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.....
स्त्री !
पित्रसत्तात्मक समाज की झूलती अरगनी पर
टँगी मैली चादर सी
जो कसी है मर्यादाओं,
रीति रिवाजों और कोरी सभ्यताओं की
निष्ठुर चिमटियों से
जिस पर फेंके जाते रहे ताश के पत्ते,
नीलाम होतीं रहीं तमाम द्रोपदियाँ,
हर शाम सजतीं रहीं महफिलें,
पड़तीं रहीं आवारा पान की पीकें,
और धँसते रहे शराब के गिलास उन पर,
रात को वे मैली की जातीं रहीं
मर्दों के बिस्तरों पर
अगली ही सुबह चितकबरी चादरें
टांग दी जातीं वापस अरगनियों पर
चिलचिलाती रिश्तों की धूप में
फड़फड़ाते रहने के लिए ...!!
.......
सुनो,
तुम कहतीं थी न
कि मै तुम्हारे लिए कवितायें नहीं लिखता
क्या तुम्हे याद नहीं
तुम्हारे सोलहवें जन्मदिन की
वह धूसर शाम
जब क्षितिज की आड़ में
तुम्हारी अधखुली पलकों पर उगे साँवले सूरज को
चूम लिया था मैंने
काँपते, तप्त होठों से
तब लिखा था मैंने अपना पहला छंद
और उस दिन जब मेरे बहुत कहने पर
डरी,सहमी,सकुचाई सी तुम
आ पहुँची थीं गाँव के बाहर उस टूटी हवेली में
वहाँ उस रेशमी सी मुलायम चट्टान पर पसरी
तुम्हारी गुलाबी देह के हर पन्ने पर
मेरी रेंगती उँगलियों के पोरों ने
लिखी थी कोई कविता
और तुम्हारी रिसती, नमकीन हथेलियों ने
चट्टान पर उग आयी दूब को
कसकर भींच लिया था
कितनी ही कवितायें लिखीं थी मैंने
हम दोनों ने
प्रेम की वह भरी पूरी किताब
होली के रंग में रंगे दुपट्टे से लिपटी
आज भी रखी होगी
यादों की अलमारी की किसी दराज में
तुम पढ़ो तो सही...
बोलो ...पढोगी न...?
........
कविता
तुम मुझे
बचपन के सुआपंखी दिनों वाली
मैजिक बुक की ही तरह लगती हो
जिसके चटक सफेदी से पुते पन्नों पर
हम बनाया करते लगभग एक जैसे चित्र
भरते कुछ रंग जाने पहचाने
और गढ़ते कहानियाँ
जो भी हम देख पाते
स्कूल की ओर बढ़ता हुआ रामू
दूर आसमान में पतंग धकेलता मोहन
पनघट से गगरी भर ले आती मीना
किसी मोड़हीन सड़क पर
बढ़ते जाते जादुई चित्र
कदम-दर-कदम
पन्नों पर पाँव रखकर
और कह जाते कुछ अधूरी कहानियाँ
कविता
तुम भी तो सँजोए रहती हो
शब्द- चित्र
दिखाती हो सचल दृश्य
मैजिक बुक की ही तरह
आखीर में तुम छोड़ जाती हो एक प्रेणना
सुखान्त कहानी रचने की ...!!
........
मै बनाऊँ एक सुराख खोपड़ी में
तुम लेकर आओ एक कीप
और भर लाओ ज्ञान
वेद,ऋचाओं,उपनिषदों और हिमालय की कन्दराओं का
तुम उड़ेल दो समूचे ब्रम्हाण्ड का ज्ञान
मेरे मस्तिष्क के सभी कोटरों में
ताकि मै जान सकूँ
ज्ञान होना पर्याप्त नहीं
ज्ञान होने का विषय नहीं
ज्ञान विषय है अनुभूति का
ज्ञान के पार भी है एक संसार
निर्वात का
ज्ञान
हो सकता है माध्यम
उस निर्वात तक पहुँचने का
जोकि भरा है खालीपन से
विशुद्ध
खालीपन से...!!
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प्रेषिता
गीता पंडित
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स्त्री !
