Monday, July 30, 2012

माँ$$$$$$........ एक लघुकथा ... गीता पंडित

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जब मैं बुखार में तप रही थी तुम मेरे माथे पर हाथ रखे सारी रात 
बैठी रहीं, इंजेक्शन लगने पर मुझे दर्द हुआ तो आँसू तुम्हारी आँख 
में थे. खेलते - खेलते मैं गिर गयी. चोट मेरे माथे पर लगी तो तुम 
बिलबिला उठीं. मैं तुम्हें देखती थी अच्छा लगता था तुम्हें अपने पास 
पाकर गर्व होता था, तब मैं उस ममता को महसूस तो करती थी 
लेकिन समझ नहीं पायी, आज जब मैं दरिंदों के बीच में घिरी तो तुम  
कहाँ थीं माँ, मैं कितना चीखी चिल्लाई किसी ने भी नहीं सुना, तुमने 
भी नहीं माँ .....

मुझे अपनी कोख से बाहर क्यूँ आने दिया माँ$$$$$$  ? ?


गीता पंडित 

30/ 7/12

Sunday, July 22, 2012

एक कहानी .. " कबीरन बी " .... लेखक प्रवीण पंडित




कबीरन बी ___



कबीरन बी का असली नाम मैं भूल गया।
सच तो यह है कि अपना असली नाम ख़ुद कबीरन को भी याद नहीं रहा होगा।
जांच -परख करनी हो तो कोई अल्लादी के नाम से आवाज़ लगा कर देख ले। कबीरन
न देखेगी,न सुनेगी और ना ही पलटेगी। अगल- बगल झांके बिना सतर निकलती चली
जाएगी, जैसे अल्लादी से उसका कोई वास्ता ही ना हो।

शक़ नहीं कि कबीरन बी का असली नाम- यानि अब्बू का दिया हुआ नाम
अल्लादी ही था । अब पैदायशी नाम-ग्राम पर तो किसी का ज़ोर ही क्या? लेकिन जिस
घड़ी अल्लादी ने बातों को समझना शुरू किया,उसे लगने लगाथा कि वो सिर्फ़ अल्लादी
नहीं है।
ये बात दीग़र है कि यह समझ उसे ज़रा जल्दी पैदा हो गई। वैसे वो जो पूरी पूरी
दोपहरी महामाई के थान पर जाकर बैठती थी, कोई सोची समझी बात नहीं थी। बस
बैठती थी, लेकिन करती क्या थी? लोग कहते हैं कि कभी गाती -कभी गुनगुनाती।
कभी कभी थान की दीवार से टेक लेकर घंटों गुमसुम खुले आस्मान को निहारती।
बे-ख़बर , बे-सबब ।
तौबा- कभी-कभी तो सांझ ढ़ले जोत- बत्ती भी कर देती।

अब्बू कहां तक बर्दाश्त करते? सो, एक दिन थान पर ही जा घेरा अल्लादी को |
गफ़ूर चचा ने छंगी उंगली से जो अल्ला दी का कान एंठा, उस के कान की
नसें तड़ तड़ा गयीं। गफ़ूर बौखलाते गये--
"लौंडिया !मामाई के थान पे जोत ही जलानी थी तो कमबख़त किसी पांडे- सुकला के
पैदा हो जाती।गफूर की चौखट पे हल काय कू चला रही है?"
"अरे! पर अब्बू मैने किया क्या?"
"मामाई के थान पे जोत क्यों जलाई बेकूफ़ ?"
"जोत काय की अब्बा,मैने तो बस रोसनी करी, जैसे गजरदम बाबा की मज़ार पे करती हूं।"
"अरी लौंडिया! वो औलिया का मज़ार है और तू मुसलमान है । पर तेरा मामाई के
थान से क्या वास्ता?"
अल्लादी है जिरह बाज़-फट गयी--
"अये अब्बू मुसलमान तो ठीक "--फटे छौंक मे समझाने का घी मिलाया--"पर आला
तो जैसा थान का , वैसा मजार का।गरज़ तो रोसनी करने से है ना?"
गफ़ूर ने करम ठोंक लिये , "या अल्ला माफ़ कर ख़ता--"

