Friday, October 26, 2012

दो कवितायें ... अज्ञेय की



Agyeya.jpg

सर्जना के क्षण___


एक क्षण भर और 
रहने दो मुझे अभिभूत,
फिर 
जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं 
ज्योति शिखायें 
वहीं तुम भी चली जाना 
शांत तेजोरूप ! 

एक क्षण भर और, 
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते
बूँद स्वाति की भले हो 
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से 
वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को, 
भले ही फिर व्यथा के तम में 
बरस पर बरस बीतें 
एक मुक्तारूप को पकते |
........




उड़ चल हारिल ____

उड़ चल हारिल लिये हाथ में 
यही अकेला ओछा तिनका 
उषा जाग उठी प्राची में 
कैसी बाट, भरोसा किन का! 

शक्ति रहे तेरे हाथों में 
छूट न जाय यह चाह सृजन की 
शक्ति रहे तेरे हाथों में 
रुक न जाय यह गति जीवन की! 

ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर 
बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल 
अनथक पंखों की चोटों से 
नभ में एक मचा दे हलचल! 

तिनका तेरे हाथों में है 
अमर एक रचना का साधन 
तिनका तेरे पंजे में है 
विधना के प्राणों का स्पंदन! 

काँप न यद्यपि दसों दिशा में 
तुझे शून्य नभ घेर रहा है 
रुक न यद्यपि उपहास जगत का 
तुझको पथ से हेर रहा है! 

तू मिट्टी था, किन्तु आज 
मिट्टी को तूने बाँध लिया है 
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का 
गुर तूने पहचान लिया है! 

मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?

आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा 
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका 
सूने पथ का एक सहारा! 

मिट्टी से जो छीन लिया है 
वह तज देना धर्म नहीं है 
जीवन साधन की अवहेला 
कर्मवीर का कर्म नहीं है! 

तिनका पथ की धूल स्वयं तू 
है अनंत की पावन धूली 
किन्तु आज तूने नभ पथ में 
क्षण में बद्ध अमरता छू ली! 

ऊषा जाग उठी प्राची में 
आवाहन यह नूतन दिन का 
उड़ चल हारिल लिये हाथ में 
एक अकेला पावन तिनका!
............

गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938



प्रेषिता 
गीता पंडित 


साभार 
कविता  कोश से 



        




Thursday, October 25, 2012

एक कविता ..... विमल कुमार की


सिर्फ प्यार से ही लड़ा जा सकता है इस संसार में

विमल कुमार ने यह कविता कुछ दिनों पहले प्रकाशित प्रीति चौधरी की कविता के
प्रतिवाद में लिखी है. एक कवि अपना मतान्तर कविता के माध्यम से प्रकट कर
रहा है. स्त्री-विमर्श से कुछ उदारता बरतने का आग्रह करती यह कविता पढ़ने
के काबिल तो है, जरूरी नहीं है कि आप इससे सहमत हों ही- जानकी पुल.
================================================================


सिर्फ प्यार से लड़ा जा सकता है हिंसा के खिलाफ

मंडराते रहे सदियों से
अब तक न जाने कितने गिद्ध
तुम्हारे इर्द-गिर्द

घूमते रहे
शहर में
न जाने कितने भेडिये
दिन-रात तुम्हारे पास

जानता हूं
चाहकर भी नहीं कर पाती
कई बार तुम मुझ पर यकीन
समझ लिया है
तुमने भी मुझे
एक भेडिया आखिरकार
मान लिया है गोया
मैं हूं एक गिद्ध

तुम जब करोगी प्यार मुझे
तो लौट जाओगी चीख कर
सपने में जो दिखेगा तुम्हें
मेरे चेहरे पर लटका एक मुखौटा
डराता हूं तुम्हें
इतनी आशंकाओं के बीच जी रही हो तुम
न जाने कब से इतनी क्रूरताओं के बीच
बहुत स्वाभाविक है तुम्हारा संशय

