Tuesday, August 30, 2011

पाँच कवितायें ..... महेंद्र भटनागर


...
..... 


1)

नारी 


चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि!
तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगंध जवानी की
उतरीं जग-व्यापी क्रंदन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी
चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-
पीड़ित जन-जन के जीवन में!
 अब तक केवल बाल बिखेरे
कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भर कर
काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित
पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम
निकली हो बन कर अभिशापिन!
 बलिदानों की आहुति से तुम
भीषण हड़कम्प मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा नहीं रुकेगा
त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा
पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का
मिट्‌टी में आज मिला दोगी!
 समता का, आज़ादी का नव-
इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम
तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन,
बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे
तुम आज मिटाने को आयीं!
.....





2)

कचनार ....



कचनार पहली बार
मेरे द्वार
रह-रह
गह-गह
कुछ ऐसा फूला कचनार
गदराई हर डार!
इतना लहका
इतना दहका
अन्तर की गहराई तक
पैठ गया कचनार!
जामुन रंग नहाया
मेरे गैरिक मन पर छाया
छ्ज्जों और मुँडेरों पर
जम कर बैठ गया कचनार!
पहली बार
मेरे द्वार
कुछ ऐसा झूमा कचनार
रोम-रोम से जैसे उमड़ा प्यार!
अनगिन इच्छाओं का संसार!
पहली बार
ऐसा अद्‌भुत उपहार!
........





३)

तुम 



गौरैया हो
मेरे ऑंगन की
उड़ जाओगी ! 


आज मधुर कलरव से
गूँज रहा घर,

बरस रहा दिशि -दिशि
प्यार-भरा रस-गागर, 

डर है जाने कब जा दूर बिछुड़ जाओगी ! 




जब - तक रहना है साथ
रहे हाथों में हाथ,

सुख-दुख के साथी बन कर
जी लें दिन दो- चार,

परस्पर भर - भर प्यार,
मेरे जीवन - पथ की

पगडंडी हो  जाने कब और कहाँ मुड़ जाओगी !
........





४)

स्मृति ...



याद आते हैं
तुम्हारे सांत्वना के बोल!
आया
टूट कर
दुर्भाग्य के घातक प्रहारों से
तुम्हारे अंक में
पाने शरण!
समवेदना अनुभूति से भर
ओ, मधु बाल!
भाव-विभोर हो
तत्क्षण
तुम्हीं ने प्यार से
मुझको
सहर्ष किया वरण!
दी विष भरे आहत हृदय में
शान्ति मधुजा घोल!
खड़ीं
अब पास में मेरे,
निरखतीं
द्वार हिय का खोल!
याद आते हैं
प्रिया!
मोहन तुम्हारे
सांत्वना के बोल!
.....





५)

साथ न दोगी  ...


जब जगती में कंटक-पथ पर
प्रतिक्षण-प्रतिपल चलना होगा,
स्नेह न होगा जीवन में जब ;
फिर भी तिल-तिल जलना होगा,
घोर निराशा की बदली में
बंदी बनकर पलना होगा,
जीवन की मूक पराजय में
घुट-घुट कर जब घुलना होगा,
क्या उस धुँधले क्षण में तुम भी
बोलो, मेरा साथ न दोगी ?


जब नभ में आँधी-पानी के
आएंगे तूफ़ान भयंकर,
महाप्रलय का गर्जन लेकर
डोल उठेगा पागल सागर,
विचलित होंगे सभी चराचर,
हिल जाएंगे जल-थल-अम्बर,
कोलाहल में खो जाएंगे
मेरे प्राणों के सारे स्वर,
जीवन और मरण की सीमा पर,
क्या बढ़कर हाथ न दोगी ?
.......


साभार
कविता कोष से


प्रेषिका
गीता पंडित






Wednesday, August 24, 2011

पांच कवितायें ..... शशि पाधा की ... स्त्री जीवन के विभिन्न रंग

....
.....


