़े रहने या बैठने की ताकत ही कहाँ थी। लाइन में थोड़ी हलचल होती है। डॉक्टरनी साहेब आ गई हैं, वह दरवाजे पर देखता है। बड़ी सी सफेद कार में बैठकर डॉक्टरनी आई थीं। उतरीं तो मगना की तरह कुछ और लोग लपके, पहले देखने की विनती करने पर कुछ फायदा नहीं। आँखों पर काला चश्मा लगाए परियों सी सुंदर उस डॉक्टरनी ने ''नो....नो लाइन से आइए। लाइन से भेजना सिस्टर।'' कहकर क्लिनिक के केबिन में प्रवेश कर लिया था। मगना अपमानित-सा महसूस करता है, पर गरीब का क्या मान,क्या अपमान? डॉक्टरनी लाजो को ठीक कर दे, बस। वह तो सारी उमर डॉक्टरनी की गुलामी कर लेगा।
बड़ी डॉक्टरनी है। उसका नाम बहुत है, बड़ी डॉक्टरनी है। वह पास खड़े बीड़ी फूँक रहे आदमी से पूछता है, ''हाँ भैया, डाक्टर तो होशियार सुनी है।''
''अपनी नैया पार लगावे तो बात है'', वह मन-ही-मन बुदबुदाता है।
फिर सामने की तरफ देखता है। चार-पाँच पेशेण्ट निपट चुके थे। उसे अहसास होता है, लाजो को प्यास लगी होगी। भागदौड़ में वह भूल ही गया। झट से पोटली खोलता है। पीतल का गिलास निकालता है। टंकी से पानी का गिलास भरकर लाता है, तो बच्चे टुकर-टुकर देखते हैं। पहले वह बच्चों को पानी पिलाता है, फिर खुद पानी हलक में उड़ेलता है, तो अंतड़ियों में ठण्डा पानी राहत देता है। गिलास भरकर लाजो को देता है, पर उसमें उठने की ताकत भी नहीं बची है। वह अपनी बाँह पर लाजो की गर्दन को उठाता है, दो-चार घूँट पानी लाजो गुटकती है, फिर पोटली का तकिया लगा मगना उसे लिटा देता है।
दोपहर की धूप कलसाने लगती है। उसके आगे अभी चार पेशेण्ट और हैं। लाजो पर नजर पड़ती है। वह कातर .ष्टि से मगना को ही ताक रही थी। पेट और कमर कसकर पकड़े थी। बच्चे भूख से कुलबुलाने लगे थे। पास ही ठेलेवाला चना मुरमुरा बेच रहा था। वह जेब टटोलता है, पाँच का नोट फिर हाथ में आ जाता है। वह दो रुपये का मुरमुरा लेकर लौट आता है। दोनों बच्चे पुड़ियाँ खोल चुगने लगते हैं। सिस्टर की आवाज से मगना की तन्द्रा भंग होती है। ''लाजवंती बाई'' मगना लाजो के पास जा उठाने के लिए हाथ बढ़ाता है, ''चल उठ, आ गया नम्बर, चल डॉक्टरनी साब.....'' वह उठाने की कोशिश करता है। सिस्टर फिर आवाज लगाती है, ''लाजवंती बाई'' पर लाजो तो लुढ़क गई, उसके हाथ में, ''डाक्टर साहब देखो, जल्दी मेरी लाजो....।'' डॉक्टर शोर सुन बाहर आती है, ''अरे, ये तो मर गई। तुमने पहले बताया था। यही तो गलती करते हो तुम गाँववाले, चलो ले जाओ इसे।''
मगना का स्वर कातर हो सिसकियों में बदल जाता है। एक खालीपन तीव्रता से भरता जाता है। अस्पताल आए थे तब दो थे। दोनों ही बच्चों को थामे थे पर अब तीन को थामकर छह कोस मगना कैसे ले जाए, वह एक-एक कर तीनों को दवाखाने के बाहर सड़क पर लाता है। पोटली से लाजो का लुगड़ा निकाल लाजवंती की लाश की लाज बचाने उढ़ा देता है।
ताँगेवाला किसी राहगीर को छोड़ फिर उधर से गुजरता है, एक अंतराल के बाद। ताँगेवाले के जाने और आने के उस छोटे-से अंतराल के मध्य लाजो ने लम्बा अंतराल काटा था, जीवन और मृत्यु के बीच का। यह अंतराल अवधि में कितना ही छोटा या बड़ा क्यों न हो, यह घाव देता है, घाव को नासूर में बदल देता है। यह जीवन की अर्थहीनता पर हँसना या रोना सिखाता है। अमीर और गरीब के बीच का अंतराल गरीब की मजबूरी को परत-दर-परत उघाड़ देता है। उसे अपनी औकात का अहसास कराता है। बार-बार मगना ने डॉक्टर और गरीब पेशेण्ट के मध्य पसरे अंतराल को महसूस किया था। पहले 150 रुपये परामर्श शुल्क देने वाले बीमार देखे गए थे। पर्ची कटवानेवाले बाद में और निःशुल्क परामर्श वालों की लम्बी लाइन में लगी थी लाजो। प्रतीक्षा के उस अंतराल को पाटा था मृत्यु ने।
मगना फिर ताँगे में लाजो को पटकता है।
''चलो भैया, हिम्मत रखो! छोटे-छोटे बच्चे हैं, ईश्वर बड़ा दयालु है, वही इन बच्चों को सबूरी देगा।'' ताँगेवाला उसे ढांढस देने लगता है।