पर इस तरह कैसे जी पाओगी तुम
अपना यह सुंदर जीवन
मेरे साथ
मैं भी कहां जी पा रहा यह जीवन
कहां मिल पा रहा वह सुख
जब चारों ओर फैला हो झूठ दुनिया में
क्या तुमने कभी सोचा है
किसने पैदा किया यह अविश्वास
किसने तोड़ा भरोसा एक दूसरे पर से
तुमने मुझे जन्म दिया है एक मनुष्य के रूप में
तो फिर कैसे मैं बन गया
एक भेडिया बड़ा होकर
कैसे पैदा हो गया
एक गिद्ध मेरे भीतर

क्या तुम्हें नहीं लगता
तुम्हारे गर्भ के बाहर ही बना हूं
मैं एक नरभक्षी
अपने समय में
क्या तुम यह नहीं मानती हो
सिर्फ प्यार से ही लड़ा जा सकता है
इस संसार में
किसी भी तरह की हिंसा से
एक दूसरे को चुनौती देकर नहीं
.......



प्रषिता
गीता पंडित 


साभार 


Monday, October 15, 2012

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला "... कुछ कवितायें ..

....
.....

गीत गाने दो मुझे ___ 

गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।

चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रूकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।

भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को। 
...........




गहन है ये अंधकारा  ___

गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।
खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।
कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा। 
.......


 तोडती पत्थर ____

वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
.......


प्रेषिता 
गीता पंडित 

साभार 
कविता कोश से 






पुष्पेन्द्र फाल्गुन ... ६ कवितायें ..

....
......

 शहर का पुल___

उगता है सूर्य  
उसी पुल के नीचे से और पीछे से रोजाना
कि जिस पर दिन भर दौड़ता है शहर
और रात में लकलकाता है सन्नाटा 

तेज होती सिसकारियों पर
अंकुश लगाने के प्रयास में
एक बूढ़ी खंखारती है 
उत्तेजित युवती झकझोरती है 
अपने पियक्कड़ पति को जो भरभरा गया है
उकसाकर उसे
युवती बिलखती है
उसका विलाप कुलबुला देता है
पुल पर खड़े तमाम रिक्शों और ठेलों को

शहर भर में बिखरा फुटपाथ
सिमट आता है रात में
पुल पर लगी उन दो तख्तियों के बीच
कि जिस पर खोंइची गई हैं
भूमिपूजन से शिलान्यास तक की तारीखें
और उबटा हुआ है किसी उदघाटनकर्ता का नाम
पुल निर्माता कंपनियों के साथ
तख्तियां सलामत हैं कि कुत्ते
सींचते हैं उन्हें प्रतिदिन
बिना सूंघे ही

पुल के नीचे 
प्रभु के वराह अवतार के लिए हर सुबह 
इलाके के लोग छोड़ आते हैं रौरव

किशोरों की आँखों में पनपता है
मिनी स्कर्ट और पैन्टियों के रंग सना आशावाद
इसी पुल के नीचे

कई स्त्रियों की पेट की आग में
पड़ता है पानी इसी पुल के नीचे

एक युवक इस पुल को देख-देख
बन गया है नामी लेखक

वह बूढ़ा जो आप सबका सम्राट है
इस पुल पर बोल सकता है कई-कई घंटे लगातार

पुल के नीचे से बहा करता है
एक बड़ा नाला इस निर्देश के साथ कि
शहर भर का कचरा बहाना होगा उसे 
दूसरे शहर में

पता नहीं
दूसरे शहर में कोई पुल है या नहीं
इस पुल पर जो नहीं रहते
वे देख सकते है टी.वी. पर शहर का पुल
........



