Thursday, June 27, 2013

कुछ कवितायें .... मंगलेश डबराल

.....
........

कविता___

कविता दिन-भर थकान जैसी थी

और रात में नींद की तरह
सुबह पूछती हुई :  
क्या तुमने खाना खाया रात को ?
...........




यहाँ थी वह नदी ___


जल्दी से वह पहुँचना चाहती थी
उस जगह जहाँ एक आदमी
उसके पानी में नहाने जा रहा था
एक नाव
लोगों का इन्तज़ार कर रही थी
और पक्षियों की कतार
आ रही थी पानी की खोज में

बचपन की उस नदी में
हम अपने चेहरे देखते थे हिलते हुए
उसके किनारे थे हमारे घर
हमेशा उफ़नती
अपने तटों और पत्थरों को प्यार करती
उस नदी से शुरू होते थे दिन
उसकी आवाज़
तमाम खिड़कियों पर सुनाई देती थी
लहरें दरवाज़ों को थपथपाती थीं
बुलाती हुईं लगातार

हमे याद है
यहाँ थी वह नदी इसी रेत में
जहाँ हमारे चेहरे हिलते थे
यहाँ थी वह नाव इंतज़ार करती हुई

अब वहाँ कुछ नहीं है
सिर्फ़ रात को जब लोग नींद में होते हैं
कभी-कभी एक आवाज़ सुनाई देती है रेत से

........




आँखें  ___


आँखे संसार के सबसे सुंदर दृश्य हैं

इसीलिए उनमें दिखने वाले दृश्य और भी सुंदर हो उठते हैं
उनमें एक पेड़ सिहरता है एक बादल उड़ता है नीला रंग प्रकट होता है
सहसा अतीत की कोई चमक लौटती है
या कुछ ऐसी चीज़ें झलक उठती हैं जो दुनिया में अभी आने को हैं
वे दो पृथ्वियों की तरह हैं
प्रेम से भरी हुई जब वे दूसरी आंखों को देखती हैं
तो देखते ही देखते कट जाते हैं लंबे और बुरे दिन

यह एक पुरानी कहानी है
कौन जानता है इस बीच उन्हें क्या-क्या देखना पड़ा
और दुनिया में सुंदर चीज़ें किस तरह नष्ट होती चली गईं
अब उनमें दिखता है एक ढहा हुआ घर कुछ हिलती-डुलती छायाएं
एक पुरानी लालटेन जिसका कांच काला पड़ गया है
वे प्रकाश सोखती रहती हैं कुछ नहीं कहतीं
सतत आश्चर्य में खुली रहती हैं
चेहरे पर शोभा की वस्तुएं किसी विज्ञापन में सजी हुई ।

...........







अनुपस्थिति ___


यहाँ बचपन में गिरी थी बर्फ़

पहाड़ पेड़ आंगन सीढ़ियों पर
उन पर चलते हुए हम रोज़ एक रास्ता बनाते थे


जब मैं बड़ा हुआ
देखा बर्फ़ को पिघलते हुए
कुछ देर चमकता रहा पानी
अन्तत: उसे उड़ा दिया धूप ने ।
,,,,,,,,,,,,,




प्रेषिता
गीता पंडित

साभार कविता कोश से 

Saturday, June 22, 2013

पाँच गज़ल ..... विलास पंडित

.....
.....

आँख से आंसू बह जाते हैं 
लेकिन सबकुछ कह जाते हैं 

जो दुनिया को राह दिखाएँ 
वो ही तनहा रह जाते हैं 

प्यार किया है आखिर उससे 
ज़ुल्म भी उसके सह जाते हैं 

मोती उनको ही मिलते हैं
जो सागर की तह जाते हैं

पाएंगे क्या खाक किनारा
जो पानी से बह जाते हैं

शब् के सन्नाटे का आलम
ख्वाब भी डरकर रह जाते हैं 

........






ज़हर है, या के दवा है, क्या है 
भर के पैमाना दिया है, क्या है 

तेज़ लपटों को देखने वालों 
सिर्फ़ धुआं सा उठा है, क्या है 

क़ैद हैं अब भी अनगिनत पंछी 
इक परिंदा ही उड़ा है, क्या है 

है ख़ुशी, वार सामने से किया 
तीर सीने में लगा है, क्या है 

घर में बर्तन जो हैं, तो खनकेंगे 

भीड़ क्यूं इतनी जमा है, क्या है 
........






