Sunday, January 29, 2012

दो कवितायें ...... माया मृग .( कि जीवन ठहर ना जाये" काव्य संग्रह से )

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नदी फिर नहीं बोली __


नदी पहली बार 
तब बोली थी 
जब तुम्हारी नाव
उसका पक्ष चीरकर
सुदूर बढती गई थी,
लहरों ने उठ-उठ विरोध दर्शाया
पर तुम्हारे मज़बूत हाथों में थे
चप्पुओं ने विरोध नहीं माना,तब तुमने
लौह का, विशाल दैत्य-सा
घरघराता जहाज उसकी छाती पर उतार दिया,
तुमने खूब रौंदा
उसकी कोमल देह को।
लहरों के हाथ
दुहाई में उठे पर
तुमने नहीं सुना।
फिर कितने ही युद्धपोत
कितने ही जंगी बेड़े
इसके अंग-अंग में बसा
इसकी देहयष्टि को
अखाड़ा बना, क्रूर होकर
पूछा तुमने, 
बोलो!क्या कहती हो?
नदी नहीं बोली
नदी फिर कभी नहीं बोली ।

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स्त्री पूजन __

आंखों में सपने मत पालो
हाथों में उम्‍मीद मत थामो
पैरों से मंजिल का रास्‍ता मत नापो
दिल से महसूस मत करो
जुबान से सवाल मत करो
होठों पर हंसी ना आने पाये
देह में कामना न रहे
दिमाग में मुक्ति का विचार ना हो
तुम खुश रहो स्‍त्री 
यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यते
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प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार (कविता कोष)



Wednesday, January 18, 2012

अपराधिनी ( एक लघुकथा ) ...... गीता पंडित


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मी लार्ड ! अपराध किया है मैंने , स्वीकार करती हूँ।

अपराधी हूँ, मुझे सज़ा दीजिये वो भी ऐसी, जिसे सुनकर आने वाली नारी पीढ़ी की रूह तक कंपकंपा जाए और भविष्य में ऐसा अपराध करने से पहले कोई भी स्त्री असंख्य बार सोचे।

सम्भ्रान्त परिवार में जन्मी। संस्कार घुट्टी में पिलाए गए, माता-पिता सर्वोच्च संस्था थे और उसके कथन सर्वदा सत्य।  जीवन यज्ञ में उतरी थी सो कलावे की तरह बाँध लिए ये शब्द मन में।

समय बढ़ता गया।  बचपन वैसा व्यतीत हुआ जैसा माता-पिता चाहते थे लेकिन यौवन की अपनी इच्छायें थीं।  अपने सपने थे  जो मन-मस्तिष्क की दहलीज़ पर आकर माथा टेकने लगे।  पढ़कर कुछ कर गुजरने की आकांक्षा मन-आकाश में पींगे लेने लगी।


पर स्त्री का मन क्या होता है ? क्या होती है उसकी चाहत, उसके सपने, उसकी इच्छाएं ?
मी लार्ड ! अंतत: हुआ वही जो एक संस्कारी बेटी से अपेक्षा की जाती है।

'लड़की है विज्ञान पढ़कर क्या करेगी / पढ़ना ही है तो गृह-विज्ञान पढ़ ले '

और न चाहते हुए भी वही शिक्षा मैंने प्राप्त की जिसे मेरे माता-पिता चाहते थे।

मी लॉर्ड ! यह मेरा पहला अपराध था जानबूझकर स्वयं को नकारने का।  दोषी हूँ।

दूसरा अपराध मेरा और भी भयानक है सचमुच बेड़ियों में जकड़े जाने के लिए पर्याप्त है और यह अपराध मैंने तब किया जब अपने सपनों को उन्हीं संस्कारों की बलि चढ़ाते हुए , असमय और बिना अपनी सहमति के निरीह भेड़  बकरी की तरह विवाह बंधन में बंध गयी।

सच कहूं विरोध करती तो आ-संस्कारी और निर्लज्ज कहलाती।
हाँ दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अपने मन का हास किया ।  मी लॉर्ड यही मेरा दूसरा अपराध था।

