Thursday, August 7, 2014

अंतराल कहानी...... स्वाति तिवारी की



पुरस्कृत कहानी जिसका आकाशवाणी इंदौर ने नाट्यरूपांतर किया था 

अंतराल
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धूप लगातार तेज हो रही थी। लू ऐसी चल रही थी, मानो धूल का गुबार उड़ाकर मनुष्य का मजाक उड़ाना चाहती हो! शायद वह चुनौती दे रही थी कि मगना देखती हूँ, तू तेज चलता है या मैं? पर बेचारा मगना कहाँ तेज चल पा रहा था! चलना तो चाहता था, पंख होते तो उड़कर और अकेला होता तो भागकर या बस के पीछे लगेज की सीढ़ियों पर लटककर कैसे भी अस्पताल पहुँच जाता। उँगली पकड़ा हुआ बच्चा और पीछे गठरी जैसा पेट लिए, कमर पर से खिसकते मरियल दुधमुँहे बच्चे को सँभालती लाजो चल रही है। बीमार, दर्द से कहकती, लाजो को साथ लेकर तो उसे धीरे-धीरे चलना पड़ेगा न! वह सोचने लगता है, 'लाजो को साथ लेकर तो वह जीवन भर चलना चाहता है, पर इस बार जाने क्यूँ, उसका मन शंकित है। उसे लग रहा है लाजो उसका साथ ज्यादा दिन तक नहीं दे पाएगी।' ऐसा विचार आते ही उसका चलना कठिन हो जाता है। मगना सिर को झटका देता है, जैसे झटकने से बात दिमाग से निकल ही जाएगी।
छः कोस दूर, डॉक्टरनी शहर में रहती है। गाँव के दवाखाने पर चार महीने से ताला पड़ा है। लाजो बतावे थी, 'डॉक्टरनी का तबादला होई गवा है और नरस बाई छुट्टी चली गई है। सरकार कागज पे तो कित्तेईज दवाखाने और स्कूल खोले है, पर ई सरकारी अस्पताल और स्कूल बस कागज पर ही चलत रही। डॉक्टरनी थी तो भी दवाई लेने शहर ही जाना पड़ता था, अब दोईन काम शहर में करत रहे।'
''रूको....कल्लू के बापू...मैं नहीं चलत सकूँ, तनिक रुको.....'' मगना पीछे पलटकर देखता है, लाजो सड़क किनारे कमर पकड़े बैठ गई है। बच्चे को उसने एक तरफ बैठा दिया है। मगना पलटकर दौड़ता हुआ आता है। एक नजर जमीन पर पड़ी बीमार गर्भवती लाजो पर डालता है तो दूसरी जमीन पर बैठे बच्चे पर। सूखे हाथ-पैर, पीला पड़ता रंग और निकला हुआ पेट। डॉक्टर साब कहते हैं, जाने क्या, लीवर का रोग है। ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। इधर लाजो फिर पेट से है। डॉक्टर कहता है, इसका भी ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। तीसरा बच्चा जल्दी पेट में आ गया, जान का खतरा है। क्या करे मगना! उसे क्या मालूम था, बच्चों के चक्कर में उसकी फूल-सी नाजुक लाजवंती यूँ बीमार हो तड़प-तड़प दिन काटेगी। पर क्या करे, सब भाग्य का खेल है।
वह सरपट आती कार रोकने की कोशिश करता है, पर ऐसे उसके भाग्य कहाँ। सर्र-सर्र सरसराती कई गाड़ियाँ दनादन चली गईं। ''कोई तो रुक जाओ.....रे..... मेरी लाजो मर जाएगी....गाड़ी रोको-रोको, रुको साब....साबजी गाड़ी रोक दो, मेरी औरत मर रही है, कोई मदद करो....उसको डॉक्टर के पास ले चलो...'' मगना बदहवास-सा दौड़ता रहा गाड़ियाँ रुकवाने। कभी लाजो के पास आता... ''बस हिम्मत रख....थोड़ा टेम तो लगता है, अभी करता हूँ कुछ....'' फिर भागता है....पर....कब तक.... ?
''चल लाजो, उठ मेरा हाथ पकड़, चलते हैं। पास ही में तो है डॉक्टरनी का दवाखाना।'' पर दर्द से तड़पती लाजो खड़ी होने की कोशिश करके फिर जमीन पर लोटने लगती है। मगना फूट-फूटकर रोने लगता है, पर इस मगरूर शहरी जीवन में गरीब की पुकार सुनता कौन है! गरीब का रोना उसका पागलपन है और बीमारी से तड़पना नाटक समझा जाता है, पैसे माँगने का। अचानक एक ताँगेवाला आकर रुकता है...गरीब पर दया तो गरीब को ही आती है।
''क्या हुआ इसे?'' ताँगेवाले ने पूछा।
''हुजूर, माँ बननेवाली है, बहुत दरद है, डॉक्टर बोली, दरद उठे तो ले आना...आपरेशन करना पड़ेगा। पर छः कोस की दूरी, चार कोस हम ले आवे, अब नहीं चल सकत ई....।''
''चल उठा ताँगे में डाल, ले चलते हैं।''
''हाँ हजूर, बस अभी डालत हैं।'' मगना लाजो को उठाने की कोशिश करता है, ''देख, हम बोले थे ना, भगवान बड़ा दयालु है।'' ताँगेवाला उसके बच्चों को उठाकर ताँगे में बैठा लेता है। मगना से लाजो की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी। बाँटने जैसा दुःख होता तो मगना कब का अकेला ही सारा ले लेता, पर...प्रसव की पीड़ा तो लाजो को अकेले ही झेलनी थी।
डॉक्टरनी के पते पर ताँगा रूकता है तो मगना राहत की साँस लेता है, ''देख लाजो, अस्पताल आई गवा। अब चिंता की कोन बात नाही है.....सब ठीक हो जाएगा।
भगवान बड़ा दयालु है.....लाजो.....।''