और अल्ला वालों से ख़ता मुआफ़ कराने के लिये गफ़ूर चचा ने पारंपरिक तरीक़ा
तलाश लिया। साठ ऊपर आठ के नियाज़ अहमद से दो ऊपर सत्तरह की अल्लादी का निक़ाह
पढ़ा कर गफ़ूर तो निज़ात पा गये, पर बुढ़ऊ दूल्हा नियाज़ अहमद निकाह के चौथे रोज़ ही गफ़लत
मे फंस गये।

हुआ यों , कि घर-आंगन लीपने को गोबर लाने के लिये टोकरी सर पे रख कर अल्लादी
जैसे ही बख्खल वाले मंदिर के पिछवाड़े से होकर निकली, देखती क्या है कि मंदिर के
पुजारी राम आसरे धोती मे बोतल छुपाए , रह रह कर कुछ घूंट रहे हैं।अल्लादी ने टोकरी सर से
उतार कर नीचे टिकाई, और धीमे से बोली,
"पंडत जी!हए ,ये क्या कर रहे हो?"
राम आसरे को काटो तो खून नही।गिड़गिड़ा कर बोले,
"अये लल्ली , तुझे ईमान की कसम, अल्लादी ! किसी से कहियो मत" ।

क्या मत कहियो-- अल्लादी कुछ समझी, कुछ ना समझी। पर हड़बड़ाहट मे राम
आसरे भागे, दिया-बत्ती का टाइम जो हो गया था, तो चोर की ख़िलाफ़ अजानी गवाही सी,
कच्ची की बोतल धोती की ढ़ीली गांठ से खिसक कर ज़मीन पर जा गिरी।
"हाय अल्ला !"--अल्लादी सन्न।
"राम जी का पुजारी और --?"

अल्लादी सिर्फ़ अल्लादी होती तो शायद चुप भी लगा जाती। वहां तो बोली
नहीं,ओसारे मे जाकर राम रती यानि पंडत जी की घरैतन को सब दिखाया भी और समझाया
भी |पुजारन ने माथा कूट लिया , पर अल्लादी माथा कूटने वालों मे से थोड़े ही है ?तिदरी मे
आरती की तैय्यारी करते राम आसरे पुजारी पर फट कर बरस पड़ी--
"पंडत जी !घंटी बजाने तक तो ठीक है, पर कच्ची लगाकर 'गरभ गिर' मे घुसे तो, अल्ला कसम ,
चौखट सर पे आन पड़ेगी। हटो वहां से , जोत-बत्ती तो मैं कर दूंगी"
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नियाज़ अहमद ने भी सुना।अड़सठ की उम्र।अल्लादी के सीधे सच मेउन्हें जाने क्या
टेढ़ नज़र आई कि पोपले मुंह से अल्लादी पर बरस पड़े-
"अमा! आप को क्या ? आप दूसरों के मज़हब मे दखल क्यों देती हैं?"
दूसरों का मज़हब? शराब पीना और पीकर इबादत करना तो किसी का भी मज़हब नहीं
हो सकता? गुम गुम करती सी बोली
"खां साब !ये मसला मज़हब का नहीं,आदमीयत का है।आज तो छोड़ आई हूं, फिर कभी ऐसा हुआ,
तो अल्ला कसम ,इस नसेड़ी पुजारी को रामदरबार मे घुसने नहीं दूंगी।"

एक बात हो तो ठीक। जुए-गांजे के कितनी ही शौक़ीन खानों-अलियों को अल्लादी गांव के
मुहाने से बाहर खदेड़ने मे गुरेज़ नहीं करती थी।
"हरामड़ !बीवी-बच्चे दाने दाने को मोहताज फिरें हैं। ख़ुद सुलफ़ा लगा के
चिड़ी की बेगम से उलझ रहा है। बरतन-भांडे तो बेच दिये, कुनबा रह गया है बिकने को ,बस्स।"