प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार 
https://www.facebook.com/groups/718888254792711/permalink/896340030380865/

Saturday, August 2, 2014

बिंदा ......महादेवी वर्मा






भीत-सी आँखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा - 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी', सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गई होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला - 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विंध्येश्वरी के धुँधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा - ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।

बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अंतर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गंभीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊँगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मर कर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली माँ की कल्पना मेरी बुद्धि में कहाँ ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती-सीढ़ियों के नीचे वाली अँधेरी कोठरी में आँख मूँदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे निःसहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी-छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दुखद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कंधे से चिपकाए और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अतः मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।

और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा 'नई अम्मा' कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले काँच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से सँवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिंदूर उनींदी-सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।

यह सब तो ठीक था; पर उनका व्यवहार विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुँह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रँभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी; परंतु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है या आऊँ', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा', 'अभागी मरती भी नहीं', आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।

कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आँगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाड़ू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था; क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असंभव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूँजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दुख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - 'क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है?' माँ ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पाई।

बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परंतु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बंद चिड़िया की याद दिलाती थीं।

एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा - 'वह रही मेरी अम्मा', तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिए और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा - 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डाँटेंगी।'

बिंदा को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बंद पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अतः किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।

पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अतः उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनयपूर्वक कहा - 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।' माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पाई थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो, पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बंद हो जाएगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।

बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दंड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खंभे से दिन-दिन भर बँधा पाया था और भूश से मुरझाए मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दंड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दंड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रुलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।

और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उँगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि-सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए हृदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्यमय हो उठा।

उसे मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खंड में माँ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाए और दोनों ठंडे हाथों से मेरा हाथ दबाए ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।

मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा, 'क्या सबेरा हो गया?'

माँ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष संदेशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।

फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आँगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्रायः कुछ अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रुकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आँख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खंड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धँस गई थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गई। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खंड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।

फिर तो बिंदा को दुखना संभव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा उल्लंघन से माँ बहुत चिंतित हो उठी थीं।

एक दिन सबेरे ही रुकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बंद कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रुकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परंतु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरुद्ध पड़ता था। अतः खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएँगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिंत्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।

कई दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गई। उस दिन से मैं प्रायः चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूँढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?

तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है?
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प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार 
(हिंदी समय से)



Monday, July 28, 2014

कहानी ईदगाह,,,,,प्रेमचंद

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  प्रेमचंद
(कहानी ईदगा)
मोहसिन—:अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा।
हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है?
सम्मी—तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?
महमूद—हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहसिन बदमाश है।
हामिद—मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
मोहसिन—लेकिन दिल में कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
महमूद—सब समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाएँगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।

मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाएँगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मा बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आएँ और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।

हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाएँ मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराएँगे और मार खाएँगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहैंगी—मेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा? बड़ों का दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभी न कभी आएँगे। अम्मा भी आएँगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछा—यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा—तुम्हारे काम का नहीं है जी!
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छ: पैसे लगेंगे।‘
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!
मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जाएँ बचा की।
महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है?
हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाएँ, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नही कर सकते मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
सम्मी ने खंजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला—मेरी खंजरी से बदलोगे? दो आने की है।

हामिद ने खंजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खंजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।

चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हैं, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुंचने की जल्दी हो रही हे। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जाएँ, जो मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाएँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।

मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जोर लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाएँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा—हमें पकड़ने कौन आएगा?
नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला।
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।

उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जाएँगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।

महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज़ पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
इस तर्क ने सम्मी औरनूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही हे पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धांधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।

बात कुछ बनी नही। खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।

विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभाविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाएँगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?

