Friday, March 23, 2012

नमन स्वरूप ...तुम्हें कैसे याद करूँ भगत सिंह?.. अशोक कुमार पाण्डेय की एक कविता .

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तुम्हें कैसे याद करूँ भगत सिंह?

जिन कारखानों में उगता था
तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज
वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती ह
ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत
कि कांपी तक नही जबान
सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते

अभी एक सदी भी नही गुज़री
और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी
कि पूरी एक पीढी
जी रही है ज़हर के सहारे

तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने
तुम जिन्हें दे गए थे
एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब
सजाकर रख दी है उन्होंने
घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं

तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल
जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडो के साथ

सब बैचेन हैं
तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को
तुम्हारी घूरती आँखें डराती हैं उन्हें
और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं

अवतार बनाने की होड़ में भरे जा रहे हैं
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे
रंग रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है

मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल ?
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह ?
जबकि जानता हूँ
तुम्हे याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है

कौन सा ख्वाब दूँ मै अपनी बेटी की आंखों में ?
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ उसके सिरहाने ?

जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते ...
हिन्दुस्तान बन गया है 


प्रेषिका 
गीता पंडित 
साभार


5 ·  · 

Tuesday, March 13, 2012

पाँच कवितायें .... सुमन केशरी

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औरत ___


रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटियाँ रख कर
हथेली से आँखों को छाया देते हुए
…औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया ।

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बहाने से जीवन जीती है औरत ___


बहाने से जीवन जीती है औरत 
थकने पर सिलाई-बुनाई का बहाना 
नाज बीनने और मटर छीलने का बहाना 
आँखें मूँद कुछ देर माला जपने का बहाना 
रामायण और भागवत सुनने का बहाना 

घूमने के लिए चलिहा[1] बद मन्दिर जाने का बहाना 
सब्जी-भाजी, चूड़ी-बिन्दी खरीदने का बहाना 
बच्चों को स्कूल ले जाने-लाने का बहाना 
प्राम उठा नन्हें को घुमाने का बहाना 

सोने के लिए बच्चे को सुलाने का बहाना 
गाने के लिए लोरी सुनाने का बहाना 
सजने के लिए पति-रिश्तेदारों का बहाना 
रोने के लिए प्याज छीलने का बहाना 
जीने के लिए औरों की ज़रूरतों का बहाना 

अपने होने का बहाना ढूँढती है औरत 
इसी तरह जीवन को जीती है औरत 
बहाने से जीवन जीती है औरत…..

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प्रेम __

ओम् की मूल ध्वनि-सा
तुम्हारा प्यार
मस्तिष्क की भीतरी शिराओं तक गूँज गया है
और मुझे हिलोर गया है अंदर तक

एक गहरी सी टीस रह-रह कर उठती है
और मन शिशु की तरह माँ का वक्ष टटोलता है

मैंने तुम्हारे प्रेम को कुछ इस तरह महसूसा
जैसे कि माँ बच्चे के कोमल नन्हें अनछुए होंठों को
पहली बार अनचीन्हे से अंदाज में महसूसती है

दर्द का तनाव अपने सिरजे को छाती से लगाते ही
आह्लाद की धारा में फूट बहता है क्रमश:

गालों पर दूध की बुँदकियाँ लगाए नन्हें से
बच्चे से तुम
अपने विशाल कलेवर के साथ खड़े हो
मेरे सम्मुख

मैं गंगोत्री की तरह फूट पड़ी हूँ ।

2.रात के उस पहर में
जब कोई न था पास
सिवाय कुछ स्मृतियों के
सिवाय कुछ कही-अनकही चाहों
और कुछ अस्फुट शब्दों के
सिवाय एक अधूरे सन्नाटे के

उस वक़्त मैंने तुम्हारे शब्दों को अपना बना लिया

सुनो
अब वे शब्द मेरे भी उतने ही
जितने तुम्हारे
या शायद अब वे मेरे ही हो गये हैं-- गर्मजोशी से थामे हाथ ।
.....

बा ___

कितना कठिन है
शब्दों में तुम्हें समेटना
बा

तुम एक परछाईं-सी सूरज की
उसी के वृत्त में अवस्थित

चंदन लेप के समान
उसको उसी के ताप से दग्ध होने से बचातीं
उसे भास्कर बनातीं
..... 

बा और बापू __

चलते चलते आख़िर थक ही गई
इशारे भर से रोक लिया उसे भी
उस ढलती शाम को
जो जाने कब से तो चल रहा था
प्रश्नो की कँटीली राह पर
नंगे पाँव

नियम तोड़ रुक गया वह
भीग गई आत्मा
लहलहाई
कोरों पर चमकी
यह जानते हुए भी
कि देह भर रुकी है उसकी
शय्या के पास
मन तो भटक ही रहा है
किरिच भरी राहों पर
उन प्रश्नों के समाधान ढ़ूँढ़ता
जो अब तक पूछे ही न गए थे...

.....

प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार (कविता कोष) से 

Thursday, March 1, 2012

दो कवितायें ...... गीता पंडित.. (प्रभात केसरी ) में प्रकाशित





मन मल्हार सुनायें ___




कौन सुनेगा हाल | 

वही हैं कौरव 
वही पांडव 
इच्छाओं के दास,
फिर से किसी 
महाभारत की
लेकर बैठे आस,

जगह जगह पर 
नेताओं की
लगी हुई चौपाल,
कौन सुनेगा हाल |

वही सभा है 
दुर्योधन की
खङी द्रोपदी रोय,
गूँगे बहरे 
बने सभासद
अंतर अश्रू बोय,
रचना करने 
वाली के संग 
कैसी पल की चाल
कौन सुनेगा हाल |



फिर झूले हों 
डाली - डाली
मन मल्हार सुनाये,
गीत मिलन के 
गाकर मनवा
अंतर से मुस्काये,
बोलें केवल 
प्रेम की बोली
आये ऐसी ताल 
कौन सुनेगा हाल ||
......







नीरव क्षण का गीत __




संचय मेरे तुम्हें समर्पित
पीड़ा ना दे पाउंगी ।

मेरे अश्रु हैं मेरी थाती
जीवन भर की रही कमाई,
नयनों की है तृषा बुझानी
अंतर्मन पलकों पर लायी,
अंतर का ये नीर मेरे मीते !
तुमको ना दे पाउंगी |

विष या अमृत अंतर क्या अब
श्वासें जैसे मोल चुकायें.
पंछी बनकर प्रीत उङ गयी
सुर धङकन में कौन सजायें,
नीरव क्षण का गीत मेरे मीते !
तुमको ना दे पाउंगी ||





गीता पंडित