Friday, December 28, 2012

ब्रूनो की बेटियाँ ........ आलोक धन्वा

Photo: दस दिन से आलोक धन्वा की  कविता "ब्रूनो की बेटियाँ" दिमाग में घुमड़ रही है, मन को मथ रही है. अंततः मैं इसे आपके सामने रख कर अपना बोझ हल्का कर रहा हूँ.

ब्रूनो की बेटियाँ-  आलोक धन्वा

ज्योर्दानों फ़िलिप्पों ब्रूनो सोलहवीं सदी के महान इतालवी वैज्ञानिक और दार्शनिक थे। उन्होंने गिरजे के वर्चस्व और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कोपरनिकस की इस स्थापना का समर्थन किया कि ब्रह्मांड के केन्द्र में सूर्य है और हमारी पृथ्वी के अलावा और भी पृथ्वियाँ हैं। सन 1600 में ईसाई धर्म न्यायालय के आदेश पर उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया। बाद में महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी वैज्ञानिक सिद्धांत का विकास किया।

(यह कविता सामन्ती दानवों द्वारा  बिहार के आंचलिक इलाके की मेहनतकश मजदूर औरतों के साथ बलात्कार करके उन्हें जिन्दा जला दिये जाने की एक बीभत्स और जघन्य बारदात की महाकाव्यात्मक गाथा है. इसे बार-बार गया जाना चाहिए, जब तक हमारा देश औरतों के रहने लायक नहीं हो जाता.)

वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं
उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।

उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी
जिन्होंने उनकी हत्या की !

उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थी धूप में।

गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !

वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं
और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी?
कि उन्होंने बगैर किसी इच्छा के जन्म दिया?

उदासीनता नहीं थी उनका गर्भ
ग़लती नहीं थी उनका गर्भ
आदत नहीं थी उनका गर्भ
कोई नशा-
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ

कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री?

उनके सनम थे
उनमें झंकार थी

वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी व्हेल के भीतर नहीं-पूरी दुनिया में
पूरी दुनिया के नौ महीने !

दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का?

तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आये
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी?

किस देश की नागरिक होती हैं वे
जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वी की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे 
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया !

क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों की दुनिया?

आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं

उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है !

कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी
और 
अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी।

वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफेद तने पर

बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर

वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थी यहाँ तक।

उनके दरवाज़े थे

जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तम्बाकू के पत्ते-
जो धीरे धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी।

वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे

उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में।

वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था

दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़ियाँ पकड़ लेती थीं हवा में ही। 

वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी।

वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थीं झाड़ियों को
आँगन में जाने से।

घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छाएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया था उन्होंने
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाखुन से नहीं

कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर 
वे मिट्टी की दीवारों थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नयी मिट्टी
चढ़ाई जाती थी !
वे उनके घर थे-इन्तज़ार नहीं।
पेड़ केे कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं।

सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया के नक्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे

वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं? वे कहाँ आती थीं?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह?

क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्या मेरे लिए नहीं?
क्या तुम्हारे लिए नहीं?

क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारो का पेट पालना था?

कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िन्दगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है?

कैसे देखते हो तुम श्रम को !

शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा

शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए

उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं !

शहर उनकी ज़िन्दगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं !

उनकी हत्या की गयी
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्त्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !

वह क्या था उनके होने में 
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षो। में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?

वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका

जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूकों के घेरे में?

बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ !

मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर !

वह क्या था उनके होने में 
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता !

पागल तलवारें नहीं थरं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं

रानियाँ मिट गयीं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की

रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रहीं हैं।

(कविता कोश से आभार सहित)
                                       आलोक धन्वा



ब्रूनो की बेटियाँ ____




ज्योर्दानों फ़िलिप्पों ब्रूनो सोलहवीं सदी के महान इतालवी वैज्ञानिक और दार्शनिक थे। उन्होंने गिरजे के वर्चस्व और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कोपरनिकस की इस स्थापना का समर्थन किया कि ब्रह्मांड के केन्द्र में सूर्य है और हमारी पृथ्वी के अलावा और भी पृथ्वियाँ हैं। सन 1600 में ईसाई धर्म न्यायालय के आदेश पर उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया। बाद में महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी वैज्ञानिक सिद्धांत का विकास किया।





वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं


उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।

उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी 
जिन्होंने उनकी हत्या की !

उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थी धूप में।

गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !

वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं
और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी?
कि उन्होंने बगैर किसी इच्छा के जन्म दिया?

उदासीनता नहीं थी उनका गर्भ
ग़लती नहीं थी उनका गर्भ
आदत नहीं थी उनका गर्भ
कोई नशा-
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ

कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री?

उनके सनम थे
उनमें झंकार थी

वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी व्हेल के भीतर नहीं-पूरी दुनिया में
पूरी दुनिया के नौ महीने !

दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का?

तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आये
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी?

किस देश की नागरिक होती हैं वे
जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वी की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे 
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया !

क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों की दुनिया?

आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं

उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है !

कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी
और 
अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी।

वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफेद तने पर

बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर

वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थी यहाँ तक।

उनके दरवाज़े थे

जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तम्बाकू के पत्ते-
जो धीरे धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी।

वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे

उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में।

वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था

दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़ियाँ पकड़ लेती थीं हवा में ही। 

वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी।

वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थीं झाड़ियों को
आँगन में जाने से।

घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छाएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया था उन्होंने
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाखुन से नहीं

कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर 
वे मिट्टी की दीवारों थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नयी मिट्टी
चढ़ाई जाती थी !
वे उनके घर थे-इन्तज़ार नहीं।
पेड़ केे कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं।

सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया के नक्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे

वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं? वे कहाँ आती थीं?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह?

क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्या मेरे लिए नहीं?
क्या तुम्हारे लिए नहीं?

क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारो का पेट पालना था?

कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िन्दगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है?

कैसे देखते हो तुम श्रम को !

शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा

शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए

उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं !

शहर उनकी ज़िन्दगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं !

उनकी हत्या की गयी
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्त्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !

वह क्या था उनके होने में 
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षो। में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?

वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका

जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूकों के घेरे में?

बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ !

मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर !

वह क्या था उनके होने में 
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता !

पागल तलवारें नहीं थरं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं

रानियाँ मिट गयीं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की

रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रहीं हैं।

.........
(बिहार के आंचलिक इलाके की मजदूर औरतों के साथ बलात्कार करके उन्हें जिन्दा जला दिये जाने पर )



प्रेषिता
गीता पंडित


(कविता कोश से साभार )


3 comments:

vandana gupta said...

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (29-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

Onkar said...

मार्मिक रचना

Madan Mohan Saxena said...

वाह . बहुत उम्दा,मार्मिक रचना व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

नब बर्ष (2013) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
मंगलमय हो आपको नब बर्ष का त्यौहार
जीवन में आती रहे पल पल नयी बहार
ईश्वर से हम कर रहे हर पल यही पुकार
इश्वर की कृपा रहे भरा रहे घर द्वार.