संधि की शर्ते तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा—जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमार भिश्ती लेकर देखो।
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए।
हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे—मैं तुम्हें चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
मोहसिन—लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?
महमूद—दुआ को लिए फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मां जरूर कहैंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?

हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस रुपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमे—हिन्द हे और सभी खिलौनों का बादशाह।

रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिए। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद था।

ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दोनों खुब रोए। उसकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाए।

मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूटियाँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में ख़स की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।

अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चले वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बंदूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।

महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता हे। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफ़ा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।

अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
‘यह चिमटा कहाँ था?’
‘मैंने मोल लिया है।‘
‘कै पैसे में?
‘तीन पैसे दिये।‘
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’
हामिद ने अपराधी-भाव से कहा—तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया।

बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया।

और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!
………



प्रेषिता
गीता पंडित

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  • गीता पंडित

नामवर सिंह जी के जन्मदिन पर उन्हीं की कुछ कवितायेँ ..... नामवर सिंह






...
.......


कभी जब याद आ जाते

नयन को घेर लेते घन,
स्वयं में रह न पाता मन
लहर से मूक अधरों पर
व्यथा बनती मधुर सिहरन ।

न दुःख मिलता, न सुख मिलता
न जाने प्रान क्या पाते ।

तुम्हारा प्यार बन सावन,
बरसता याद के रसकन
कि पाकर मोतियों का धन
उमड़ पड़ते नयन निर्धन  ।

विरह की घाटियों में भी
मिलन के मेघ मंडराते ।

झुका-सा प्रान का अम्बर,
स्वयं ही सिन्धु बन-बनकर
ह्रदय की रिक्तता भरता
उठा शत कल्पना जलधर ।

ह्रदय-सर रिक्त रह जाता
नयन घट किन्तु भर आते ।

कभी जब याद आ जाते ।
........




नभ के नीले सूनेपन में
हैं टूट रहे बरसे बादर
जाने क्यों टूट रहा है तन !

बन में चिड़ियों के चलने से
हैं टूट रहे पत्ते चरमर
जाने क्यों टूट रहा है मन !

घर के बर्तन की खन-खन में
हैं टूट रहे दुपहर के स्वर
जाने कैसा लगता जीवन !
.........





दोस्त, देखते हो जो तुम अंतर्विरोध-सा
मेरी कविता कविता में, वह दृष्टि दोष है ।
यहाँ एक ही सत्य सहस्र शब्दों में विकसा
रूप रूप में ढला एक ही नाम, तोष है ।

एक बार जो लगी आग, है वही तो हँसी
कभी, कभी आँसू, ललकार कभी, बस चुप्पी ।
मुझे नहीं चिंता वह केवल निजी या किसी
जन समूह की है, जब सागर में है कुप्पी

मुक्त मेघ की, भरी ढली फिर भरी निरंतर ।
मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भर कर
मुझे उठाएगा सहस्र कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाहें ही स्वर शर भास्वर

मुझ में ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को ही भर लेंगे ।
.........




बुरा ज़माना, बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी तो शिकवा
नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा

गंध हो गई मानव की मानव को दुस्सह ।
शिकवा मुझ को है ज़रूर लेकिन वह तुम से—
तुम से जो मनुष्य होकर भी गुम-सुम से
पड़े कोसते हो बस अपने युग को रह-रह

कोसेगा तुम को अतीत, कोसेगा भावी
वर्तमान के मेधा ! बड़े भाग से तुम को
मानव-जय का अंतिम युद्ध मिला है चमको
ओ सहस्र जन-पद-निर्मित चिर-पथ के दावी !

