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तुम तो धूप थी जाड़े की
जिसको मैंने प्यार से
पकड़ रखा था अपनी दोनों हथेलियों के बीच !
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क्या मैं तुम्हारी जिन्दगी में
शामिल हूँ मात्र दिनचर्या की तरह ?
ऱोज ही पूजाघर में
साथ होती हो भक्ति के ,
रसोई में साथ होती हो स्वाद के ,
बाहों में साथ होती हो आसक्ति के ,
मगर इसमें प्रेम कहाँ है ??
आओ हम दोनों खोजें मिल कर
विश्वास के गर्भ से पैदा हुआ प्रेम ,
जिसने अभी ठीक से चलना भी नहीं था सीखा ,
छोड़ दी हम दोनों ने उसकी ऊँगली !
नहीं मालूम उस नवजात को मर्यादा की चौहद्दी ,
गर्म साँसों के कंटीले जंगल में फंसे
हम अपने प्रेम की कराह सुन तो सकते हैं ,
मगर नहीं खोज पा रहे उसके अस्तित्व को !
मेरा विश्वास है वो मिलेगा ,
जरुर मिलेगा !
मगर मुझे अपनी दिनचर्या से मुक्त करोगी तब ,
मुझे अपनी अँगुलियों औं हाथों में
एक दास्ताने की तरह पहनोगी जब !
दसों उँगलियों सी पूर्णत : मेरे भीतर आओगी ,
यकीन मानो
एक भी कांटा नहीं चुभेगा ,
और तभी प्रेम को खोज पाओगी !!
प्रेषिता
गीता पंडित
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तुम तो धूप थी जाड़े की
जिसको मैंने प्यार से
पकड़ रखा था अपनी दोनों हथेलियों के बीच !
जो हमसे बड़े थे
सभी हँसे थे
कि धूप तो हथेलियों में भरी नजर आती है
अंततः फिसल जाती है !
नहीं फिसली धूप,
उम्र की गर्मियों में
भरी दोपहरी जब
हथेलियों में भरी धूप ने
जला डाला मुझे
तब लगा
नहीं है वो मेरी धूप
ये तो कोई और है
फिर कहाँ गई वो मीठी धूप ??
कोई नहीं रोया की धूप की मिठास खो गई
गौर से देखा जली हथेलियों को
जहां धूप से चिपक मेरी मुस्कान सो गई !
सच कहूँ
धूप को हथेलियों में पकड़ना ही गलत था
धूप को तो आलिंगन में रखना था
तभी वो मेरी हो पाती
जिस दिन धूप मेरी हो जाती
जलती तो मेरे ही भीतर
पर मुझे न जला पाती !!
सभी हँसे थे
कि धूप तो हथेलियों में भरी नजर आती है
अंततः फिसल जाती है !
नहीं फिसली धूप,
उम्र की गर्मियों में
भरी दोपहरी जब
हथेलियों में भरी धूप ने
जला डाला मुझे
तब लगा
नहीं है वो मेरी धूप
ये तो कोई और है
फिर कहाँ गई वो मीठी धूप ??
कोई नहीं रोया की धूप की मिठास खो गई
गौर से देखा जली हथेलियों को
जहां धूप से चिपक मेरी मुस्कान सो गई !
सच कहूँ
धूप को हथेलियों में पकड़ना ही गलत था
धूप को तो आलिंगन में रखना था
तभी वो मेरी हो पाती
जिस दिन धूप मेरी हो जाती
जलती तो मेरे ही भीतर
पर मुझे न जला पाती !!
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क्या मैं तुम्हारी जिन्दगी में
शामिल हूँ मात्र दिनचर्या की तरह ?
ऱोज ही पूजाघर में
साथ होती हो भक्ति के ,
रसोई में साथ होती हो स्वाद के ,
बाहों में साथ होती हो आसक्ति के ,
मगर इसमें प्रेम कहाँ है ??
आओ हम दोनों खोजें मिल कर
विश्वास के गर्भ से पैदा हुआ प्रेम ,
जिसने अभी ठीक से चलना भी नहीं था सीखा ,
छोड़ दी हम दोनों ने उसकी ऊँगली !
नहीं मालूम उस नवजात को मर्यादा की चौहद्दी ,
गर्म साँसों के कंटीले जंगल में फंसे
हम अपने प्रेम की कराह सुन तो सकते हैं ,
मगर नहीं खोज पा रहे उसके अस्तित्व को !
मेरा विश्वास है वो मिलेगा ,
जरुर मिलेगा !
मगर मुझे अपनी दिनचर्या से मुक्त करोगी तब ,
मुझे अपनी अँगुलियों औं हाथों में
एक दास्ताने की तरह पहनोगी जब !
दसों उँगलियों सी पूर्णत : मेरे भीतर आओगी ,
यकीन मानो
एक भी कांटा नहीं चुभेगा ,
और तभी प्रेम को खोज पाओगी !!
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गीता पंडित
1 comment:
बहुत ही प्यारी और भावो को संजोये रचना......
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