और तीसरा अपराध और भी जघन्य।- माता-पिता की तरह सास-ससुर की इच्छाओं को भी शिरोधार्य करके किया -
'तुम नौकरी करके क्या करोगी ? पैसे की आवश्यकता हो तो कहो । नहीं कर पायी नौकरी भी।
आत्म-निर्भरता तो दूर आत्म-चैतन्यता भी खो बैठी ।
मी लॉर्ड ! दोषी तो मैं ही हूँ ना।

माँ बन गयी । सच कहूँ तो आज बीस वर्ष के बेटे की माँ कहलाकर प्रसन्न हूँ लेकिन इस प्रसन्नता का बोझ मेरे यानी एक संस्कारी स्त्री के काँधे सम्भाल नहीं पा रहे हैं । कारण तो आपके सामने है -
आज खड़ी हूँ उम्र के इस पड़ाव पर  जहाँ मेरे पति को मुझसे तलाक़ चाहिए क्योंकि उन्हें किसी दूसरी स्त्री स प्यार हो गया है ।
मी लॉर्ड ! यह मेरा तीसरा अपराध था।

एक अपराध और भी है जो अक्षम्य है।

आस्था प्रेम और विशवास का दीप जलाए हमेशा चलती रही आँधियों के विपरीत लेकिन आज ना लड़ पायी उस पल से जिसने मुझे और मेरे आत्म-सम्मान को भरे बाजार नीलाम कर दिया।

मी लॉर्ड ! मेरे जैसे अपराधी को कब तक खुला छोड़ेंगे । सज़ा दीजिये मुझे प्लीज़ सज़ा दीजिये।

वाह!! उचित है।  मेरे जैसी स्त्री के साथ होना भी यही चाहिए था।

'द्रोपदी का चीर - हरण सब ने सुना लेकिन आत्म - हरण या स्वाभिमान - हरण किसने सुना और किसने समझा।
जो स्त्री परिवार के लिए पूर्ण समर्पित होकर अपने आप को भी भूल जाए , ये तो पागलपन हुआ ना मी लॉर्ड ! और पागलों के लिए इस सभ्य - संस्कारी समाज में कोई  जगह नहीं।

एक बात और , दिला दीजिये तलाक मी लॉर्ड! लेकिन वो ना दिलाइये जिसे मेरे नाते-रिश्तेदार , मेरे वकील चाहते है मासिक-भत्ते या जायदाद के कुछ हिस्से के रूप में।
मुझे कतई स्वीकार नहीं .... नहीं !!!!!!!!  नहीं !!!!

अब और अपराध नहीं , बिलकुल नहीं।
मैं इस सभ्य-सुसंस्कृत समाज के लायक नहीं हूँ।
प्लीज़ पगली डिक्लेयर करके मुझे पागलखाने भेज दीजिये मी लॉर्ड !!!!!!!

गीता पंडित

 ( 2008 )



Monday, January 9, 2012

डॉ अलका सिंह का आलेख ...अशोक कुमार पाण्डेय के आलेख . ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान '' पर.





आज फुर्सत में 'अशोक कुमार पाण्डेय 'का आलेख ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान '' बहुत ध्यान से पढ़ा. पढ़कर अच्छा लगा कि किसी ने मेरे लिखे एक आलेख को गंभीरता से पढ़ा गंम्भीरता से लिए लिया और उसपर गंभीरता से लिखकर बाइज्ज़त टैग भी किया. इसलिए अशोक जी की मैं ह्रदय से आभारी हूँ. किंतु इस आलेख को पढने के बाद मेरा स्त्री मन थोडा सोच में है. सोच में इसलिये क्योंकि अशोक कुमार पाण्डेय लिखते हैं कि ''देवताले की स्त्री विषयक कविताओं पर बात करने से पहले मैं दो बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ – पहली यह एक पुरुष की कविताएँ हैं और उन्हें कभी परकाया प्रवेश की ज़रूरत महसूस नहीं होती. दूसरी बात जो बहुत जोर देकर पाण्डेय जी कहते हैं कि '' ये एक कृतग्य और भावुक पारिवारिक कवि की कविताएँ हैं. ''


कुछ और वक्तव्य हैं जो जिसे रेखंकित करना मैं जरूरी समझती हूँ - 


1. ''हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श के प्रवेश के पहले ही देवताले और रघुवीर सहाय जैसे कवियों की कविताओं में स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है.'' 