नियाज़ अहमद-अल्लाजाने , अल्लादी की बेबाक़ ज़ुबान से घबरा गये या गांव
वालों की चुपचाप अल्लादी के सच की ख़िलाफ़त से। उनहत्तरवां पूरा नहीं कर पाए।
अल्लादी बेवा हो कर कमसिनी से सीधे बुढ़ापे मे दाखिल हो गयीं ।

अब तो वैसे भी पैंतालिस की हो चलीं।

अल्लादी के सच की कमची से बामन-बख्खल भी उतनी ही घबराती जितना मौलवी
बाड़ा। सामने तो किसी का हिया नहीं पड़ता ,पर भीतर ही भीतर दोनो क़ौमों के
कट्टरपंथी गीली लकड़ी से सुलगने लगे थे ।
किसी भी क़िस्म का ढ़ोंग ,दुराव-छुपाव,दिखावा अल्लादी की ज़ुबान की मार से
बच नहीं सकता था।ऐसे ही माहौल मे किसी गुनी के ग्यान के पर्दे खुल गये--
" अल्लादी कौन कहे?वो तो कबीरन है भैय्या -कबीरन बी,राम कसम।"

और अल्लादी कबीरन बी बन गयी।
क़बीरन बनी तो ऐसी कि ख़ुद भी अल्लादी को भूल गयी।अब अल्लादी के नाम से
सुनती थोड़े ही हैं ।

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मैं तो याद रख ही कैसे सकता था। अल्लादी नाम मुझे तो कथा- कहानियों मे ही मिला
था। जीती जागती तो बस कबीरन बी थी। गांव आता , तो कबीरन बी को
राम-राम करने ज़रूर जाता। पिछले हफ़्ते भी गया था । राम राम करते ही कबीरन चहक
उठीं-
"कौन? छोटा चौधरी है क्या?।"
"हाँ बी"
" हये मेरा बच्चा।" कबीरन ने अपनी बूढ़ी बाहों के झूले मे लेकर झोंटा दे दिया।

कबीरन हमेशा उसे देखकर ऐसे ही चहक -महक उठतीं।साथ ही यह कहना कभी
न भूलतीं- तेरी मां से पहले कबीरन के हाथों ने ही तुझे नहलाया- खिलाया
है बच्चे।

कबीरन पेशे से दाई थी।यों पेशा कहें तो ठीक,पर कबीरन नेयह काम बतौर पेशा
कभी किया नहीं।भीतर का सारा लाड़ उमेड़ कर कबीरन अनमोल लालों को मांओं
की कोख के गहरे कुओं से हाथों मे सहेज कर लाती और उजली दुनिया का पहला
नज़ारा कराती। किसी किसी से यों भी कहती-
" अरे जा कमनसीब! मैं ना होती तो अपनी जनती को ही लील गया होता ।शुक़्र कर
तेरे जिबड़े मे सांस फूंक दी मैने।"
ये तो चिड़चिड़ाहट की बात है , वरना कबीरन कभी नहीं भूली कि ज़िंदगी देने
वाला तो एक ही है, वो ऊपरवाला- सबका राखन हार।
चिढ़ी हुई आज भी थी कबीरन । सो चेहरे से चमक फ़्लेश मार कर ग़ायब हो गयी।
"छोटे चौधरी! गांव का दो तिहाई हिस्सा इन्हीं हाथों ने जनाया। कितने ही सिलबिल्ले मिट्टी
के लौंदे मेरे ही हाथों मे आकर हंसना-रोना सीखे। पर वक़्त-मारे आज तो मूंछों पर ताव
देकर सीना मशक़ बनाए फिरते हैं। एक दूसरे की जान लेने पे आमादा हैं।"