पहलू में ले के गम कोई सोया न जायेगा
अब बोझ हर सवाल का ढोया न जायेगा

महफ़िल से उठ के चल दिए दिल टूटने के बाद
हमसे तुम्हारे सामने रोया न जायेगा

अश्कों से तुम खुतूत को धोया करो मगर
लिक्खा हुआ नसीब का धोया न जायेगा

तूफ़ान-ए- गम में आज हरेक शख्स है असीर
नफ़रत का बीज अब कहीं बोया न जायेगा

लेकर ग़मों की धूल को आँखों में इस तरह
हमसे तेरे ख़याल में खोया न जायेगा

कहती है मौत आज "मुसाफिर" तेरे बगैर
इस शाम-ए-बेचराग में सोया न जायेगा 

........







अब कोई मिलता नहीं बोला जहां है 
ये ज़माना उस ज़माने सा  कहां है 

गर कोई दीवार नफ़रत की खड़ी हो 
आदमी होने का ये पहला निशां है 

चीनी कम है चाय में,पर देखिये तो 
क़ब्र में हैं पाँव फिर भी दिल जवां है 

बीच में दैरो-हरम की बात क्यूं कर 
इस ज़मीं का आसरा तो आस्मां है 

कागज़ों की कश्तियाँ कम पड़ गई 
उस नदी को देखिये अब भी रवां है 

आप कमसिन हो, न पूछो आज हमसे 
इक अनोखी दर्द की ये दास्तां है 

ये ग़ज़ल भी सोचती है इन दिनों में 
क्यूं 'मुसाफ़िर' अब हमारे दरमियां है 

 ........





शहर में इनदिनों आखिर बहोत माहौल बदला है
कोई घर ही में सिमटा है, कोई दुनिया में फैला है

सियासतदाँ है वो आखिर उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है
भले अन्दर से काला हो, मगर बाहर तो उजला है

मैं ये ही सोचता था कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
मगर देखा जिसे वो ही यहाँ नहले पे देहला है

कहीं गम की घटा काली,कही खुशियों की रंगीनी
ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रूपहला है

न मंजिल का पता उसको, न तो हमवार हैं रस्ते
भरी दुनिया में वो शाइर"मुसाफिर" तो अकेला है 

.........



प्रेषिता 
गीता पंडित 



Sunday, June 16, 2013

भविष्य घट रहा है ..... कैलाश वाजपेयी

......
.......

कोलाहल इतना मलिन 
दुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है 
मन होता है 
सारा विषपान कर 
चुप चला जाऊँ 
ध्रुव एकान्त में 
सही नहीं जाती 
पृथ्वी-भर मासूम बच्चों 
माँओं की बेकल चीख़। 
सारे के सारे रास्ते 

सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे 
रहा भूगोल 
उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है 
कल तक्षशिला आज पेशावर 
इसके बाद भेद-ही-भेद 
जड़ का शाखाओं से 
दाहिनी भुजा का बायीं 
कलाई से। 

बीसवीं सदी के विशद 
पटाक्षेप पर 
देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार 
पानी की 
डूब रहे बड़े-बड़े नाम 
कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र 
फँसा फड़फड़ा रहा- 

अन्त हो रहा या शायद 
पुनर्जन्म 
पस्त पड़ी क्रान्ति का। 

बीसवीं सदी के विशद मंच पर 
खड़े जुनून भरे लोग- 
जिन नगरों में जन्मे थे 
उन्हीं को जला रहे 
एक ओर एक लाख मील चल 
गिरता हुआ अनलपिण्ड 
और 
दूसरी तरफ़ बुलबुला 
बुलबुला 
इनकार करता है पानी 
कहलाने से 
बडा समझदार हो गया है बुलबुला। 

असल में अनिबद्ध था विकल्प 
विकल्प ही भविष्य था 
भविष्य पर घट रहा है। 
इस क्षणभंगुर संसार में 
अमरौती की तलाश भी 
जा छिपी राष्ट्रसंघ के 
पुस्तकालय में 
देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे 

ज़िक्र जब आता वंशावलि का 
हरिशचन्द्र की 
पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव 
शायद सभी को 
अपना भुइँतला ज्ञात है। 
बहारों की नगरी में नाद बेहद का 
आकाश फट रहा 
एक आँखों वाले संयन्त्र पर 

देख रहे बच्चे 
अपनी जन्मस्थली 
बेपरदा हुई मनुष्यता 
भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही 
खुल रही पहेली दिन-ब-दिन 
रहस्य 
झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा 
अपने पहचान-पत्र का अभाव में 
दरिद्रदेवता 
पूछ रहा पता 
हवालात का 

