Wednesday, April 27, 2011

"उमराव जान" ... प्रभात पाण्डेय

फ़िल्म उपन्यास और फिर कविता संग्रह "  उमराव जान "  पर .....कोइ तो बात होगी उस व्यक्तित्व की जो चुम्बक की तरह  संवेदनाओं को अपने आँचल से बाँध लेती है " प्रभात पाण्डेय " का " उमराव जान "  कविता संग्रह एक लंबी कविता है जो एक अलग दृष्टिकोण से उसे देखता है , दुखी होता है और आज के परिप्रेक्ष्य में जब उस चरित्र को रखता है तो कुछ इस तरह कहता है____

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अतीत तो हमेशा -हमेशा ही दूर...
          बहुत दूर...
फिर भी पास-पास ही
बालू के  घरौंदे गढता
उछलता-कूदता
नाचता-गाता-गुनगुनाता
कभी दरिया के इस पार
कभी दरिया के उस पार|
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तुम्हारी कब्र पर जाकर
मैं उदास नहीं हुआ
खुश भी नहीं
चुपचाप देखता रहा
नहर का पानी
जिसका बहाव रुका-रुका
और
झुका-झुका हरसिंगार
तुम्हारे सिरहाने

……...
तनिक सच-सच बतलाना तो उमराव जान
क्या तुम्हें प्यास नहीं लगा करती इन दिनों 

.............

इसी लक्ष्मण टीले पर
रुका था लक्ष्मण का रथ
झंझावातों के बीच..
गंगा का फूट-फूट कर रोना
लहरों का टूट-टूट कर बिखरना
बिलखना बूँद-बूँद घटाओं का
बिलखना पेड़-पौधों-लताओं का
क्या धरती - क्या आकाश
व्याकुल-विह्वल बाहुपाश
सीता की खातिर
सब उदास
सब उदास

.......….

तुमने देखा तो उमराव जान
हतप्रभ सब के सब
अम्बपाली ने जब
नगरवधू होना तो स्वीकारा
पर वज्जीसंघ के रिवाज को सरेआम धिक्कारा |
उसके अंग-अंग कम्पन
रूप-यौवन पर यह कैसा बंधन
कैसा गणराज्य
कैसी सरकार
कहलाये जो नगरवधू
वहीँ बीच बाजार |

............
और फिर
तनिक करीब जब हुआ तुम्हारी कब्र के
बांध टूट से गए तमाम सब्र के
देखा वहां तो
महज पत्थरों का था हुजूम
चुपचाप उनके नीचे दबी पड़ी थी तुम
जिस्म दाहिना तुम्हारा
उस पर से वो सड़क
या खुदा!
दिल तुम्हारा कभी रहा था धड़क ।
पूछा तो
कुछ न बोला
सिरहाने का हरसिंगार
शाखों से टपका दिए उसने
फूल दो-चार ।

..........

धर्म और मज़हब की बात
ये   उनकी बात है
पर जीने का हक़ औरत का
नहीं खैरात है | |



साभार  "उमराव जान"  से
(कविता संग्रह प्रभात पाण्डेय)


प्रेषक
गीता पंडित