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आँख से आंसू बह जाते हैं
लेकिन सबकुछ कह जाते हैं
जो दुनिया को राह दिखाएँ
वो ही तनहा रह जाते हैं
प्यार किया है आखिर उससे
ज़ुल्म भी उसके सह जाते हैं
मोती उनको ही मिलते हैं
जो सागर की तह जाते हैं
पाएंगे क्या खाक किनारा
जो पानी से बह जाते हैं
शब् के सन्नाटे का आलम
ख्वाब भी डरकर रह जाते हैं
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पहलू में ले के गम कोई सोया न जायेगा
अब बोझ हर सवाल का ढोया न जायेगा
महफ़िल से उठ के चल दिए दिल टूटने के बाद
हमसे तुम्हारे सामने रोया न जायेगा
अश्कों से तुम खुतूत को धोया करो मगर
लिक्खा हुआ नसीब का धोया न जायेगा
तूफ़ान-ए- गम में आज हरेक शख्स है असीर
नफ़रत का बीज अब कहीं बोया न जायेगा
लेकर ग़मों की धूल को आँखों में इस तरह
हमसे तेरे ख़याल में खोया न जायेगा
कहती है मौत आज "मुसाफिर" तेरे बगैर
इस शाम-ए-बेचराग में सोया न जायेगा
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शहर में इनदिनों आखिर बहोत माहौल बदला है
कोई घर ही में सिमटा है, कोई दुनिया में फैला है
सियासतदाँ है वो आखिर उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है
भले अन्दर से काला हो, मगर बाहर तो उजला है
मैं ये ही सोचता था कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
मगर देखा जिसे वो ही यहाँ नहले पे देहला है
कहीं गम की घटा काली,कही खुशियों की रंगीनी
ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रूपहला है
न मंजिल का पता उसको, न तो हमवार हैं रस्ते
भरी दुनिया में वो शाइर"मुसाफिर" तो अकेला है
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प्रेषिता
गीता पंडित
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आँख से आंसू बह जाते हैं
लेकिन सबकुछ कह जाते हैं
जो दुनिया को राह दिखाएँ
वो ही तनहा रह जाते हैं
प्यार किया है आखिर उससे
ज़ुल्म भी उसके सह जाते हैं
मोती उनको ही मिलते हैं
जो सागर की तह जाते हैं
पाएंगे क्या खाक किनारा
जो पानी से बह जाते हैं
शब् के सन्नाटे का आलम
ख्वाब भी डरकर रह जाते हैं
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ज़हर है, या के दवा है, क्या है
भर के पैमाना दिया है, क्या है
तेज़ लपटों को देखने वालों
सिर्फ़ धुआं सा उठा है, क्या है
क़ैद हैं अब भी अनगिनत पंछी
इक परिंदा ही उड़ा है, क्या है
है ख़ुशी, वार सामने से किया
तीर सीने में लगा है, क्या है
घर में बर्तन जो हैं, तो खनकेंगे
भीड़ क्यूं इतनी जमा है, क्या है
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पहलू में ले के गम कोई सोया न जायेगा
अब बोझ हर सवाल का ढोया न जायेगा
महफ़िल से उठ के चल दिए दिल टूटने के बाद
हमसे तुम्हारे सामने रोया न जायेगा
अश्कों से तुम खुतूत को धोया करो मगर
लिक्खा हुआ नसीब का धोया न जायेगा
तूफ़ान-ए- गम में आज हरेक शख्स है असीर
नफ़रत का बीज अब कहीं बोया न जायेगा
लेकर ग़मों की धूल को आँखों में इस तरह
हमसे तेरे ख़याल में खोया न जायेगा
कहती है मौत आज "मुसाफिर" तेरे बगैर
इस शाम-ए-बेचराग में सोया न जायेगा
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अब कोई मिलता नहीं बोला जहां है
ये ज़माना उस ज़माने सा कहां है
गर कोई दीवार नफ़रत की खड़ी हो
आदमी होने का ये पहला निशां है
चीनी कम है चाय में,पर देखिये तो
क़ब्र में हैं पाँव फिर भी दिल जवां है
बीच में दैरो-हरम की बात क्यूं कर
इस ज़मीं का आसरा तो आस्मां है
कागज़ों की कश्तियाँ कम पड़ गई
उस नदी को देखिये अब भी रवां है
आप कमसिन हो, न पूछो आज हमसे
इक अनोखी दर्द की ये दास्तां है
ये ग़ज़ल भी सोचती है इन दिनों में
क्यूं 'मुसाफ़िर' अब हमारे दरमियां है
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शहर में इनदिनों आखिर बहोत माहौल बदला है
कोई घर ही में सिमटा है, कोई दुनिया में फैला है
सियासतदाँ है वो आखिर उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है
भले अन्दर से काला हो, मगर बाहर तो उजला है
मैं ये ही सोचता था कोई भी क़ाबिल नहीं मुझसा
मगर देखा जिसे वो ही यहाँ नहले पे देहला है
कहीं गम की घटा काली,कही खुशियों की रंगीनी
ये पर्दा ज़िन्दगी का भी सिनेमा सा रूपहला है
न मंजिल का पता उसको, न तो हमवार हैं रस्ते
भरी दुनिया में वो शाइर"मुसाफिर" तो अकेला है
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प्रेषिता
गीता पंडित
3 comments:
sabhi bahut khoobsoorat gazal hain .aabhar
भावो को संजोये रचना......
बेहद खूबसूरत
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