जहाँ उसने अपनी शिनाख़्त की 
अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में 
फाँसी लगेगी...लगनी है 
असल में यह अनुपस्थिति का मेला है 
खत्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन 
युवा युवतियों को बुला रहा 
कि गर्भ की गर्दिश से बचने के 
कितने नये ढंग अपना चुकी है 
मरती शताब्दी 

शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर 
नेता सब व्यस्त कुरते की लम्बाई बढ़ाने में 
स्त्रियाँ 
उभराने में वक्ष 
किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले 
इस देश में 
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं 
कुत्तों की फूलों में कोई रूचि नहीं 
न मछलियों का छुटकारा 
अपनी दुर्गन्ध से 
यों सारी उम्र रहीं पानी में। 

कैसे मैं पी लूँ सारा विष 
विलय से पहले 
मुझ नगण्य के लिए यह 
पेंचीदा सवाल है। 
सब फेंके दे रही सभ्यता 
धरती की कोख 
दिन-ब-दिन ख़ाली 
पानी हवा आकाश 
हरियाली धूप 
धीरे-धीरे 
बढ़ती चली जा रही 
कंगाली सब्र की 
समझ कै़द 
बड़बोले की कारा में 

त्वरा के चक्कर में 
सब इन्तजार हो गया है 
काल को पछाड़कर 
तेज़ रफ्तार से 
सब-कुछ होते हुए 
होना 
बदल गया है 
समृद्धि के अकाल में 
अस्ति से परास्त 
विभवग्रस्त आदमी 
एक-एक कर 
फेंककर 
सारी सम्पदा 
क्या पृथ्वी भी 
फेंक देगा ? 

मेरे समक्ष यह 
संजीदा सवाल है 
ठीक है कि सूर्य बुझनहार धूनी है 
किसी अवधूत की 
अविद्या-विद्यमान को ही़ 
शाश्वत मानना 
ठीक है कि हस्ती 
एक झूठा हंगामा है 
हर प्रतीक्षा का 
गुणनफल 
सिराना चुक 
जाना है। 
तभी भी निष्ठा उकसाती मुझे 

सब कुछ को रोक देना 
जरूरी है 
भूलकर अपनी अवस्था। 
चिड़ियों से फूलों से 
पेड़ से हवा से 
कहना चाहिए 
भीतर से बाहर का तालमेल 
नाव नदी संयोग 
के बावजूद 
बना अगर रहा न्यूनतम भी 
बिसरा सरगम 
किसी ताल में 
होकर निबद्ध फिर 
आएगा। 
पृथ्वी बच जाएगी 
मैं रहूँ नहीं रहूँ 
फ़र्क क्या
.....




प्रेषिता 
गीता पंडित 

Thursday, June 13, 2013

राम की जल - समाधि .... भारत भूषण


...
पश्चिम में ढलका सूर्य 
उठा वंशज 
सरयू की रेती से,
हारा-हारा,
रीता-रीता, 
निःशब्द धरा, 
निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर 
पर रोम-रोम 
था टेर रहा सीता-सीता।


किसलिए रहे अब ये शरीर, 
ये अनाथ-मन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ, 
धरती मुझको किसलिए सहे।


तू कहाँ खो गई वैदेही, 
वैदेही 
तू खो गई कहाँ,
मुरझे राजीव 
नयन बोले, 
काँपी सरयू, 
सरयू काँपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, 
नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, 
अब साँस-साँस 
संग्राम हुई।


ये राजमुकुट, 
ये सिंहासन, 
ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन 
जीवन मेरा, 
सामने नदी की अगम धार,
माँग रे भिखारी, 
लोक माँग, 
कुछ और माँग 
अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आँसुओं में 
नहला बूढ़ी मर्यादाएँ,
आदर्शों के जल महल बना, 
फिर राम मिलें न मिलें तुझको,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।


ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, 
किस ठौर कहां तुझको जोडूँ,
कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य, 
बोलूँ भी तो किससे बोलूँ,


सिमटे 
अब ये लीला सिमटे, 
भीतर-भीतर गूँजा भर था,
छप से पानी में पाँव पड़ा, 
कमलों से लिपट गई सरयू,
फिर लहरों पर वाटिका खिली, 
रतिमुख सखियाँ, 
नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे, 
पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी। 


फिर धुआँ-धुआँ फिर अँधियारा,
लहरों-लहरों, 
धारा-धारा, 
व्याकुलता फिर 
पारा-पारा।


फिर एक हिरन-सी 
किरन देह, 
दौड़ती चली आगे-आगे,
आँखों में जैसे बान सधा, 
दो पाँव उड़े 
जल में आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया, 
आया लो नाभि-नाभि पानी,