2. ''महिलाओं का श्रम और उसकी उपेक्षा देवताले की कविताओं में बार-बार आते हैं. और शायद इसीलिए स्त्रियों के प्रति वह एक गहरे कृतज्ञता के भाव से भरे हुए हैं. ''

3. ''जैसा कि मैंने पहले कहा कि ये एक पुरुष की कविताएँ हैं. इनमें स्त्री के उस श्रम के प्रति एक करुणा और एक क्षोभ तो है, लेकिन इससे आगे जाकर स्त्री को चूल्हे-चौकी से आजादी दिलाने की ज़िद नहीं. जहाँ औरत आती है वहाँ सुस्वादु भोजन मन से खिलाती हुई (माँ के सन्दर्भ में और फिर पत्नी के सन्दर्भ में भी इन कविताओं में स्नेह से भोजन परसने के दृश्य आते हैं) औरत सामने आती है. उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.''


मैं आज इन वक्तव्यों को समझने की कोशिश में उलझ गयी सी हूँ. उलझ इसलिये गयी हूँ क्योंकि मेरा स्त्री मन अब पुरुष कविता को नये सिरे से समझने को बेताब है क्योंकि आज तक जो भी लिखा और पढा गया है उसे 90 प्रतिशत पुरुष् ने ही लिखा है. स्त्री ने भी उस लिखे को बहुत सहज़ रूप से एक पाठक की तरह ना केवल पढा है बल्कि उसे सहज़ता से स्वीकार कर दाद भी दी है. आप अगर पूरा भारतीय साहित्य देखें तो पायेंगे कि आज तक किसी भी साहित्य के अन्दर स्त्री के मुह से जो कुछ कहलवाय भी गया है वो भी पुरुष रचित ही है 90 प्रतिशत. तो फिर ‘’यह एक पुरुष की कविताएँ हैं’’ इस वक्तव्य को मैं कैसे और किस रूप में देखूँ ? कैसे समझूँ इसे ? क्या इसे मैं एक पुरुष का अब तक के पुरुष लेखन का गौरव बोध की तरह देखूँ है (इसे एक तरह का अभिमान भी कह सकते हैं)? या कवि चन्द्र्कांत देवताले के एक बचाव पक्ष के वकील की तरह इस बयान को देखूँ ? या फिर एक पुरुष कवि के एक बेहद इमानदार कथन की तरह देखूँ? बहुत से सवाल हैं जो मन को विचलित भी कर रहे हैं और सोचने पर मजबूर भी क्योंकि यह कथन किसी एक कवि या सहित्यकार पर लागू नहीं होती. यह एक ऐसा कथन है जिसपर हिन्दी साहित्य और उसकी आलोचना का अब तक का सारा खाका पलट सकता है. यह कथन कबीर से लेकर अब तक के सभी कवियों को एक नये सिरे से समझने और सोचने को भी प्रेरित करता है. 




सच कहूँ तो मेरा स्त्री मन जैसे विचलित भी है और बहुत उद्धत है कि सम्पूर्ण सहित्य कम से कम हिन्दी साहित्य को एक बार स्त्री की नज़र से विवेचित करूँ और सबके सामने रखूँ. हलांकि अशोक कुमार पाण्डेय की मैं शुक्रगुजार हूँ कि पहली बार किसी पुरुष कवि ने किसी कवि पर चर्चा के दौरान् कहा है कि उसकी कवितायें एक पुरुष की कविताएँ हैं. कह्कर ये साफ तो कर दिया कि पुरुष लेखन की भी एक सीमा है और उसपर भी वैसे सवाल खडे किये जा सकते हैं जैसे कुछ दिनो पहले निरंजन शोत्रिय ने स्त्री रचनाकारों को लेकर खडा किया था कि स्त्री लेखन चुल्हे चौके से आगे नहीं बढ पाया है. 

