Monday, June 23, 2014

कोमल राग का कवि (केदारनाथ सिंह) ... सम्पादकीय जनसत्ता 23 जून, 2014


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जनसत्ता 23 जून, 2014 : केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा उचित ही उनके काव्य की उत्कृष्टता का सम्मान है। इसलिए नहीं कि वे हिंदी के वरिष्ठतम कवि हैं, बल्कि इसलिए कि भारतीय कविता को उनका अवदान अनूठा है। ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति ने अपने बयान में ठीक कहा है कि केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में जनपदीय चेतना के लिए जाने जाते हैं; वे कविता में आधुनिकता के साथ-साथ गीतात्मकता, प्रकृति और मनुष्य के बहुआयामी संबंधों को बड़ी सहजता से प्रस्तुत करने के लिए चर्चित हैं। हालांकि केदारनाथ सिंह की कविताओं की ताकत सिर्फ उनकी जनपदीय चेतना या गीतात्मकता नहीं है। कथ्य, भाषा और बिंबों का जैसा टटका, चमकीला और देर तक अंकित रहने वाला प्रभाव उनकी कविता छोड़ जाती है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। भाषा और कथ्य की सहजता उनकी कविता की लोकप्रियता का सबसे बड़ा तत्त्व है। वे कविता जनपदीय ताने-बाने में बुनते जरूर हैं, पर इस तरह देश और दुनिया के जितने बड़े हिस्से को छेंक लेते हैं, वही उनकी असली ताकत है। कभी वे शीतलहरी में आग तापते बूढ़ों की प्रार्थना में मनुष्यता के सामने उपस्थित हो गई एक बुनियादी समस्या को चुपके से रख देते हैं और कभी कुदाल जैसे निपट गंवई उपकरण को महानगर में एक चुनौती की तरह पेश कर देते हैं या टूटे हुए खड़े ट्रक पर चढ़ती घास को बदलाव की उम्मीद की तरह परोस देते हैं। यह कौशल उनकी कविता में सहजता के समांतर एक साथ कई अर्थ-छायाएं भर देता है। 

केदारनाथ सिंह की उपस्थिति नई कविता आंदोलन के साथ बनी। ‘तीसरा सप्तक’ में संकलित होकर। उसके बाद से हिंदी कविता ने अपने को काफी बदला। कई धाराएं फूटींं, कई नए स्वर उभरे। उनके साथ अनेक लोगों ने अपनी दिशा बदली। केदारजी अपनी राह चलते और अपने को बदलते हुए भी समकालीनता की किसी रूढ़ि से नहीं बंधे। यह अकारण नहीं है कि जिन दिनों कविता में शोर अधिक था, केदारजी लगभग चुप नजर आए। उनकी कविता अपने आसपास के रंगों से मानवीय दुनिया का चित्र उकेरती है। उसमें जीवन के जरूरी कोमल तंतु हैं। इसलिए उसके स्वर भी बहुत कोमल, मद्धिम और उत्फुल्ल हैं। वह कहीं भी बेवजह मुखर नहीं होती। मगर ऐसा नहीं कि केदारजी की कविताओं में एकरसता है, बदलते जमाने के मुताबिक उनमें बदलाव नहीं है। उनके कविता संग्रहों के शीर्षक खुद उनकी कविताओं में बदलाव की गवाही देते हैं। उनमें समय-बोध बिंबों और जीवन की सहज लय में रच-बस कर उतरता है। उनमें भोजपुरी के शब्द अनायास उतर आते हैं, गांव की स्मृतियां बार-बार कौंधती हैं; वहां की नदियां, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, नाच-गान, संगी-साथी एक नई व्यंजना के साथ उपस्थित होते हैं; साथ ही बड़े आहिस्ते वैश्विक चेतना भी टिमटिमाती रहती है। बेशक वे अपने गांव के बरगद के कटने की घटना लोककथा के रूप में प्रस्तुत करते हैं, पर वहीं वह पेड़ दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच चिंता और संवाद का विषय बन जाता है। उनकी मां का भोजपुरी के सिवा कोई और भाषा न बोल पाना केवल व्यक्तिगत नहीं, वैश्विक समस्या बन जाता है। भोजपुरी के लोकप्रिय नाट्यकर्मी भिखारी ठाकुर बदलते सांस्कृतिक परिवेश में प्रश्नवाचक प्रेक्षक की तरह नमूदार हो जाते हैं।

ऐसे प्रसंगों और बिंबों के साथ जहां केदारजी ग्रामीण अनुगूंजों को ले आते हैं, वहीं शहर की विसंगतियों पर अंगुली उठाते हैं। गांव के साथ उनकी कविता का रिश्ता निरा नॉस्टेल्जिया नहीं, मनुष्य और प्रकृति के तादात्म्य को रेखांकित करने और मानवीय संबंधों में उष्ण रागात्मकता को बचाए रखने की कोशिश है। इस तरह उन्होंने अपने बिंब-विधान, भाषा और कथ्य की प्रभावशीलता से हमारे समय की न सिर्फ  हिंदी की, बल्कि  पूरी भारतीय काव्यात्मक चेतना को आकर्षित-प्रेरित किया। उनका सम्मान जीवन के कोमल पक्षों को बचाए रखने की जुगत का सम्मान है। 




प्रेषिका 
गीता पंडित