बेशक़ , गांव का माहौल इस बार क़तई अलग था।मंदिर -मस्ज़िद की की लाग -डांट की
ऐसी ज़हरीली आंधी चली कि गांव की फ़िज़ा के साथ साथ कबीरन की ज़ुबान मे भी मीठे बताशे
की जगह धतूरा रख गयी--
" बच्चा तू बता ! कौन से गांव मे मंदर-मज्जत अगल -बगल नहीं खड़े हैं और किस इलाक़े मे
रिले-मिले मेले नहीं लगते ?-- नौचंदी--फूलवाला--दीनदार दुर्गा--- पर ख़ुदा जाने,आज के आदमी
की कौन सी कल टेढ़ी हो गयी कि नासपीटों से हिल-मिल कर रहा ही नहीं जाता। हमारी तो उमर
गुज़र गयी महामाई की जोत और गज़रदम बाबा की मज़ार पर लोबान जलाते -- ना कभी धरम
गया ना ईमान। मिलजुल कर मंदर-मज्जत बना लें तो क्या है? आख़िर है तो सब कुछ एक ही ना?"

कबीरन बी कबीरन ना रहीं । दर्द की तस्वीर बन गयी- सरापा ।
क्या कहा कबीरन ने ?--आख़िर है तो सब एक ही । अये कबीरन ! किताबों से खोद खोद कर
जुमले उछाल रही हैं क्या? पर ना - कबीरन जैसी भीतर --वैसी बाहर।
कुछ अरसा पहले तक सोलह आने खरी बात थी इस इलाक़े के लिये कि सब कुछ एक
ही है । पर अब नहीं । मैं जान चुका था कि गांव के कट्टरपंथी हिंदु भी कबीरन के ख़िलाफ़
थे और मुसलमान भी। उसके प्रेम -प्रीत के नुस्खे और ज़ुबान का कड़वा सच दोनों मे से किसी
के गले नहीं उतरा।
धारण कर लिया तो धर्म बन गया परंतु इतना विद्रूप
भी हो सकता है धर्म?
ऐसा हो सकता है ,सोचा नहीं था। उस प्रीत की जोत और मुहब्बत की लोबान का ऐसा हश्र?
इस बार के दंगे कबीरन को लील गये। चश्मदीद कहते हैं कि कबीरन का झोंपड़ा दोनों
क़ौमों के फ़िरकापरस्तों ने मिल कर जलाया।
चलो.नेकी को ख़ाक़ करने के लिये तो दोनो एक हुए।

कबीरन की जली ठठरी जस की तस पड़ी मिल गयी।
हे राम! या अल्लाह !
मुझे ऐसा हिंदु होने पर अफ़सोस है तो तुझे भी ऐसा मुसलमान होने पर शर्म
आनी चाहिये।


तुम कबीरन हमारे लिये बनी थीं अल्लादी?
जोत-लोबान किस के लिये जलाती फिरती थीं तुम? हमारे लिये ?
तुम्हारे बोल अभी भी ज़िंदा होकर घन घन बोलते हैं कानों मे --
"अरे बच्चा! मांओं की कोखों से निकाल कर मांस के जिन लोथड़ों को अपने लरजते
हाथों मे संभाला, वो तो हिंदु थे ना मुसलमान । बेड़ा ग़र्क़ हो इन क़ौम और
फ़िरक़ापरस्तों का , सच्चा हिंदु या नेक मुसलमान भी बनाते तो भला था । पर
इन्होने तो इंसान की औलाद को शैतान बना दिया।"

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जुनूनी सैलाब उतर गया शायद , जनाज़े को तो हिंदु-मुसलमान दोनों कंधा दे रहे थे ।
पछतावे की चादर ओढ़े गहन सन्नाटा पसर गया पूरे गांव मे ।
महामाई के थान और गज़रदमबाबा के मज़ार पर अंधेरा है , कैसे दूर हो?
अचानक ,जैसे कुछ कौंध सा गया । लौ आपने जलाई थी , आप के बच्चे बुझने थोड़े ही देंगे।

उन दोनो ठिकानो की भी देखी जाएगी। और हाँ , आला तो जैसा थान का या मज़ार का ,
वैसा ही नेक कबीरन के झोंपड़े का ।
चलूं,एक दिया जला आऊं ,उन
की राख पर।

ग़रज़ तो रोशनी से ही है ना कबीरन बी?