मेरे मन में इस कथन को लेकर जो पहला बोध हुआ या कहें की जो पहली शंका उठी की कहीं पुरुष लेखन के गौरवबोध का वक्तव्य तो नहीं है वह तब थोडा कमजोर लगता है जब मैं अशोक कुमार पांडेय जी को व्यक्तिगत स्तर पर लेकर सोचती हूँ किंतु जैसे ही मैं पुरुष के सामूहिक वक्तव्य के रूप में इसे देखती हूँ मुझे अपनी शंका निर्मूल नहीं लगती. ( इस आलेख पर हुई चर्चा के दौरान अन्य कवि लेखकों की आम सहमति और समर्थन के बाद ऐसा ही लगता है. आप देखें गीता पंडित को छोड्कर किसी ने पुरुष लेखन के इस कठन पर कोई टीका तिप्प्णी नहीं की) यह बात निरजन श्रोत्रिय और कई अन्य मित्रों की वाल पर स्त्री लेखन के सम्बन्ध में हुई चर्चा से जाहिर होता रहा है. तो इस कथन को लिखते समय यदि यह भाव ना भी रहा हो लेकिन इस कथन ने इस भाव को भी स्वतह ही रेखंकित किया है. इसके समर्थन में कई बडे लेखकों कवियों के वक्तव्य को देखा जा सकता है. 

तो क्या यह कथन कवि चन्द्र्कांत देवताले के एक बचाव में था? यकीनन यह बचाव ही था. न केवल यह कथन बल्कि पूरा आलेख ही उनके सम्रर्थन और बचाव में था. आप उपर दिये सभी वक्तव्यों को इस सन्दर्भ में देख सकते हैं. कुछ शब्द देखें जो कवि की पुरजोर वकालत करते हैं. सबसे पहले शीर्षक्- ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान में कृतज और आख्यान , स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है में . आदमकद और फिर पुरजोर बचाव कि - . उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.''

किंतु इसके साथ ही भले बचाव में कहा गया किंतु मुझे यह एक इमानदार कथन भी लगता है. इसके साथ साथ यह भी मह्सूस होता है कि पुरुष ने अपनी सीमा को स्वीकारना आरम्भ कर दिया है. क्योंकि जिस सन्दर्भ और जिस अन्दाज़ में पुरुष कविता हैकि बात कही गयी है वो बात अंत्तत: न केवल चन्द्र्कांत देवताले अपितु सभी कवियों खास कर चन्द्र्कांत देवताले और उनके सम्कालीन कवियों पर लागू होगी. 

अब बात ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान ‘’ में कृतज्ञता की. यह पूरा वक्तव्य मुझे झकझोर देता है. मजबूर करता है कि मैं ना केवल चन्द्रकांत देवताले की कविता को समझूँ बल्कि उनके पूरे दौर से भी गुजरूँ. मजबूर करता है कि उनकी कविता को स्त्री के भाव से एक बार पढ्कर देखूँ. सबसे पहले बात चन्द्र्कांत देवताले जी के दौर की फिर उनकी कविताओं की. 




अगर विकिपीडिया की माने तो चंद्रकांत देवताले क़ा जन्म सन १९३६ में हुआ था. यानि 2011 के पार अब वह 75 साल के हो गये. मतलब यह कि देवताले जी ने इस देश के कम से कम 50 सालों के इतिहास् को पूरे होश में देखा परखा और जाना है. मसलन जब होश संभाला होगा तो आज़ादी की लड़ाई और गान्धी जी का समय थोडा बहुत देखा होगा फिर , देश का बटवारा, नेहरू का शासन फिर इन्दिरा के शासन से लेकर जयप्रकाश आन्दोलन, मंडल आन्दोलन तथा आज तक की स्थिति से वो निरंतर अवगत रहे होंगे. नारी अन्दोलन से भी क्योंकि यह देव्ताले जी की युवा अवस्था का समय था जब नारी अन्दोलन त में सुग्बुगा रह था और कमला भसीन जैसी महिलायें लोग अपनी बात बात बडी शिद्द्त् से रख रही थीं. उस सुग्बुगाहट की आंच हिन्दी कविता और और उसके कवियों को छू न पायी यह बडा सवाल होगा हिन्दी कविता पर. बहरहाल हम जैसे लोग उस पूरे दौर और उसकी आंच की तलाश पुरुष कविता में अवश्य करने की कोशिश करेंगे क्योंकि यह पुरुष कविता पर स्त्री की समीक्षा होगी. और देवताले जी उस दौर के यदि प्रमुख हस्ताक्षर हैं तो इस मुल्ललिक्क उनकी कविताओं की पड्ताल भी जरूर होगी और सवाल उठेंगे ही. 