कहीं बड़ी होती है भीतर की दुनिया ___

बाहर की दुनिया से
कहीं-कहीं बड़ी होती है
भीतर की दुनिया

भीतर की दुनिया में बड़े होकर ही
हुआ जा सकता है इंसान
पायी जा सकती है इंसानियत
भीतर की दुनिया में बड़े होकर ही
बनाई जा सकती है बाहर की दुनिया
और बेहतर और सुन्दर और जीने लायक

भीतर की दुनिया में बड़े होकर ही
खिला जा सकता है जैसे फूल
उड़ा जा सकता है जैसे तितली

भीतर की दुनिया में बड़े होने के लिए
अपरिहार्य होती है बाहर की दुनिया
और उसकी ज़मीन-उसका आसमान
उसकी रोशनी-उसका अँधेरा
उसकी हवा-उसका पानी
उसकी संस्कृति-उसका इतिहास

जो भीतर से बड़े नहीं होते
वे बाहर की दुनिया में
रह जाते हैं चार-अंगुश्त छोटे
हर समय, हर जरूरत, हर मौके
.......


सो जाओ रात ___

चारों तरफ
बरस रही है रात
नभ-मंडल का पर्दा खुल गया है

चाँद पर लिख इबारत
रास्ते
सोने चले गए हैं
चांदनी दबे पैर
आ गई है दूब पर 
शबनम
बनाने लगी है घर
पूरे लय में
सितारे खेलते हैं
आँख मिचौनी
शहर की रोशनी से
सूर्य को सपने में देख
रास्ते चौंकते हैं
नींद में

शबनम की तन्मयता
सितारों का संघर्ष देख
अँधेरे को भी नींद आने लगी
नीरव मौन को
सुलाना जरूरी है
कि इससे भंग हो रही है
रास्ते की नींद
सितारों का संघर्ष
शबनम की तन्मयता

आओ
मौन को सुलाएं
नींद तुम लोरी गाओ
मैं टोकरी में सपने भर
खड़ा हो जाता हूँ
मौन के सिराहने
रात का बरसना ज़ारी है
तो रहा करे
कसम से
......


रोशनी ___

आग में नहीं
भूख में होती है रोशनी
आशाएँ
कभी राख नहीं होती
बालसुलभ रहती है
हिम्मत, ताउम्र
जरूरत
अविष्कार की जननी नहीं, पिता है
लौ लगे जीवन ही
अँधेरे का रोशनदान बन पाएंगे।
......


ईश्वर ___

दौड़ते हुए लोगों की आकांक्षा
दौड़ने के ख्वाहिशमंदों के लिए एक आकर्षण
दौड़कर थके और पस्त हुए लोगों के लिए होमियोपैथिक दवा

जो दौड़ न पाए
उनके लिए तर्क-वितर्क

दौड़ते-दौड़ते गिर गए जो
उनके लिए प्यास

जिसने अभी चलना नहीं सीखा
उसके लिए जरूरी पाठ्यक्रम

असल में ईश्वर
उपन्यास का एक ऐसा पात्र

जिसके अस्तित्व पर है
लेखक का सर्वाधिकार.
.....


जारी तमाशा ___

उनींदी आँखें जब नहीं सुन पाती दस्तक
भुरभुरी दीवार में आसान होती है सेंध
छिटक जाती है सांकल अपने बिंब से
तब तक जरूरत का दरवाजा
आगमन-प्रस्थान के औपचारिक द्वार में तब्दील हो चुका होता है.

ले जानेवाले अपने पसंदीदा बक्से के लिए
हटाते हैं बक्सों की परत
उन्हें मालूम है कि किस बक्से के साथ कितना नफा-नुकसान जुड़ा है
आँख खुलने पर भी
लंबा समय लगता है इस यकीन पर कि वही बक्सा चोरी हुआ है
जिसमें सबसे कीमती सामान तह कर रखा गया था.

दिल धक्क है, जुबान सुन्न
दूसरों का तमाशा बनाने की हमारी आदत
हमारी देहरी पर भी खींच लाती है तमाशबीनों की भीड़
हर तमाशाई के पास होती है सालाहियत की शहनाई
और पहचान कि किसने आपका बक्सा चोरी किया है.