तोड़ अद्रि का वक्ष क्षुद्र तृण ने ललकारा
बद्ध गर्भ के अर्भक ने है तुम्हें पुकारा ।
........




पथ में साँझ
पहाड़ियाँ ऊपर
पीछे अँके झरने का पुकारना ।

सीकरों की मेहराब की छाँव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना ।

एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना ।

याद है : चूड़ी की टूक से चाँद पै
तैरती आँख में आँख का ढारना ?
……





प्रेषिका 
गीता पंडित 

(कविता कोश  से साभार )




Tuesday, July 22, 2014

नवगीत की समर्पित हस्ताक्षर - गीता पंडित ....... नरेंद्र दुबे

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नवगीत की समर्पित हस्ताक्षर - गीता पंडित हिंदी नवगीत विधा में एक समर्थ और समर्पित नाम है -गीता पंडित। पूर्व में ' मौन पलों का स्पंदन ' और 'अब और नहीं बस ' जैसे बेहतर नवगीत संग्रह समाज को समर्पित कर चुकी गीता जी का नया नवगीत संकलन ' लकीरों के आर - पार ' हमारे सामने है। स्व का विस्तार लोक तक पहुँचाने में कवियत्री सफल रही है। गीता के गीतों में काव्य संस्कार , परंपरा बोध ,सरस बयानी ,और गरुङ दृष्टि अभिव्यक्त होती है। जग की पीड़ा को शब्द देना उनका मकसद है -' हरेक मन की पीड़ा गाकर / पीड़ा में / मुस्काती हूँ /…पीर भरी मैं पाती कोई / गीत से मन सहलाती हूँ /' संकलन के सारे गीत बेहतर रवानी देते है ,वे समय और परिवेश को बेवाकी से अभिव्यक्त करती है। बहुत दिनों बाद उम्दा नव गीत पढ़ने मिले। जिनने अंतर्मन को छुआ। शलभ प्रकाशन दिल्ली ने सुन्दर आवरण और सुरुचि पूर्ण संयोजन के साथ पुस्तक प्रकाशन किया है। गीता पंडित जी को सुन्दर सृजन के लिए बधाई और मंगलकामना है वे उत्तरोत्तर साहित्य को समृद्ध करती रहे। - नरेंद्र दुबे

मन और समय को शब्द देते गीता के नवगीत 
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                गीत से नवगीत की यात्रा में एक और समर्थ एवं समर्पित नाम जुड़ा है- गीता पंडित का। पूर्व में मन तुम हरी दूब रहना’ काव्य संग्रह और मौन पलों का स्पंदन’ जैसा बेहतर नवगीत संग्रह समाज को समर्पित कर चुकी गीता पंडित का नया नवगीत संकलन लकीरों के आर-पार’ हमारे सामने है। इस संग्रह के नवगीत अपनी चेतना में समयसमाज और परिवेश को गहरी संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। गीत विधाकाव्य में परम्परा का नाम है और नवगीतपरम्परा के साथ प्रगतिशील चेतना का उन्नयन। गीता पंडित का काव्य सृजन भी इसी भाव-धारा का है। वे जड़ों से जुड़ाव भी रखती हैं और आधुनिकता में प्रगति के सोपानों पर चढ़ने में गुरेज नहीं रखतीं। संकलन में उनके गीतों के पट खोलेउसके पूर्व एक खाली पृष्ठ पर माँ वीणा-पाणी का गरुड़ आरूढ़ छोटा सा चित्र है और कोई शब्द नहीं। यह चित्र ही गीता पंडित के काव्य संस्कारपरम्परा बोधसरस बयानी और  गरुड़ दृष्टि को अभिव्यक्त कर देता है।

                कवयित्री के मन-मानस में नवगीत इस तरह रचा-बसा है कि वह आमुख में भी अपनी बात गद्य की ठेठ भाषा में न कहकर गद्य-काव्य की सरसता में पाठक से कहती है। कृतज्ञता से लबरेज गीता पंडित ने अपनी इस कृति को नवगीत सृजन की प्रेरणा देने वाली साहित्यकार पूर्णिमा वर्मन को समर्पित किया है। सुश्री व्र्मन ने ही इस संग्रह की सुन्दर और यथेष्ठ भूमिका लिखी है। उन्होंने बगैर किसी बौद्धिक लगा-लपेट के गीता के काव्य व्यक्तित्व और सृजन धर्मिता पर कम शब्दों में अर्थपूर्ण बात कह दी है।