जैसा कि देवताले जी को जानने वाले जानते हैं कि वो न केवल भावुक कवि हैं बल्कि बेहद सजग और जागृत कवि हैं यही करण है कि उनकी रचनाओं में स्त्री और उसके जीवन का चित्रण बहुतायत में मिलता है. पर मुझे यहाँ कुछ कहना है वो ये कि जिस कविता का सन्दर्भ अशोक जी ने दिया है वह कविता मुझे किसी कृतज्ञता का आभास नहीं कराती.- 


पर घर आते ही जोरू पर
तुम टूट पड़ते हो बाज की तरह
मर्द, बास्साह, ठाकुर बन तन जाते हो
अपने माँस के लोथड़ों खातिर
आदमी बनने में भी शर्म आती है
मूंछें शायद इससे ही कट जाती हैं

कन्हैया, मोती, मांगू,उदयराम
अपनी जोरू अपने बच्चे
क्यों तुमको दुश्मन लगते हैं?

मुझे लगता है कि यह निश्चय ही एक पुरुष कविता है जो पुरुष, पुरुष की मन:स्थिति उसके तौर तरीके और अक्सर परिवार के प्रति एक खास वर्ग के पुरुष के रवैये ( वैसे थोडे पोलाइट रूप में यह सब हर पुरुष का रवैया होता है शायद) को बयान करती है. यहां मैं इस कविता की विवेचना में नहीं जाउंगी किंतु इतना दावे से कह सकती हूँ कि मुझ स्त्री को इस कविता में न तो स्त्री दिखती है ना ही कृतज्ञता. किंतु अशोक कहते हैं कि – ‘’इस विडंबना की पहचान देवताले जैसा संवेदनशील पारिवारिक कवि ही कर सकता है.’’ तो क्या इसे एक पुरुष कविता की पुरुष समीक्षा मानूँ? 



एक अन्य कविता जिसका जिकर अशोक ने किया है वो है ‘औरत’ निसन्देह यह एक अच्छी कविता है. उसे पढ्कर यह भान होता है कि हमारे समय के कुछ पुरुष इस बात को स्वीकार करते हैं कि स्त्री की हालत अच्छी नहीं है, यह स्वीकार करते हैं कि स्त्री की आज भी कोई पहचान नहीं .......... और भी बहुत सी स्थितियों को स्वीकार करता है किंतु इस तरह की सोच और स्वीकारोक्ति को क्या कृतज्ञता की परिभाषा के अंतर्गत रखा जाना चाहिये? क्या यह वास्तव में कृतज्ञता की ही श्रेणी में ही आता है ? यदि हाँ तो क्यों? क्या महज़ इसलिये कि उसने औरत की एक स्थिति का चित्रण किया है ? मेरा स्त्री मन यह स्वीकार नहीं करता बल्कि इस युग के पुरुष से बहुत सी अपेक्षायें रखता है और चाहता है कि वह सिर्फ चित्रण ही ना करे वह चूल्हे को बांट्ने के लिये हाथ् भी बढाये, औरत को उस स्थिति से निकालेने की जिद भी करे और उसका हाथ पक्ड उसे बाहर तक लाये भी. 