आप चाहते हैं कि भीड़ सहानुभूति जताए
जो हुआ उसे भूल जाने की बात कहे
दिलासा दे कि ईश्वर की शायद यही मर्जी थी
या कहे कि गीता में भगवान ने कहा है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है
और यह कहना न भूले कि इससे आपकी प्रतिष्ठा पर नहीं आएगी कोई आंच 

लेकिन भीड़तंत्र आपकी तमाम कमजोरियों से वाकिफ है
पुचकारने, फुसलाने, मनाने, समझाने के लिए नहीं इकट्ठा है भीड़
उसकी उंगली के हर इशारे पर आप हैं
और खीझकर कहना ही होता है आपको
धत्त तेरे की ईश्वर की, धत्त तेरे की भगवान की!

हर घटना के लिए बड़ों के पास चश्मदीद-ए-चश्मा है
कौतुहल के आईने पर छोटों का हक है
आपको मिलते हैं कई-कई नुस्खे
दावा है कि इनमें से किसी से भी ढूंढ़ सकते हैं आप
अपना कीमती सामानों वाला बक्सा.

कैसी विडंबना!
हर नुस्खा ले जाता है नजूमी के पास
जिसके पास तैयार है नाम, वेशभूषा, आवाज, चेहरा-मोहरा
कि उनमें से चुन लीजिए आप अपने मतलब का चोर.

एक बक्सा जाते-जाते आपको दे जाता है
जीवन भर की कहानी
और आपके चाहने वालों को प्रगट करने के लिए चिरंतन अफसोस.

जो नुस्खों पर अमल नहीं करते
उन्हें करनी होती है आजीवन परिक्रमा
पुलिस, वकील, अदालत और रिश्वत की
.....


प्रेषिता 
गीता पंडित    

साभार 
कविता कोश

Monday, October 1, 2012

कुछ कवितायें .... अंजना बख्शी

....
.....

यासमीन __

आठ वर्षीय यासमीन
बुन रही है सूत

वह नहीं जानती
स्त्री देह का भूगोल
ना ही अर्थशास्त्र,
उसे मालूम नहीं
छोटे-छोटे अणुओं से
टूटकर परमाणु बनता है
केमिस्ट्री में।
या बीते दिनों की बातें
हो जाया करती हैं
क़ैद हिस्ट्री में।

नहीं जानती वह स्त्री
के भीतर के अंगों
का मनोविज्ञान और,
ना ही पुरूष के भीतरी
अंगों की संरचना।
ज्योमेट्री से भी वह

अनभिज्ञ ही है,
रेखाओं के नाप-तौल
और सूत्रों का नहीं
है उसे ज्ञान।

वह जानती है,
चरखे पर सूत बुनना
और फिर उस सूत को
गोल-गोल फिरकी
पर भरना

वह जानती है
अपनी नन्ही-नन्ही उँगलियों से
धारदार सूत से
बुनना एक शाल,
वह शाल, जिसका
एक तिकोना भी
उसका अपना नहीं।

फिर भी वह
कात रही है सूत,
जिसके रूँये के
मीठे ज़हर का स्वाद
नाक और मुँह से
रास्ते उसके शरीर में
घर कर रहा है

वह नहीं जानती
जो देगा उसे
अब्बा की तरह अस्थमा
और अम्मी की तरह
बीमारियों की लम्बी लिस्ट
और घुटन भरी ज़िदंगी
जिसमें क़ैद होगा
यासमीन की
बीमारियों का एक्सरे।
.......


मैं ___

मैं क़ैद हूँ
औरत की परिभाषा में

मैं क़ैद हूँ
अपने ही बनाए रिश्तों और
संबंधों के मकड़जाल में।

मैं क़ैद हूँ
कोख की बंद क्यारी में।

मैं क़ैद हूँ
माँ के अपनत्व में।

मैं क़ैद हूँ
पति के निजत्व में

और
मैं क़ैद हूँ
अपने ही स्वामित्व में।

मैं क़ैद हूँ
अपने ही में।
......