ताँगेवाला पता लगाता है, डॉक्टरनी साहेबा हैं या नहीं। पता लगा, नहीं हैं। पेशेण्ट देखने गई हैं। ताँगेवाला उससे किराया भी नहीं लेता, चला जाता है। मगना उसे दुआ देता है। दरवाजे पर लम्बी लाइन लगी है। बीमार महिलाओं और बच्चों की। आदमी भी खड़े हैं, साथ में आए होंगे। सोचता है, डॉक्टरनी के आते ही पहले वह लाजो को बता देगा। सबसे ज्यादा तो उसे ही तकलीफ है। पसीने से तर होती अपनी कमीज उतारता है वह और छाती से गंगा-जमना की तरह धारबंद बहते पसीने की लकीरें देखने लगता है। नर्स आकर चिल्लाती है, ''ये क्या तमाशा है, कपड़े पहनो, इतनी औरतों के सामने।''
पर मगना बिना बहस किए पसीने से तर कमीज फिर पहन लेता है। ऊपर देखता है, शायद बादल का कोई टुकड़ा बदली बन बरस जाए। जून की तपती दोपहर से कुछ तो राहत हो। डॉक्टर के दरवाजे पर लाइन लम्बी होती चली गई। लाजो को उसने लाइन में ही लिटा दिया था, जनाना वार्ड की डॉक्टर है। .
यहाँ पेशेण्ट को ही लाइन में लगना होता है, लाजो में लाइन में खड़े रहने या बैठने की ताकत ही कहाँ थी। लाइन में थोड़ी हलचल होती है। डॉक्टरनी साहेब आ गई हैं, वह दरवाजे पर देखता है। बड़ी सी सफेद कार में बैठकर डॉक्टरनी आई थीं। उतरीं तो मगना की तरह कुछ और लोग लपके, पहले देखने की विनती करने पर कुछ फायदा नहीं। आँखों पर काला चश्मा लगाए परियों सी सुंदर उस डॉक्टरनी ने ''नो....नो लाइन से आइए। लाइन से भेजना सिस्टर।'' कहकर क्लिनिक के केबिन में प्रवेश कर लिया था। मगना अपमानित-सा महसूस करता है, पर गरीब का क्या मान,क्या अपमान? डॉक्टरनी लाजो को ठीक कर दे, बस। वह तो सारी उमर डॉक्टरनी की गुलामी कर लेगा।
बड़ी डॉक्टरनी है। उसका नाम बहुत है, बड़ी डॉक्टरनी है। वह पास खड़े बीड़ी फूँक रहे आदमी से पूछता है, ''हाँ भैया, डाक्टर तो होशियार सुनी है।''
''अपनी नैया पार लगावे तो बात है'', वह मन-ही-मन बुदबुदाता है।
फिर सामने की तरफ देखता है। चार-पाँच पेशेण्ट निपट चुके थे। उसे अहसास होता है, लाजो को प्यास लगी होगी। भागदौड़ में वह भूल ही गया। झट से पोटली खोलता है। पीतल का गिलास निकालता है। टंकी से पानी का गिलास भरकर लाता है, तो बच्चे टुकर-टुकर देखते हैं। पहले वह बच्चों को पानी पिलाता है, फिर खुद पानी हलक में उड़ेलता है, तो अंतड़ियों में ठण्डा पानी राहत देता है। गिलास भरकर लाजो को देता है, पर उसमें उठने की ताकत भी नहीं बची है। वह अपनी बाँह पर लाजो की गर्दन को उठाता है, दो-चार घूँट पानी लाजो गुटकती है, फिर पोटली का तकिया लगा मगना उसे लिटा देता है।
दोपहर की धूप कलसाने लगती है। उसके आगे अभी चार पेशेण्ट और हैं। लाजो पर नजर पड़ती है। वह कातर .ष्टि से मगना को ही ताक रही थी। पेट और कमर कसकर पकड़े थी। बच्चे भूख से कुलबुलाने लगे थे। पास ही ठेलेवाला चना मुरमुरा बेच रहा था। वह जेब टटोलता है, पाँच का नोट फिर हाथ में आ जाता है। वह दो रुपये का मुरमुरा लेकर लौट आता है। दोनों बच्चे पुड़ियाँ खोल चुगने लगते हैं। सिस्टर की आवाज से मगना की तन्द्रा भंग होती है। ''लाजवंती बाई'' मगना लाजो के पास जा उठाने के लिए हाथ बढ़ाता है, ''चल उठ, आ गया नम्बर, चल डॉक्टरनी साब.....'' वह उठाने की कोशिश करता है। सिस्टर फिर आवाज लगाती है, ''लाजवंती बाई'' पर लाजो तो लुढ़क गई, उसके हाथ में, ''डाक्टर साहब देखो, जल्दी मेरी लाजो....।'' डॉक्टर शोर सुन बाहर आती है, ''अरे, ये तो मर गई। तुमने पहले बताया था। यही तो गलती करते हो तुम गाँववाले, चलो ले जाओ इसे।''
मगना का स्वर कातर हो सिसकियों में बदल जाता है। एक खालीपन तीव्रता से भरता जाता है। अस्पताल आए थे तब दो थे। दोनों ही बच्चों को थामे थे पर अब तीन को थामकर छह कोस मगना कैसे ले जाए, वह एक-एक कर तीनों को दवाखाने के बाहर सड़क पर लाता है। पोटली से लाजो का लुगड़ा निकाल लाजवंती की लाश की लाज बचाने उढ़ा देता है।
ताँगेवाला किसी राहगीर को छोड़ फिर उधर से गुजरता है, एक अंतराल के बाद। ताँगेवाले के जाने और आने के उस छोटे-से अंतराल के मध्य लाजो ने लम्बा अंतराल काटा था, जीवन और मृत्यु के बीच का। यह अंतराल अवधि में कितना ही छोटा या बड़ा क्यों न हो, यह घाव देता है, घाव को नासूर में बदल देता है। यह जीवन की अर्थहीनता पर हँसना या रोना सिखाता है। अमीर और गरीब के बीच का अंतराल गरीब की मजबूरी को परत-दर-परत उघाड़ देता है। उसे अपनी औकात का अहसास कराता है। बार-बार मगना ने डॉक्टर और गरीब पेशेण्ट के मध्य पसरे अंतराल को महसूस किया था। पहले 150 रुपये परामर्श शुल्क देने वाले बीमार देखे गए थे। पर्ची कटवानेवाले बाद में और निःशुल्क परामर्श वालों की लम्बी लाइन में लगी थी लाजो। प्रतीक्षा के उस अंतराल को पाटा था मृत्यु ने।
मगना फिर ताँगे में लाजो को पटकता है।
''चलो भैया, हिम्मत रखो! छोटे-छोटे बच्चे हैं, ईश्वर बड़ा दयालु है, वही इन बच्चों को सबूरी देगा।'' ताँगेवाला उसे ढांढस देने लगता है।