1

तुम तो सदा रहे अनजान ___



तुम तो रहे तटस्थ सदा
मैं लहरों सी चंचल गतिमान
संग बहे, न संग चले
क्या इसका तुझे हुआ था भान?


श्यामल शीतल साँझ सलोनी
सपनों सी संग बनी रही
मांझी के गीतों की गुंजन
इन अधरों पे सजी रही


    मन्द पवन छुए जो आँचल
   मन्द -मन्द मैं गाऊँ गान
  मेरे गीतों की सरगम से
तुम तो सदा रहे अनजान।


अस्ताचल पर बैठा सूरज
बार -बार क्यों मुझे बुलाये
स्वर्णिम किरणों की डोरी से
बांध कभी जो संग ले जाये


      इक बार कभी जो लौट न आऊँ
     दूर कहीं भर लूं उड़ान
    टूटे बन्धन की पीड़ा का
   तुझे हुआ थोड़ा अनुमान?


पल -पल जीवन बीत गया
साधों का घट रीत गया
लहरों ने न तुझे हिलाया
और किनारा जीत गया


    तुम तो, तुम ही बने रहे
   थी मुझसे कुछ पल की पहचान
  पागल मन क्यों फिर भी कहता
  तुझ में ही बसते मन प्राण ?
.......






नारी चेतना ___




न समझे मुझे अब कोई निर्बला
शक्ति रूपा हूँ, नारी हूँ मैं वत्सला।


कोमलाँगी हूँ, अबला न समझे कोई
न धीरज की सीमा से उलझे कोई,
मन की कह दूँ तो पत्थर पिघल जाएंगे
चुप रहूँ तो विवशता न समझे कोई ।


न मैं सीता जिसे कोई राम त्याग दे
न मैं द्रौपदी जिसे दाँव में हार दे ,
न मैं राधा जिसे न ब्याहे कृष्ण
मैं हूँ मीरा जो प्रेम का दान दे ।


अपने कंपन से पर्वत कँपा दूंगी मैं
शीत झरनों में अग्नि जला दूंगी मैं,
आज सूरज को दीपक दिखा सकती हूँ
चांद निकले तो घूंघटा उठा दूंगी मैं ।


मैं नदी हूँ, किनारा तोड़ सकती हूँ
बहती धारा का मुख मोड़ सकती हूँ,
जी चाहे तो सागर से मिल लूंगी मैं
जी चाहे तो रास्ता छोड़ सकती हूँ।


मैं धरा हूँ, मैं जननी, मैं हूँ उर्वरा
मेरे आँचल में ममता का सागर भरा,
मेरी गोदी में सब सुख की नदियाँ भरीं
मेरे नयनों से स्नेह का सावन झरा।

दया मैं , क्षमा मैं , हूं ब्रह्मा सुता
मैं हूँ नारी जिसे पूजते देवता ।
......






3
पाहुन ___



वासंती पाहुन घर आया
डार देह की खिली-खिली
           आशाओं के फूल खिले
                 नेह की गगरी भरी- भरी

उड़ -उड़ जाये चुनरी मोरी
जाने कितने पंख लगे
छम-छम बोले पायल मोरी
कंगना मन की बात कहे

           ओझल न हो पल भर साजन
                 अँखियाँ मोरी जगी- जगी ।

कभी निहारूँ सुन्दर मुख मैं
कभी मैं सूनी माँग भरूँ
चन्दन कोमल अँग सँवारे
धीमे - धीमे पाँव धरूँ

           चाह से तुमने देखा जैसे
                 मैं मिस्री की डली- डली

उर से उभरे गान सुरीले
मनवा डोले- डोले
बाहें बन्धनवार बनें जब
गाऊँ हौले- हौले

           प्राणों की बगिया में मोरे
                 केसर कलियाँ झरी- झरी

फाल्गुन की रुत लौट के आई
आँगन बगिया झूमे
गगन विहारी चँदा पल-पल
मुझ विरहन को ढूँढे

           किरण जाल न डाल चितेरे
                 आज हुई मैं नई-नई |
............