Thursday, October 30, 2008



प्रेषिका 
गीता पंडित 

Friday, July 13, 2012

तीन कवितायें ..... गीत चतुर्वेदी.




....
.......


मेरे मौन में तुम भाप की तरह निकलती हो मेरे मुंह से 
सुबह का सारा कोहरा इसलिए बना है 
कि मौन रहकर मैं तुम्‍हारा नाम उच्‍चारता हूं 

अलस्‍सुबह इस जगह कोई नहीं है 
सड़क किनारे जमे पानी में मैं कोई नहीं बनकर झांकता हूं 
सड़क तुम्‍हारी विलंबित हां है जो वहां से नहीं शुरू होती जहां मैं खड़ा हूं 

मैं वहीं ख़त्‍म होता हूं जहां तुम खड़ी हो 

शिव की जटा से गिरने के बाद मैंने गंगा को अपनी हथेली पर रोपा था
नदी रेखा बनकर मेरी हथेली पर दौड़ती है

दो पहाडि़यों के बीच तुम्‍हारे केश की इकलौती लट तुम्‍हारा वृक्ष है

मैं तुम्‍हारी कार को दूर से पहचान लेता हूं
तुम मेरी बग़ल से मुझे खोजती गुज़र जाती हो ग़ाफि़ल
शिव के शाप के बाद से अनंग हूं मैं
मुझे हमेशा अपनी उपस्थिति का अहसास ख़ुद कराना पड़ता है

एक सुबह हमारे पास बहुत समय था
तुम रात के बचे खाने के तरह मुझे संजो देना चाहती थी
हम एक पत्‍ती पर देर तक टहलते रहे
तब से तुम्‍हारे तलवों का रंग हरा हो गया

तुमने कहा तुम्‍हारा मन अब से तुम्‍हारे तलवों में रहेगा
यह भी कि मुझे सबसे पहले तुम्‍हारा मन चूमना था
लौटते समय मैंने मुड़कर देखा था तुम्‍हें रिवायत के मुताबिक़

कुछ दरवाज़े हमेशा भीतर की तरफ़ खुलते हैं

मेरे भीतर शुक्र कभी अस्‍त नहीं होता
शौर्य का मंगल बहुत दूर उगता है मुझसे
अंतरिक्ष अंधेरे का काढ़ा है
तुम यहां हो प्रकाश का पर्णवृंत बनकर

कोई ज़रूरी नहीं कि क़लम ही लिखा करे काग़ज़ पर
तुम वह पढ़ना जो काग़ज़ लिखा करते हैं क़लमों पर
ऐसे तुम इंतज़ार और सियाही का संबंध समझ जाओगी

तुम्‍हारी देह पर नक्षत्र की नौकाएं तिरेंगी
तुम्‍हारा बढ़ा हुआ हाथ एक मछली है
मेरे विचार का पानी सांस लेता है उससे

मैं तुम्‍हारी देह ब्रेल लिपि में पढ़ता हूं  

......





तुम्‍हारी परछाईं पर गिरती रहीं बारिश की बूंदें 
मेरी देह बजती रही जैसे तुम्‍हारे मकान की टीन 
अडोल है मन की बीन 

झरती बूंदों का घूंघट था तुम्‍हारे और मेरे बीच 
तुम्‍हारा निचला होंठ पल-भर को थरथराया था 

तुमने पेड़ पर निशान बनाया 
फिर ठीक वहीं एक चोट दाग़ी 
प्रेम में निशानचियों का हुनर पैबस्‍त था 

तुमने कहा प्रेम करना अभ्‍यास है
मैंने सारी शिकायतें अरब सागर में बहा दीं

धरती को हिचकी आती है
जल से भरा लोटा है आकाश
वह एक-एक कर सारे नाम लेती है
मुझे भूल जाती है
मैं इतना पास था कि कोई यक़ीन ही नहीं कर सकता
जो इतना पास हो वह भी याद कर सकता है

स्‍वांग किसी अंग का नाम नहीं

आषाढ़ पानी का घूंट है
छाती में उगा ठसका है पूस.