                जब सृजन-यात्रा में अनुभूति की सच्चाई और लोक की पीड़ा को शब्द दिए जाते हैं तो रचना समय और परिवेश को व्यक्त करने लगती है और रचनाकर्म अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। गीता पंडित की रचना धर्मिता में सामाजिक सरोकारों की प्रधानता है। जग की पीड़ा को शब्द देना ही उनका अभीष्ट है- हरेक मन की पीड़ा गाकर / पीड़ा में/मुस्काती हूँ।...पीर भरी मैं पाती कोई / गीत से मन/सहलाती हूँ। संकलन के सारे गीत बेहतर रवानी देते है ,वे समय और परिवेश को बेबाकी से अभिव्यक्त करती हैं। बहुत दिनों बाद उम्दा नव गीत पढ़ने को मिले। जिन्होंने अंतर्मन को छुआ।                 

लकीरों के आर-पार’ की पहली कविता ही ये कैसा बंटवारा’ हमारी व्यवस्था एवं समाज में व्याप्त अन्याय एवं असमानता पर करारा प्रहार है। गीत का बिम्ब काली पट्टी बंधी आँख पर / दिखता नहीं नजारा / ये कैसा बंटवारा ’ महाभारत से लेकर आज के भारत तक का दृश्य सामने ला देता है। आँख पर काली पट्टी अँधे राजा धृतराष्ट्र की रानी गांधारी और आधुनिक न्याय की देवी दोनों का चित्र उपस्थित कर देती है। यानी अन्याय का सिलसिला पुराना है। दरअसल यहां मेहनतकश श्रमिक की पीड़ा बयान की है। एक अन्य कविता में किसान की हकीकत को भी यूं कहा है-जो जीवन देने की खातिर / अपना रक्त / बहाता है / क्या मिलता है उसको जग में / यूं ही वो / ढह जाता है 

                गीता जी को नये वर्ष का आगमन हमेशा उत्साहित करता है और वे उल्लास और आशा भरी भावनाएं पाठकों को समर्पित करती हैं। नये साल पर उनकी एकाधिक कविताएं हैं। नई आस / विश्वास आस्था ’ के पथ पर नयी रश्मियों से मुलाकात कराती हैं। कवयित्री जीवन में उजास की पक्षधर हैं। वे पाठक को मृत्यु के दर्शन से भी अवगत कराती हैं-आपाधापी चहूँ ओर है / अफरा-तफरी भारी / जाने कब / किसकी हो जाये / मृत्यु याचिका जारी ’ साथ ही फिर दिन फिरेंगे’ में आस का दीपक भी जला देती हैं।  वक्त को शब्द देता रचनाकार सामाजिक विद्रूपताओं से कैसे किनारा कर सकता है। गीता जी ने तकनीक और नए चलन के कारण दूर होते अच्छे जीवन पर भी चिन्ता व्यक्त की है-

कुंज गली वो नेह की बतियाँ / रास रंग सब खोया / प्रगति सारी कम्प्यूटर में / नेह कहां जा सोया 

                कवयित्री ने आजादी के लिए अपनी जान लुटाने वाले शहीदों को याद कर नई पीढ़ी को आगाह किया है-करें प्रण आज हम फिर से / ना भूलेंगे वो कुर्बानी / कि जिसके वास्ते / देखो लहू हमने बहाया है ’ हिंसा और आतंक के दौर में गांधी दर्शन की प्रासंगिकता का जिक्र है-

गांधी की करनी-कथनी की / समता को हम भूल गये / प्रेम अहिंसा / के धागों को / तोड़ कहां पर झूल रहे  

                समीक्ष्य संकलन की रचनाओं में विषय वैविध्य है और जिंदगी के हर पहलू पर कवयित्री की नजर है। महानगरीय जीवन में रिश्तों के खालीपन को उन्होंने शिद्दत से महसूस किया है और वृद्धाश्रमों में जा रहे बुजुर्गों को देख वे कराह उठती हैं। वे कहती हैं-

एक फ्लैट में / सिमट रहा है / सारा जहां अजाना / रिश्तों की चूड़ी टूटी है / घाव करे मनमाना ’ 