4
अनुभूति ___



नील गगन की नील मणि सी
ऊषा की अरुणाई सी
नव कलियों के मृदुल हास सी
सावन की पुरवाई सी


दर्पण देख सके न रूप
थोड़ी छाया थोड़ी धूप
अपनी तो पहचान यही है
और मेरा कोई नाम नहीं है।


रेखाओं से घिरी नहीं मैं
न कोई सीमा न कोई बाधा
आकारों में बँधी नहीं मैं
सूर्य ¬¬-चाँद यूँ आधा -आधा


खुशबू के संग उड़ती फिरती
कोई मुझको रोक न पाए
नदिया की धारा संग बहती
कोई मुझको बाँध न पाए


जहाँ चलूँ मैं , पंथ वही है
अपनी तो पहचान यही है।
और मेरा कोई नाम नहीं है।


नीले अम्बर के आँगन में
पंख बिना उड़ जाऊँ मैं
इन्द्र धनु की बाँध के डोरी
बदली में मिल जाऊँ मैं


पवन जो छेड़े राग रागिनी
मन के तार बजाऊँ मैं
मन की भाषा पढ़ ले कोई
नि:स्वर गीत सुनाऊँ मैं


जो भी गाऊँ राग वही है
अपनी तो पहचान यही है।
और मेरा कोई नाम नहीं है।


पर्वत झरने भाई बाँधव
नदिया बगिया सखि सहेली
दूर क्षितिज है घर की देहरी्
रूप मेरा अनबूझ पहेली


रेत कणों का शीत बिछौना
शशिकिरणों की ओढ़ूँ चादर
चंचल लहरें प्राण स्पन्दन
विचरण को है गहरा सागर


जहाँ भी जाऊँ नीड़ वही है
अपनी तो पहचान यही है
और मेरा कोई नाम नहीं है।
.....





5
संधिकाल ___



सुबह की धूप ने अभी
ओस बूँद पी नहीं
आँख भोर की अभी
नींद से जगी नहीं
पंछियों की पाँत ने
नभ की राह ली नहीं
किरणों की डोरियाँ अभी
शाख से बँधी नहीं


शयामली अलक अभी
रात की बँधी नहीं
चाँद को निहारती
चातकी थकी नहीं
तारों की माल मे जली
दीपिका बुझी नहीं
हर शृंगार की कली
शाख से झरी नहीं


धरा को आँख में सजा
चाँद भी रुका-रुका
पुनर्मिलन की आस में
गगन भी झुका झुका
द्वार पर दिवस खड़ा
आँख रात की भरी
विरह और मिलन की
कैसी यह निर्मम घड़ी |
........


साभार ( कविता कोष )

प्रेषिका
गीता पंडित

Wednesday, August 17, 2011

चार कवितायें ..... आकाँक्षा पारे

....
......
 
1  
बित्ते भर की चिंदी ...

पीले पड़ गए उन पन्नों पर सब लिखा है बिलकुल वैसा ही
कागज़ की सलवटों के बीच
बस मिट गए हैं कुछ शब्द।
अस्पष्ट अक्षरों को पढ़ सकती हूं बिना रूके आज भी
बित्ते भर की चिंदी में
समाई हुई हूँ मैं।
 
अनगढ़ लिखावट से लिखी गई है एक अल्हड़ प्रणय-गाथा
उसमें मौज़ूद है
सांझे सपने, सांझा भय
झूले से भी लंबी प्रेम की पींगे
उसमें मौज़ूद है
मुट्ठी में दबे होने का गर्म अहसास
क्षण भर को खुली हथेली की ताजा साँस
फिर पसीजती हथेलियों में क़ैद होने की गुनगुनाहट
अर्से से पर्ची ने देखी नहीं है धूम
न ले पाई है वह चैन की नींद
कभी डायरी तो कभी संदूकची में
छुपती रही है यहाँ-वहाँ
ताकि कोई देख न ले और जान न जाए
चिरस्वयंवरा होने का राज।
........