........






तुम गुब्‍बारा हो 
मैं तुममें हवा भरता हूं 
तुम मुझसे दूर उड़ जाती हो

मैं ईश्‍वर का खिलौना हूं तुम्‍हारा भी 
जितना तपती है किनारे की रेत 
बीच धार की बूंदें उतनी ही शीतल होती हैं

समंदर अपने भीतर जितनी रेत रखता है उतनी ही लहरें भी

जीवन का सारा पीला कविता में आकर लाल हो जाता है
भूगर्भ लिखता है मेरी कविता
जंगल सुंदर कविताओं की प्रतिध्‍वनि हैं
बहुत तेज़ी से काटे जा रहे हैं जंगल

एक सुबह उठकर मैंने एक पेड़ उखाड़ दिया
उस ज़मीन की छांव की आदत छूट नहीं रही

मेरी छत से एक हाथ ऊपर बैठी है बारिश रूठी हुई
किसी को मनाना बिना ठहरे बरस जाने का हुनर है

पृथ्‍वी पर मैं चलता हूं
मुझे अपनी गोद में लिये पृथ्‍वी चलती है
मैं चल-चलकर कहीं तो भी पहुंचता हूं
पृथ्‍वी मुझसे ज़्यादा चलती है और कहीं नहीं पहुंचती
इस तरह इतना चल-चलकर भी
अंतत: मैं कहीं नहीं पहुंचता

वृहत्‍तर रूप से मैं ठहरा हुआ हूं
ख़ुद के और पृथ्‍वी के लगातार चलते चले जाने के बाद भी
एक भावनात्‍मक भय मेरी कानी उंगली की अंगूठी है

शब्‍द कच्‍चा दूध था तुम्‍हारी इच्‍छाएं शहद
इन दोनों से तुम मेरे चेहरे के दाग़ धोना चाहती थीं
कई बार प्रतीक्षा भी आवेग का मर्दन कर देती है

मौन एक शिकारी घूंघट है
मेरी उत्‍सुकताओं को उकसाता हुआ
दिन तुम्‍हारी देह की यष्टि है
रात तुम्‍हारे साथ का अनुच्‍छेद
एक दिन अलार्म से ठीक पहले यह घड़ी बंद पड़ जाएगी

मैं चलते-चलते पृथ्‍वी की कगार पर पहुंच जाऊंगा
एक क़दम बढ़ाऊंगा अनंत में गिर जाऊंगा

........




प्रेषिका 
गीता पंडित 


साभार 
गीत चतुर्वेदी जी की प्रोफाइल से... 















Wednesday, July 4, 2012

एक पुरानी कविता ...... कात्यायनी ...



हॉकी खेलती लड़कियाँ .____


आज शुक्रवार का दिन है
और इस छोटे से शहर की ये लड़कियाँ
खेल रही हैं हॉकी।
खुश हैं लड़कियाँ
फिलहाल
खेल रही हैं हॉकी
कोई डर नहीं।

बॉल के साथ दौड़ती हुई
हाथों में साधे स्टिक
वे हरी घास पर तैरती हैं
चूल्हे की आँच से
मूसल की धमक से
दौड़ती हुई
बहुत दूर आ जाती हैं।

वहाँ इंतज़ार कर रहे हैं
उन्हें देखने आए हुए वर पक्ष के लोग
वहाँ अम्मा बैठी राह तकती है
कि बेटियाँ आएं तो
संतोषी माता की कथा सुनाएं
और
वे अपना व्रत तोड़ें।

