Friday, September 4, 2020

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 दुःख शायद इसी को कहते है ( स्त्री) __

तुम्हें जानने के लिए 
फैला दीं बाहें 
उतार फेंके लाज के वस्त्र
उतरना चाहा 
पूरा का पूरा तुम्हारे भीतर 
लेकिन तुम 
अपनी ही यात्रा में मग्न 
दुहराते जा रहे हो स्वयं को


मैं ऐसे ही भौचक खड़ी 
देखती हूँ तुम्हें 
और सोचती हूँ 


तुम्हारी ही मॉस-मज्जा से बनी 
मैं कैसे हो गई अभूली गाथा 
तुम्हारे लिए


दुःख 
शायद इसी को कहते हैं |


(गीता पंडित)
24 अगस्त 2017
मेरे कविता संग्रह ( शिखंडी समय में ) से