 
 
2
मुक्ति पर्व ...
 
 
तुम हमारे परिवार के मुखिया हो
तुम्हारा लाया हुआ धन
मुहैया कराता है हमें अन्न।

तुम हो तो हम नहीं कहलातीं हैं अनाथ
रिश्तेदारों का आना-जाना
त्योहारों पर पकवानों का महकना
हमारी माँ का गहना
सब तुम्ही हो।

तुम हो तो सजता है माँ के माथे सिंदूर
तुम हो तो ही वह कर पाती है
सुहागनों वाले नेग-जोग।
उसे नहीं बैठना पड़ता सफ़ेद कपड़ों में लिपटी
औरतों की कतार में।

सुबह उठ कर उसका मुँह देख लेने पर
कोई नहीं कोसता उसे
न रास्ते पर दुत्कार देता है उसे कोई।

मालकिन का संबोधन अब भी है उसके चरणों में
यह तुम्हारा प्यार ही है जो
पाँच बार हरियाई कोख के बाद भी
निपुत्र अपनी धर्मपत्नी को गढ़ा देते हो हर साल कोई न कोई गहना।

दरअसल पूजा जाना चाहिए तुम्हें
देवता की तरह।
लेकिन ऐसा नहीं हो पाता
हम जब भी चाहती हैं तुम्हें पूजना
तुमसे स्नेह करना
तुम्हारे चरणों में नतमस्तक हो जाना
तभी
हाँ, बिलकुल तभी पिता
याद आ जाती है-

तमाम विशेषणों से नवाजी जाती
तुम्हारे चरण-कमलों और मज़बूत मुट्ठी की मार से बचती
मुँह पर आँचल धरे तुम्हारे लिए
गिलास भरती तुम्हारे चखना में कम मिर्च के लिए दुत्कारी जाती

करवा चौथ के दिन जल की बजाय
आँसुओं से अर्ध्य देती दीपावली के दिन दीये की जगह जलती
होली के दिन
हर रंग के बीच खुद का रंग छुपाती
सावन के महीने में
अपनी देहरी को लांघने के लिए तरसती माँ। पिता, तब हम पाँचों
बिना भाई की तुम्हारी अभागी बेटियाँ
प्रार्थना करती हैं, ईश्वर से
तुम मुक्त हो इस देह से।
तुम्हारी आत्मा की मुक्ति ही
हमारी माँ का मुक्ति पर्व है।


......
 
 
 
3
एक टुकड़ा आसमान.....
 
 
लड़की के हिस्से में है
खिड़की से दिखता
आसमान का टुकड़ा
खुली सड़क का मुँहाना
एक व्यस्त चौराहा
और दिन भर का लम्बा इन्तज़ार।

खिड़की पर तने परदे के पीछे से
उसकी आँखें जमी रहती हैं
व्यस्त चौराहे की भीड़ में
खोजती हैं निगाहें
रोज एक परिचित चेहरा।

अब चेहरा भी करता है इन्तज़ार
दो आँखें
हो गई हैं चार।

दबी जुबान से
फैलने लगी हैं
लड़की की इच्छाएँ

अब छीन लिया गया है
लड़की से उसके हिस्से का
एक टुकड़ा आसमान भी।
.........
 
 
 
4
रत के शरीर में लोहा...
 