पर मेरे एक कवि मित्र कहते हैं कि 75 के व्यक्ति से आप इससे ज्यादा की क्या उम्मीद कर सकती हैं. मैं बडी सोच में पड जाती हूँ इस तरह के वक्तव्यों पर. कभी कभी मन होता है पूछूँ कि क्या चन्द्रकांत जी जैसे और उनके सम्कालीन कवियों ने लिखना छोड दिया है? या फिर वो इस दौर की उथल पुथल और बदलाव को सकरात्मक नज़रिये से नहीं देखते. अगर देखते हैं तो उन्होने यह भी जरूर देखा होगा कि स्त्री बोल रही है, देखा होगा कि स्त्री लिख रही है, पढा होगा कि वो क्या कह रही है फिर उनकी कवितओं में यह क्यों नही होता कि – आओ बाट लेंगे जिन्दगी के दुख – दर्द, क्यों नहीं होती ये जिद कि- कुछ तुम बदलो कुछ हम, क्यों नहीं पलट जाती दुनिया कि सुस्वादु कुछ मैं बनाऊँ आज ? 

यदि कवि कर्म में कहीं समाज के प्रति कोई नज़रिया है और स्त्री को लेकर रचनायें हैं तो यह बात तो होनी ही चाहिये. अगर नहीं है तो अपने सम्कालीन कवियत्रिओं को हिकारत की नज़र से न देखकर कि वो चूल्हा चौका ही लिखती है को गम्भीरता से देखकर तो कम से कम लिखा ही जाना चहिये यदि सम्वेदंशीलता और पारिवारिकता की भी बात् की जाये क्योंकि भोजन बनाना भी एक पारिवारिक कर्म है और वह पट्टे की तरह स्त्री के खाते में लिख दिया जाता है तो क्या पुरुष कवि इस बात से डरता है कि गर स्त्री के साथ बाँट्ने की इक्छा जाहिर कि तो कहीं ये जिन्न उसके सर न आ जाये? 

रही बात मेरे पिछले आलेख में उठाये गये सवालों की तो वो यथावत वहीं खडे हैं क्योंकि जिन कविताओं को आधार बनकर मैने सवाल उठाये थे वह भी देवताले जी की ही कविताओं की पंक्तियां हैं. एक पुरुष रचना!!!!1 


देखें - 


1. सचमुच मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से 
नहीं सोचता कभी कोई बात जुल्म और ज्यादती के बारे में अगर नही होती प्रेम करने वाली कोई औरत इस पृथ्वी पर 
स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है 



2. ‘’ये उंगलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं 
और एक थके – मांदे पस्त आदमी को 
हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देती हैं’’ 



3. तुम्हारे एक स्तन से आकाश 
दूसरे से समुद्र आंखों से रोशनी 
तुम्हारी वेणी से बहता 
बसंत प्रपात 
जीवन तुम्हारी धडकनो से 
मैं जुगनू 
चमकता 
तम्हारी अन्धेरी 
नाभी के पास


हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श फिर कभी 




........................................ डा. अलका सिंह

Tuesday, January 3, 2012

नव-वर्ष के नाम नेह की .... गीता पंडित ( आज मेरा एक नवगीत मेरे आने वाले संग्रह से )


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नव - वर्ष के नाम नेह की
देख वसीयत कर जाएँ |

किरण चढी जो 
चौबारे पर
तल में आकर अब वो देखे
हाँडी चूल्हे 
पर रखी है
दाल बिना ये कैसे लेखे

कम्पित हैं तन कम्पित हैं मन
अँखियों में 
सपने कब खेले
कचरे में क्या बीन रहे हैं
कहाँ खिलौने 
के वो मेले

विगत हुआ उसको जाने दें
देख नया कुछ कर जाएँ |

बहुत हुए 
विस्फोट नेह के
नयनों में बहता है सागर
कहीं कांपती 
देह धरा की
बाढ़ सुनामी है मन गागर

कहीं कमल की पाँखुरियों पर
अब भी सूरज 
धधक रहा है
वहीं देख दुश्शासन को अब 
चिड़िया का मन 
दहक रहा है

दर्पण का मन हो ना मैला
मन सुरभी भरकर जाएँ 
नव - वर्ष के नाम नेह की
देख वसीयत कर जाएँ |


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गीता पंडित 
(मेरे आने वाले संग्रह से )