प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार 
https://www.facebook.com/groups/718888254792711/permalink/896340030380865/

Saturday, August 2, 2014

बिंदा ......महादेवी वर्मा






भीत-सी आँखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा - 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी', सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गई होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला - 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विंध्येश्वरी के धुँधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा - ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।

बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अंतर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गंभीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊँगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मर कर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली माँ की कल्पना मेरी बुद्धि में कहाँ ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती-सीढ़ियों के नीचे वाली अँधेरी कोठरी में आँख मूँदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे निःसहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी-छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दुखद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कंधे से चिपकाए और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अतः मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।

और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा 'नई अम्मा' कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले काँच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से सँवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिंदूर उनींदी-सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।

यह सब तो ठीक था; पर उनका व्यवहार विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुँह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रँभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी; परंतु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है या आऊँ', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा', 'अभागी मरती भी नहीं', आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।

कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आँगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाड़ू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था; क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असंभव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूँजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दुख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - 'क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है?' माँ ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पाई।

बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परंतु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बंद चिड़िया की याद दिलाती थीं।

एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा - 'वह रही मेरी अम्मा', तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिए और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा - 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डाँटेंगी।'

बिंदा को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बंद पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अतः किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।

पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अतः उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनयपूर्वक कहा - 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।' माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पाई थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो, पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बंद हो जाएगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।

बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दंड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खंभे से दिन-दिन भर बँधा पाया था और भूश से मुरझाए मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दंड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दंड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रुलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।

और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उँगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि-सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए हृदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्यमय हो उठा।

उसे मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खंड में माँ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाए और दोनों ठंडे हाथों से मेरा हाथ दबाए ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।

मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा, 'क्या सबेरा हो गया?'

माँ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष संदेशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।

फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आँगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्रायः कुछ अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रुकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आँख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खंड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धँस गई थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गई। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खंड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।

फिर तो बिंदा को दुखना संभव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा उल्लंघन से माँ बहुत चिंतित हो उठी थीं।

एक दिन सबेरे ही रुकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बंद कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रुकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परंतु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरुद्ध पड़ता था। अतः खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएँगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिंत्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।

कई दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गई। उस दिन से मैं प्रायः चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूँढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?

तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है?
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प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार 
(हिंदी समय से)