 
औरत लेती है लोहा हर रोज़
सड़क पर, बस में और हर जगह
पाए जाने वाले आशिकों से

उसका मन हो जाता है लोहे का
बचनी नहीं संवेदनाएँ

बड़े शहर की भाग-दौड़ के बीच
लोहे के चने चबाने जैसा है
दफ़्तर और घर के बीच का संतुलन
कर जाती है वह यह भी आसानी से

जैसे लोहे पर चढ़ाई जाती है सान
उसी तरह वह भी हमेशा
चढ़ी रहती है हाल पर

इतना लोहा होने के बावजूद
एक नन्ही किलकारी
तोड़ देती है दम
उसकी गुनगुनी कोख में
क्योंकि
डॉक्टर कहते हैं
ख़ून में लोहे की कमी थी।
........
 
 
साभार
 
प्रेषिका
गीता पंडित
 
 
 

Thursday, August 11, 2011

स्त्री.....गीता पंडित... अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो..

 
 
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो...
असीम पीड़ा का विषय है जब कोई स्त्री
ऐसा सोचने पर मजबूर हो जाती है
नकारती है अपने अस्तित्व को,
अपने होने को ...
 
ओह !!!!!!!
 
आज इसी पीड़ा को समर्पित है
मेरी कुछ पंक्तियाँ...
 
 
...
......
 
 
स्त्री____
 
पूर्ण समर्पण के धागों में बंध - कर कब ना वो हर्षाई,
नयन मूंदकर साथ तुम्हारे हरपथ पर वो चलकर आई,
जितना ओढ़ा उसने तुमको,  उतना वस्त्र - हीन हो आई , 
द्वार  झरोखे सभी बंद हैं श्वास से अब हो गयी जुदाई,
कितने और मुखौटे उसके जीवन की हो गयी लघुताई,
श्याम तुम्हारी प्रीत बखाने राधा क्यूँ ना नाम कहाई ||
 
 
...गीता पंडित  

Monday, August 8, 2011

चार कवितायें ...कात्यायनी की...

....
......



इस स्त्री से डरो....



यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे
मेंयंत्रणागृहों के बारे में।
उससे पूछो
पिंजरे के बारे में
पूछोवह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे
में।
जाल के बारे में पूछने पर

गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के
बारे मेंबातें करने लगती है।
यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने
लगती हैप्यार के बारे में एक गीत।

रहस्यमय हैं इस स्त्री की
उलटबासियाँइन्हें समझो,इस स्त्री से डरो।
.......






(सृष्टिकर्ता ने नारी को रचते समय बिस्तर, घर, ज़ेवर, अपवित्र इच्छाएँ, ईर्ष्या, बेईमानी और दुर्व्यवहार दिया -'मनु')


अपराजिता ...


उन्होंने यही
सिर्फ़
यही दिया हमेंअपनी वहशी वासनाओं की तृप्ति के लिए
दिया एक बिस्तर
जीवन
घिसने के लिए, राख होते रहने के लिएचौका-बरतन करने के लिए बस एक घर
समय-समय
परनुमाइश के लिए गहने पहनाए
और हमारी आत्मा को पराजित करने के लिए
लाद
दिया उस परतमाम अपवित्र इच्छाओं और दुष्कर्मों का भार।

पर नहीं कर सके
पराजित वेहमारी अजेय आत्मा को
उनके उत्तराधिकारी
और फिर उनके
उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी भीनहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की
अमर-अजय आत्मा कोउसी तरह नहीं पराजित कर सके वे
हमारी अजेय आत्मा को
आज
भी वह संघर्षरत हैनित-निरंतर
उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें
ही हैं
बिल्कुल हमारी ही तरह
 !
.....



नहीं हो सकता तेरा भला ...
 
.......
   