कराची से आती सदाएं __

रोती हैं मज़ारों पर
लाहौरी माताएँ
बाँट दी गई बेटियाँ
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान
की सरहदों पर

अम्मी की निगाहें
टिकी है हिन्दुस्तान की
धरती पर,
बीजी उड़िकती है राह
लाहौर जाने की
उन्मुक्त विचरते
पक्षियों के देख-देख
सरहदें हो जाती है
बाग-बाग।

पर नहीं आता कोई
पैग़ाम काश्मीर की वादियों
से, मिलने हिन्दुस्तान की
सर-ज़मीं पर
सियासी ताक़तों और
नापाक इरादों ने कर दिया
है क़त्ल, अम्मी-अब्बा
के ख़्वाबों का, सलमा की उम्मीदों का
और मचा रही है स्यापा
लाहौरी माताएँ, बेटियों के
लुट-पिट जाने का,

मौन ग़मगीन है
तालिबानी औरतों-मर्दों के
बारूद पे ढेर हो
जाने पर।

लेकिन कराची से
आ रही है सदाएँ
डरो मत....
मत डरो....
उठा ली है
शबनम ने बंदूक !!
......


मुनिया ___

उस वृक्ष की पत्तियाँ
आज उदास हैं
और उदास है
उस पर बैठी वो काली चिड़िया

आज मुनिया
नहीं आई खेलने
अब वो बड़ी हो गई है
उसका ब्याह रचाया जायेगा
 
गुड्डे-गुड्डी
खेल-खिलौनों
की दुनिया छोड़
मुनिया हो जायेगी
अब उस वृक्ष की जड़-सी स्तब्ध

और हो जाएगी
उसकी जिंदगी
उस काली चिड़िया-सी
जो फुदकना छोड़
बैठी है उदास
उस वृक्ष की टहनी पर।
.......

तस्लीमा के नाम एक कविता __

टूटते हुए अक्सर तुम्हें पा लेने का एहसास 
कभी-कभी ख़ुद से लड़ते हुए 
अक्सर तुम्हें खो देने का एहसास
या रिसते हुये ज़ख़्मों में 
अक्सर तुम्हे खोजने का एहसास
तुम मुझ में अक्सर जीवित हो जाती हो तस्लीमा 
बचपन से तुम भी देखती रही मेरी तरह,
अपनी ही काँटेदार सलीबो पर चढ़ने का दुख 
बचपन से अपने ही बेहद क़रीबी लोगो के 
बीच तुम गुज़रती रही अनाम संघर्ष–यात्राओं से 
बचपन से अब तक की उड़ानों में,
ज़ख़्मों और अनगिनत काँटों से सना 
खींचती रही तुम 
अपना शरीर या अपनी आत्मा को 

शरीर की गंद से लज्जा की सड़कों तक 
कई बार मेरी तरह प्रताड़ित होती रही 
तुम भी वक़्त के हाथों, लेकिन अपनी पीड़ा ,
अपनी इस यात्रा से हो बोर 
नए रूप में जन्म लेती रही तुम 
मेरे ज़ख़्म मेरी तरह एस्ट्राग नही 
ना ही क़द में छोटे हैं, अब सुंदर लगने लगे हैं 
मुझे तुम्हरी तरह !

रिसते-रिसते इन ज़ख़्मों से आकाश तक जाने 
वाली एक सीढ़ी बुनी हैं मैंने 
तुम्हारे ही विचारों की उड़ान से 
और यह देखो तस्लीमा 
मैं यह उड़ी 
दूर... चली
अपने सुंदर ज़ख़्मों के साथ 

कही दूर क्षितिज में 
अपने होने की जिज्ञासा को नाम देने 
या अपने सम्पूर्ण अस्तित्व की पहचान के लिए 

तसलीमा,
उड़ना नही भूली मैं....
अभी उड़ रही हूँ मैं...
अपने कटे पाँवों और 
रिसते ज़ख़्मों के साथ
....... 



प्रेषिता
गीता पंडित 

साभार 
कविता कोश से