जल में तम, 
तम में जल बहता, 
ठहरो बस और नहीं 
कहता,
जल में कोई 
जीवित दहता, 
फिर 
एक तपस्विनी शांत सौम्य,
धक धक लपटों में 
निर्विकार, 
सशरीर सत्य-सी 
सम्मुख थी,
उन्माद नीर चीरने लगा, 
पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।


आगे लहरें 
बाहर लहरें, 
आगे जल था, 
पीछे जल था,
केवल जल था, 
वक्षस्थल था, 
वक्षस्थल तक 
केवल जल था।
जल पर तिरता था नीलकमल, 
बिखरा-बिखरा सा नीलकमल,
कुछ और-और सा नीलकमल, 


फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर,
धरती से नभ तक 
जगर-मगर, 
दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे,
जैसे सूरज के हस्ताक्षर, 
बांहों के चंदन घेरे से,
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, 
लो शून्य राम 
लो राम लहर,
फिर लहर-लहर, 
लहरें-लहरें 
सरयू-सरयू, 
सरयू-सरयू 
लहरें- लहरें,
लहरें-लहरें  
केवल तम ही तम, 
तम ही तम, 
जल जल ही 
जल ही जल केवल,
हे राम-राम, 
हे राम-राम
हे राम-राम, 
हे राम-राम ।
....... 



प्रेषिता
गीता पंडित 

वैदेही का महाप्रयाण ....राम निवास फज़लपुरी


वैदेही का महाप्रयाण __

गत हुई प्रदोषा, मिटा सघन नैशान्धकार,
खोला प्राची ने बालारुण -रवि -रश्मि -द्वार,
खगकुल कलरव कर उठा, हुआ सुन्दर प्रभात
सम्प्रति साकेत स्वरूप दिव्य रस अमृत-स्नात।

फिर हुआ यज्ञमंडप में नूतन समारोह,
सुविशाल, अलौकिक दिव्य अनिर्वचनीय ओह!
सुर-नर-किन्नर-गंधर्व पधारे सब सत्वर-
हो गई बृहद एकत्र सभा तत्क्षण-सुन्दर।

तदनन्तर आए मंद-मंद गति रघुनन्दन,
था म्लान परम सम्प्रति सुन्दर अम्भोज-वदन,
बैठे सुन्दर-मख वेदी पर अभिराम राम-
गम्भीर सिंधु-सम, चिंता-मय वपु जलद श्याम।

जनसिंधु हुआ किंचित आंदोलित तदुपरान्त,
गम्भीर स्तब्धता छाई जन-रव हुआ शान्त,
फिर दृग उठ गये प्रवेश-द्वार की ओर त्वरित-
देखा सबने वाल्मीकि महाऋषि को विस्मित।

जो शनैः शनैः आ रहे आदि कवि उसी ओर,
जन लगे देखने मुनिवर को श्रद्धा-विभोर।
धीरे-धीरे पीछे-पीछे ऋषि के सीता,
आ रही अहो! कौशल नरेश की परिणीता।

करुणा की प्रतिमा, कुशरूपा, वल्कल-वसना
उज्जवल सतीत्व से दीप्तिवन्त, विनम्र वदना,
हो रहे उदित थे काल प्रबल गति से प्रेरित,
विधु-मुखमंडल पर चिन्ह वृद्धता के किंचित,

कुम्ह्लाया वह, विधुवदन परिस्थित राहु ग्रसित-
जन-जन मन आंदोलित कर करने लगा व्यथित।
उनको विलोक सुर-नर-किन्नर-गंधर्व-ग्राम-
श्रद्धा-विभोर हो उठे, किया सादर प्रणाम।

कौशलपति कातर मुख से वसुमति को निहार,
रह गए ठगे से भूले मुनि-स्वागत-विचार,
कर उठा कहा ऋषिवर ने किंचित हो सरोष-
रघुनन्दन के समीप आकर घनघोर घोष -

"दूषण जित, त्रिभुवनशिरोरत्न, रघुकुलभूषण!
मर्यादा पुरुषोत्तम, लोकोत्तम अघमर्षण!
हे शौर्य-धैर्य-सदगुण आकर राघव महान!
अब भी तुम माँग रहे वैदेही से प्रमाण!

तुमने अपयश भय से पतिप्राणा सीता का,
गर्भिणी और असहाया निज परिणीता का,
इस दिव्य सती का- निर्ममता उर धर अपार-
कर दिया त्याग ले अग्नि परीक्षा एक बार।

पुनरपि सतीत्व का तुम प्रमाण माँगते आज!
सब के आगे! समवेत जहाँ विस्तृत समाज -
तो हे राघव! मैं अंजलि में ले गंगाजल -
सीता सतीत्व का स्वयं प्रमाण बना अविचल।

है सतत साधना की मैने तप किया घोर,
पर, सीता के तप आगे वह तप है विभोर,
वैदेही का तप सतत निरन्तर अविकल क्रम-
है मम तप से भी अधिक दिव्यतम लोकोत्तम!