पित्रसत्तात्मक समाज की झूलती अरगनी पर
टँगी मैली चादर सी
जो कसी है मर्यादाओं,
रीति रिवाजों और कोरी सभ्यताओं की
निष्ठुर चिमटियों से
जिस पर फेंके जाते रहे ताश के पत्ते,
नीलाम होतीं रहीं तमाम द्रोपदियाँ,
हर शाम सजतीं रहीं महफिलें,
पड़तीं रहीं आवारा पान की पीकें,
और धँसते रहे शराब के गिलास उन पर,
रात को वे मैली की जातीं रहीं
मर्दों के बिस्तरों पर
अगली ही सुबह चितकबरी चादरें
टांग दी जातीं वापस अरगनियों पर
चिलचिलाती रिश्तों की धूप में
फड़फड़ाते रहने के लिए ...!!
.......
सुनो,
तुम कहतीं थी न
कि मै तुम्हारे लिए कवितायें नहीं लिखता
क्या तुम्हे याद नहीं
तुम्हारे सोलहवें जन्मदिन की
वह धूसर शाम
जब क्षितिज की आड़ में
तुम्हारी अधखुली पलकों पर उगे साँवले सूरज को
चूम लिया था मैंने
काँपते, तप्त होठों से
तब लिखा था मैंने अपना पहला छंद
और उस दिन जब मेरे बहुत कहने पर
डरी,सहमी,सकुचाई सी तुम
आ पहुँची थीं गाँव के बाहर उस टूटी हवेली में
वहाँ उस रेशमी सी मुलायम चट्टान पर पसरी
तुम्हारी गुलाबी देह के हर पन्ने पर
मेरी रेंगती उँगलियों के पोरों ने
लिखी थी कोई कविता
और तुम्हारी रिसती, नमकीन हथेलियों ने
चट्टान पर उग आयी दूब को
कसकर भींच लिया था
कितनी ही कवितायें लिखीं थी मैंने
हम दोनों ने
प्रेम की वह भरी पूरी किताब
होली के रंग में रंगे दुपट्टे से लिपटी
आज भी रखी होगी
यादों की अलमारी की किसी दराज में
तुम पढ़ो तो सही...
बोलो ...पढोगी न...?
........
कविता
तुम मुझे
बचपन के सुआपंखी दिनों वाली
मैजिक बुक की ही तरह लगती हो
जिसके चटक सफेदी से पुते पन्नों पर
हम बनाया करते लगभग एक जैसे चित्र
भरते कुछ रंग जाने पहचाने
और गढ़ते कहानियाँ
जो भी हम देख पाते
स्कूल की ओर बढ़ता हुआ रामू
दूर आसमान में पतंग धकेलता मोहन
पनघट से गगरी भर ले आती मीना
किसी मोड़हीन सड़क पर
बढ़ते जाते जादुई चित्र
कदम-दर-कदम
पन्नों पर पाँव रखकर
और कह जाते कुछ अधूरी कहानियाँ
कविता
तुम भी तो सँजोए रहती हो
शब्द- चित्र
दिखाती हो सचल दृश्य
मैजिक बुक की ही तरह
आखीर में तुम छोड़ जाती हो एक प्रेणना
सुखान्त कहानी रचने की ...!!
........
मै बनाऊँ एक सुराख खोपड़ी में
तुम लेकर आओ एक कीप
और भर लाओ ज्ञान
वेद,ऋचाओं,उपनिषदों और हिमालय की कन्दराओं का
तुम उड़ेल दो समूचे ब्रम्हाण्ड का ज्ञान
मेरे मस्तिष्क के सभी कोटरों में
ताकि मै जान सकूँ
ज्ञान होना पर्याप्त नहीं
ज्ञान होने का विषय नहीं
ज्ञान विषय है अनुभूति का
ज्ञान के पार भी है एक संसार
निर्वात का
ज्ञान
हो सकता है माध्यम
उस निर्वात तक पहुँचने का
जोकि भरा है खालीपन से
विशुद्ध
खालीपन से...!!
.......
प्रेषिता
गीता पंडित
2 comments:
चारों कवितायेँ बहुत सुन्दर गहन अनुभूतियों को परिभाषित करती है.
latest postअहम् का गुलाम (भाग तीन )
latest postमहाशिव रात्रि
कविताएँ पसंद करने के लिये आपका बहुत बहुत आभार...
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