वहाँ बाबूजी प्रतीक्षा कर रहे हैं
दफ्तर से लौटकर
पकौड़ी और चाय की
वहाँ भाई घूम-घूम कर लौट आ रहा है
चौराहे से
जहाँ खड़े हैं मुहल्ले के शोहदे
रोज़ की तरह
लड़कियाँ हैं कि हॉकी खेल रही हैं।

लड़कियाँ
पेनाल्टी कार्नर मार रही हैं
लड़कियाँ
पास दे रही हैं
लड़कियाँ
'गो...ल- गो...ल' चिल्लाती हुई
बीच मैदान की ओर भाग रही हैं।
लड़कियाँ
एक-दूसरे पर ढह रही हैं
एक-दूसरे को चूम रही हैं
और हँस रही हैं।

लड़कियाँ फाउल खेल रही हैं
लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है
और वे हँस रही हैं
कि यह ज़िन्दगी नहीं है
-इस बात से निश्चिंत हैं लड़कियाँ
हँस रही हैं
रेफ़री की चेतावनी पर।

लड़कियाँ
बारिश के बाद की
नम घास पर फिसल रही हैं
और गिर रही हैं
और उठ रही हैं

वे लहरा रही हैं
चमक रही हैं
और मैदान के अलग-अलग मोर्चों में
रह-रहकर उमड़-घुमड़ रही हैं।

वे चीख़ रही हैं
सीटी मार रही हैं
और बिना रुके भाग रही हैं
एक छोर से दूसरे छोर तक।

उनकी पुष्ट टांगें चमक रही हैं
नृत्य की लयबद्ध गति के साथ
और लड़कियाँ हैं कि निर्द्वन्द्व निश्चिन्त हैं
बिना यह सोचे कि
मुँह दिखाई की रस्म करते समय
सास क्या सोचेगी।

इसी तरह खेलती रहती लड़कियाँ
निस्संकोच-निर्भीक
दौड़ती-भागती और हँसती रहतीं
इसी तरह
और हम देखते रहते उन्हें।

पर शाम है कि होगी ही
रेफ़री है कि बाज नहीं आएगा
सीटी बजाने से
और स्टिक लटकाये हाथों में
एक भीषण जंग से निपटने की
तैयारी करती लड़कियाँ लौटेंगी घर।

अगर ऐसा न हो तो
समय रुक जाएगा
इन्द्र-मरुत-वरुण सब कुपित हो जाएंगे
वज्रपात हो जाएगा, चक्रवात आ जाएगा
घर पर बैठे
देखने आए वर पक्ष के लोग
पैर पटकते चले जाएंगे
बाबूजी घुस आएंगे गरजते हुए मैदान में
भाई दौड़ता हुआ आएगा
और झोंट पकड़कर घसीट ले जाएगा
अम्मा कोसेगी-
'किस घड़ी में पैदा किया था
ऐसी कुलच्छनी बेटी को!'
बाबूजी चीखेंगे-
'सब तुम्हारा बिगाड़ा हुआ है !'
घर फिर एक अँधेरे में डूब जाएगा
सब सो जाएंगे
लड़कियाँ घूरेंगी अँधेरे में
खटिया पर चित्त लेटी हुईं
अम्मा की लम्बी साँसें सुनतीं
इंतज़ार करती हुईं
कि अभी वे आकर उनका सिर सहलाएंगी
सो जाएंगी लड़कियाँ
सपने में दौड़ती हुई बॉल के पीछे
स्टिक को साधे हुए हाथों में
पृथ्वी के छोर पर पहुँच जाएंगी
और 'गोल-गोल' चिल्लाती हुईं
एक दूसरे को चूमती हुईं
लिपटकर धरती पर गिर जाएंगी ! 


प्रेषिका 
गीता पंडित 




साभार


http://anunaad.blogspot.in/2012/06/blog-post_11.html