बेवकूफ़ जाहिल औरत !कैसे कोई करेगा तेरा भला?अमृता शेरगिल का तूनेनाम तक नहीं सुना
बमुश्किल तमाम बस इतना ही
जान सकी हो कि
इन्दिरा
गाँधी इस मुल्क़ की रानी थीं।
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार
नहीं होता)
रह गई तू निपट गँवार की गँवार।


पी०टी० उषा को तो जानती तक
नहींमार्गरेट अल्वा एक अजूबा है
तुम्हारे लिए।
'क ख ग घ
' आता नहीं
'मानुषी
'
कैसे पढ़ेगी भला!कैसे होगा तुम्हारा भला-
मैं तो परेशान हो
उठता हूँआज़िज़ आ गया हूँ मैं तुमसे।
क्या करूँ मैं तुम्हारा?
हे
ईश्वर !मुझे ऐसी औरत क्यों नहीं दीजिसका कुछ तो भला किया जा सकता
यह औरत
तो बस भात राँध सकती हैऔर बच्चे जन सकती है
इसे भला कैसे मुक्त किया जा सकता
है?





भाषा में छिप जाना स्त्री का ...




न जाने क्या सूझा
एक दिन स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा
गईछिपकर बैठ गई।
उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आई रात
भर।
उस दिन

खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिंद
तपते शब्दों
से।
भाषा चुप रही सारी रात।

रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता
रहा।
केवल बच्चे

निर्भीक
गलियों में खेलते रहे।
.....


साभार
कविता कोष से


प्रेषिका
गीता पंडित



Monday, August 1, 2011

तीन कवितायें ..कवि,गीतकार चेतन रामकिशन "देव" की...






"रचनाकार, पहले इंसान होता है!  महिला और पुरुष बाद में होता है!
शब्दकोष पर सबका हक  है!  हमे किसी स्त्री के भेद के चलते ना ही
महिला रचनाकार को कम आंकने का अधिकार है और ना ही पुरुष
रचनाकार को!  यदि प्रतिभा है, चाहें उस प्रतिभाशाली की देह का रूप
महिला हो या पुरुष, हमे उसकी रचना का सम्मान करना चाहिए!


मैंने अपनी ये रचना सिर्फ और सिर्फ इसी सन्देश को देने के लिए
लिखी है!

शब्दों को नमन, भावों को नमन,
प्रेरणा को नमन, प्रतिभा को नमन!- चेतन रामकिशन "देव"


...
.....



१)

रचनाकार
( शब्दों की आत्मा)...


लेखन हो या कविता रचना, या हो मीठा गान!
ये तो शब्दों का संगम है, भेद रहित व्याखान!
रचनाकार की देह महिला, या हो पुरुष का रूप,
शब्दों में ताक़त होगी जब, तभी बने पहचान!


पुरुष- महिला बाद में हैं वो, पहले रचनाकार!
इनके हस्त ने शब्दों से ही, रचा अमिट संसार!
भेद दूर कर, मन से करिए,रचना का सम्मान!
शब्दों में ताक़त होगी जब, तभी बने पहचान.........

पुरुषो ने भी लिखा है यदि, यहाँ अमिट बलिदान!
महिला ने भी इस भूमि में, थामे तीर कमान!
शब्दकोष तो सबका होता, हम क्यूँ रखें भेद,
पुरुष महिला से पहले हैं, हम सब एक इंसान!

पुरुष यदि शब्दों को देता, भाव का जीवन दान!
तो महिला रचनाधर्मी भी, प्रेषित करती प्राण!

भेद दूर कर मन से करिए, भावों का उत्थान!
शब्दों में ताक़त जब होगी, तभी बने पहचान !

 
पुरुष का चिंतन भी ना कम, ना नारी कमजोर!
इन दोनों के शब्द से बंधती, सदा प्रीत की डोर!
अपने इन छोटे शब्दों से "देव" यही समझाता,
रचनाओं को साथ करो तुम, मन को करो विभोर!

कलमकार शब्दों में देता, दृढ, अमिट प्रभाव!
उसके मन में दोष ना होता, ना होता दुर्भाव!

भेद दूर कर मन से करिए, रचना का गुणगान!
शब्दों में ताक़त जब होगी, तभी बने पहचान!"
......