गीता जी के नवगीतों में प्रेम-सौंदर्य की सदानीरा बहती है तो रूहानी अंदाज भी है। सपनों की / आदत खराब है / सांकल नहीं बजाते/’ इस गीत में कजरी-चैती गाती  सखियां उन्हें याद आती हैं। मन से टूटे लोगों को वह यूं आस बंधाती हैं-

प्रेम कहां / कब बूढ़ा होता / फिर से गायें गीत प्रेम के 

                मन की व्यथा बांचने और समय की गति नापने में कवयित्री निष्णात है। वे अपनी खो गई कविता के बावत कहती हैं- कोसों दूर / चली है मन से / मस्तक के हैं स्वर आलापे / दिल की बस्ती / है बंजारन / कैसे मन की जगति नापे ’ गीता पंडित के समीक्ष्य संकलन की बानगी के रूप में यदि केवल एक गीत पढ़ना हो तो वह है-मन की खूंटी टंगे हुए हैं। इस नवगीत में घरपरिवारसमाज और परिवेश सब कुछ समाहित है और उनकी अपनी सृजन क्षमता भी। गीत में समाहार देती हैं कि प्रेम बिना / निस्सार है जीवन / किसको ये सिखलायें 

                समग्र रूप से कहें तो समीक्ष्य संकलन के अधिकांश गीत भाषा सौष्ठवशब्द प्रयोगबिम्ब विधान और शिल्प की दृष्टि से बेहतर पायदान पर खड़े हैं। उनकी रचनाओं में कृत्रिमता नहीं है। वे शहर में रहकर गांवकस्बों की बात नहीं करतीं। जो देखा भोगा उसे अभिव्यक्त किया है। हांदो-एक गीतों में एक बात खटकती है कि कवयित्री जिस तरह गीत में उठान लेती हैं और आगे तक उसका निर्वाह भी करती हैंउस तरह उपसंहार की बेला में सरसता नहीं रह पाती। थोड़ी सी चूक सुधरेगी तो उन गीतों में भी भाव संप्रेषण उम्दा होगा।

                रचना से रचनाकार को जानना किसी काव्य-व्यक्तित्व को जानने की श्रेष्ठ विधि है। लकीरों के आर-पार’ के नवगीतों से गुजरने के बाद बेहिचक कह सकते हैं कि गीता पंडित परिपक्व और काव्य संभावनाओं से ओतप्रोत रचनाकार है। उनकी कहन और भाव बोध उम्दा है। भाषा की सादगी और सरलता के कारण उनके नवगीतों में संप्रेषणीयता हैजो उन्हें सार्थकता देती है।

शलभ प्रकाशन दिल्ली ने सुन्दर आवरण और सुरुचि पूर्ण संयोजन के साथ पुस्तक का प्रकाशन किया है। गीता पंडित जी को सुन्दर सृजन के लिए बधाई और मंगलकामना है वे उत्तरोत्तर साहित्य को समृद्ध करती रहें |                 

मेरा विश्वास है उनकी रचनाएं हिन्दी काव्य जगत में सहर्ष समादृत होंगी।
                                                                                                                                                                                                                                                                नरेन्द्र दुबे
                                                   गार्ड लाइन दमोह म.प्र.                                                                                                                                                                                                                                                                                                               
                                                                                                                                                                                                                                                                                                  