यदि किंचित भी अत्युक्ति और हो अतिरंजित
मम वचन, प्रभू! मम निखिल साधना कर खंडित
तो आप मुझे दें रौरव का अति दंड घोर-
मेरे तप का फल नष्ट भ्रष्ट होवे अथोर।

गंगा जल धारा धारण कर्ता शिवशंकर,
निज रौद्र नयन से भस्म करं वह प्रलयंकर।"
इतना कहकर हो गये मौन मुनि-साधक वर-
सम्पूर्ण सभा में साधुवाद का गूँजा स्वर।

"जय-जय जगदम्बा जनक नंदनी जय सीता!"
सम्पूर्ण सभा में गूँज उठी गौरव गीता।
विह्वल से हो श्री राम, चरण में गिर अतिशय -
मुनिवर से बोले - "देव क्षमा कीजे अविनय।"

"कल्याण तुम्हारा हो", कह कर आशीर्वचन
बोले मुनिवर वैदेही को कर सम्बोधन -
"हे पुत्रि! तुम्हें भी यदि प्रमाण हित कुछ कहना
तो कहो आज रघुकुलमणि से, मत चुप रहना।"

सुन वाल्मीकि आदेश मचा फिर आंदोलन,
जन-जन के अंतर्मन में करुणा हुई सघन,
लख बिलख उठे यह दृश्य सुलक्षण श्री लक्ष्मण -
चाहा पुनरपि लें पकड़ जानकी चारु चरण।

हो उठे भरत, मर्माहत, औ' रिपुदमन नयन
हो गए सजल ज्यों घिर आए हों सावन घन,
चाहा पद-रज छू कर करें क्षमायाचना तथा -
अभिव्यक्त करें माता से अपनी मनोव्यथा।

कौसल्या माता हृदय लगाने को अधीर -
हो उठीं, दौड़कर जाना चाहा भीड़ चीर,
चीत्कार कर उठी सकल प्रजा, रो उठी धरा -
नयनों से झरझर निर्झर-सा जल सतत झरा।

चाहा सबने - 'चाहिए नहीं हमको प्रमाण,
अपराध क्षमा हो देवि! कीजिए क्षमादान'
पर लेशमात्र भी किया नहीं अवसर प्रदान-
सीता ने, वसुमति को सम्बोधित कर निदान -

यह कहा मन्द स्वर से करुणा से ओत-प्रोत
निस्पन्दित-सा करता अन्तर तल जन-स्रोत -
"मा वसुन्धरे! तुम क्षमा मूर्ति हो परम अचल!
पतिव्रत में रही तुम्हारे-सम यदि मैं अविचल,

पतिविमुख स्वप्न में भी न रही यहि वैदेही,
परपुरुष-ध्यान यदि किया न मैंने वैसे ही-
तो मुझे हृदय में अपना लो माँ, आज धाम,
अपने भीतर दो माँ, मुझको अंतिम विराम।

जिस से लज्जा-मर्यादा मैं रख सकूँ अचल,
मैं पी न सकूँगी और घोर अपवाद गरम,
तुम हो माँ, अशरण शरण, अकिंचन की सम्बल -
मुझ दीन-हीन-अबला को लो माँ, निज अंचल।

मैं कौशलेश की वधु माँगती भीख आज,
रख लो माता मेरी मर्यादा और लाज,
मैं जाऊँ अब किश ठौर निराश्रित निराधार -
ले लो माँ, मुझ दुखिया को निज आंचल पसार।"

सुन वैदेही सीता का यह करुणा क्रन्दन,
सकरुण कातर औ, दैन्यपूर्ण यह आवेदन,
विस्फोट भयंकर हुआ अलौकिक प्रलयंकर -
हो गया विदीर्ण धैर्य-प्रतिभा भू का अन्तर।

भूधर डोले, डोला अचला का भी आसन
भूकम्प हुआ इस भाँति हुआ भीषण गर्जन,
पृथ्वी ने खंडित हो फैला अंचल सादर
सीता को अपना लिया, दिया सिंहासनवर।

हो गई धरा में लीन धरा-तनया सीता,
रह गई देखती सकल प्रजा हतप्रभ सीता,
यों समा गई धरती में धरती की कन्या -
यश-सिंहासन-आसीन रहेगी वह धन्या। ....

प्रेषिता 
गीता पंडित