२)

नारी ( अपराधी तो नहीं) ♥♥♥♥♥"



एक नारी का अर्पण देखो!
उसका जरा समर्पण देखो!
हर लम्हा वो त्याग ही करती,
उसका जीवन दर्शन देखो!

लेकिन फिर भी उसी नार को, श्राप मगर समझा जाता है!
वो हंसके जो देखे सबको, पाप मगर समझा जाता है!
दुनिया में नारी मुक्ति की, बात मुझे बेमानी लगती!
उसके जीवन की बगिया में, अब तो बस वीरानी लगती!

ऐसा ही माहौल रहा तो, नारी कब आज़ाद रहेगी!
वो रोएगी सिसक सिसक के, वो तो बस बर्बाद रहेगी!


उसके मन का मंथन देखो!
प्रेम भरा वो उपवन देखो!
उसकी इन दोनों आँखों में,
हम सबका अभिनन्दन देखो!

लेकिन फिर भी उसी नार को, श्राप मगर समझा जाता है!
खुशियों की इस जननी को, संताप मगर समझा जाता है!
दुनिया में नारी मुक्ति की, बात मुझे बेमानी लगती!
जिसके पन्ने सिमट रहें हों, ऐसी मुझे कहानी लगती!

ऐसा ही माहौल रहा तो, वो कैसे फ़रियाद कहेगी!
वो रोएगी सिसक सिसक के, वो तो बस बर्बाद रहेगी!

उसका मनवा पावन देखो!
हर्ष भरा वो आगम देखो!
हमको ठेस जरा लगने पर,
उसके भीगे नैनन देखो!

लेकिन फिर भी उसी नार को, श्राप मगर समझा जाता है!
उस मस्तक के गौरव को, पदचाप मगर समझा जाता है!
दुनिया में नारी मुक्ति की, बात मुझे बेमानी लगती!
"देव" ने बदली सूरत है बस, नियत वही पुरानी लगती!

ऐसा ही माहौल रहा तो,  वो कैसे अवसाद सहेगी!
वो रोएगी सिसक सिसक के, वो तो बस बर्बाद रहेगी!”
......








3)

बेटी कि विदाई ♥♥♥♥♥


पिता की आंख में आंसू, है माँ की आंख भर आई!
विदा जब हो रही बेटी,  तो ख़ामोशी पसर आई!
समूचे द्रश्य नयनों के पटल पे,  आ गए झट से,
कभी जिद करती थी बेटी, कभी रोई थी, मुस्काई!


जहाँ बेटी विदा होती, वहां ऐसा ही होता है!
खड़ा कुछ दूर कोने में, उसी का भाई रोता है!

कलाई देखता अपनी, जहाँ राखी थी बंधवाई!
पिता की आंख में आंसू, है माँ की आंख भर आई.....

विदाई के समय बेटी का भी, ये हाल होता है!
जो पल थे साथ में काटे, उन्ही का ख्याल होता है!
माँ उसके सर पे रखकर हाथ ये समझाती है उसको,
हर एक बेटी का दूजा घर, वही ससुराल होता है!


जहाँ बेटी विदा होती, विरह का काल होता है!
धरा भी घूमना रोके ,ये नभ भी लाल होता है!

नरम हाथों से माता के, कभी चोटी थी बंधवाई!
पिता की आंख में आंसू, है माँ की आंख भर आई.....

सभी आशीष दे बेटी को, फिर डोली बिठाते हैं!
निभाना सात वचनों को, यही उसको सिखाते हैं!
किसी सम्बन्ध में बेटी कभी तू भेद ना करना,
सहज व्यवहार रखने की, उसे बातें बताते हैं!

जहाँ बेटी विदा होती, वहां ऐसा ही होता है!
नया एक जन्म होता है, नया संसार होता है!

बंधी है प्रीत की डोरी, खिली कलियाँ भी मुरझाई!
पिता की आंख में आंसू, है माँ की आंख भर आई!
.......



प्रेषिका
गीता पंडित