लकीरों के आर-पार’  
गीता पंडित ,
शलभ प्रकाशनदिल्ली
210 रुपये ,
 मो. 9810534442

Monday, June 23, 2014

कोमल राग का कवि (केदारनाथ सिंह) ... सम्पादकीय जनसत्ता 23 जून, 2014


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जनसत्ता 23 जून, 2014 : केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा उचित ही उनके काव्य की उत्कृष्टता का सम्मान है। इसलिए नहीं कि वे हिंदी के वरिष्ठतम कवि हैं, बल्कि इसलिए कि भारतीय कविता को उनका अवदान अनूठा है। ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति ने अपने बयान में ठीक कहा है कि केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में जनपदीय चेतना के लिए जाने जाते हैं; वे कविता में आधुनिकता के साथ-साथ गीतात्मकता, प्रकृति और मनुष्य के बहुआयामी संबंधों को बड़ी सहजता से प्रस्तुत करने के लिए चर्चित हैं। हालांकि केदारनाथ सिंह की कविताओं की ताकत सिर्फ उनकी जनपदीय चेतना या गीतात्मकता नहीं है। कथ्य, भाषा और बिंबों का जैसा टटका, चमकीला और देर तक अंकित रहने वाला प्रभाव उनकी कविता छोड़ जाती है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। भाषा और कथ्य की सहजता उनकी कविता की लोकप्रियता का सबसे बड़ा तत्त्व है। वे कविता जनपदीय ताने-बाने में बुनते जरूर हैं, पर इस तरह देश और दुनिया के जितने बड़े हिस्से को छेंक लेते हैं, वही उनकी असली ताकत है। कभी वे शीतलहरी में आग तापते बूढ़ों की प्रार्थना में मनुष्यता के सामने उपस्थित हो गई एक बुनियादी समस्या को चुपके से रख देते हैं और कभी कुदाल जैसे निपट गंवई उपकरण को महानगर में एक चुनौती की तरह पेश कर देते हैं या टूटे हुए खड़े ट्रक पर चढ़ती घास को बदलाव की उम्मीद की तरह परोस देते हैं। यह कौशल उनकी कविता में सहजता के समांतर एक साथ कई अर्थ-छायाएं भर देता है। 

केदारनाथ सिंह की उपस्थिति नई कविता आंदोलन के साथ बनी। ‘तीसरा सप्तक’ में संकलित होकर। उसके बाद से हिंदी कविता ने अपने को काफी बदला। कई धाराएं फूटींं, कई नए स्वर उभरे। उनके साथ अनेक लोगों ने अपनी दिशा बदली। केदारजी अपनी राह चलते और अपने को बदलते हुए भी समकालीनता की किसी रूढ़ि से नहीं बंधे। यह अकारण नहीं है कि जिन दिनों कविता में शोर अधिक था, केदारजी लगभग चुप नजर आए। उनकी कविता अपने आसपास के रंगों से मानवीय दुनिया का चित्र उकेरती है। उसमें जीवन के जरूरी कोमल तंतु हैं। इसलिए उसके स्वर भी बहुत कोमल, मद्धिम और उत्फुल्ल हैं। वह कहीं भी बेवजह मुखर नहीं होती। मगर ऐसा नहीं कि केदारजी की कविताओं में एकरसता है, बदलते जमाने के मुताबिक उनमें बदलाव नहीं है। उनके कविता संग्रहों के शीर्षक खुद उनकी कविताओं में बदलाव की गवाही देते हैं। उनमें समय-बोध बिंबों और जीवन की सहज लय में रच-बस कर उतरता है। उनमें भोजपुरी के शब्द अनायास उतर आते हैं, गांव की स्मृतियां बार-बार कौंधती हैं; वहां की नदियां, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, नाच-गान, संगी-साथी एक नई व्यंजना के साथ उपस्थित होते हैं; साथ ही बड़े आहिस्ते वैश्विक चेतना भी टिमटिमाती रहती है। बेशक वे अपने गांव के बरगद के कटने की घटना लोककथा के रूप में प्रस्तुत करते हैं, पर वहीं वह पेड़ दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच चिंता और संवाद का विषय बन जाता है। उनकी मां का भोजपुरी के सिवा कोई और भाषा न बोल पाना केवल व्यक्तिगत नहीं, वैश्विक समस्या बन जाता है। भोजपुरी के लोकप्रिय नाट्यकर्मी भिखारी ठाकुर बदलते सांस्कृतिक परिवेश में प्रश्नवाचक प्रेक्षक की तरह नमूदार हो जाते हैं।

ऐसे प्रसंगों और बिंबों के साथ जहां केदारजी ग्रामीण अनुगूंजों को ले आते हैं, वहीं शहर की विसंगतियों पर अंगुली उठाते हैं। गांव के साथ उनकी कविता का रिश्ता निरा नॉस्टेल्जिया नहीं, मनुष्य और प्रकृति के तादात्म्य को रेखांकित करने और मानवीय संबंधों में उष्ण रागात्मकता को बचाए रखने की कोशिश है। इस तरह उन्होंने अपने बिंब-विधान, भाषा और कथ्य की प्रभावशीलता से हमारे समय की न सिर्फ  हिंदी की, बल्कि  पूरी भारतीय काव्यात्मक चेतना को आकर्षित-प्रेरित किया। उनका सम्मान जीवन के कोमल पक्षों को बचाए रखने की जुगत का सम्मान है। 




प्रेषिका 
गीता पंडित