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बस में नींद लेती एक स्त्री ___
घर से दफ़्तर के स्टाप तक
सिटी बस के चालीस मिनट के सफ़र में सुबह-शाम
पैंतीस मिनट नींद लेती है स्त्री
घर और दफ़्तर ने मिलकर लूट ली है स्त्री की रातों की नींद
वह स्त्री आराम चाहती है जो सिर्फ़ बस में मिलता है
स्त्री इस नींद भरे सफ़र में ही हासिल कर पाती है
अपने लिए समय
स्त्री के चेहरे पर ग़म या ख़ुशी के कोई निशान नहीं है
वहाँ एक पथरीली उदासी है
जो साँवली त्वचा पर बेरुख़ी से चस्पाँ कर दी गई है
उसके एक हाथ की लकीरों में बर्तन माँजने से भरी कालिख़ है
तो दूसरे हाथ में ख़राब समय को दर्शाती पुरानी घड़ी है
जल्दबाजी में सँवारे गये बालों में अंदाज़ से काढ़ी गई माँग है
और माँग में झुँझलाहट से भरा गया सिंदूर है
आपाधापी से भरी दुनिया में अब
वह भूल चुकी है माँग और सिंदूर के रिश्ते की पुरानी परिभाषा
स्त्री की आँखों में नींद का एक समुद्र है
जिसमें आकण्ठ डूब जाना चाहती है वह
लेकिन घर और दफ़्तर के बीच पसरा हुआ रेगिस्तान
उसकी इच्छाओं को सोख लेता है
स्त्री इस महान गणतंत्र की सिटी बस में नींद लेती है
गणतंत्र के पहरुए कृपया उसे डिस्टर्ब न करें
उसे इस हालत तक पहुँचा देने वाले उस पर न हँसें
उसकी दो वक्तों की नींद
इस महान् लोकतंत्र के बारे में दो गम्भीर टिप्पणियाँ हैं
इन्हें ग़ौर से सुना जाना चाहिए |
सिटी बस के चालीस मिनट के सफ़र में सुबह-शाम
पैंतीस मिनट नींद लेती है स्त्री
घर और दफ़्तर ने मिलकर लूट ली है स्त्री की रातों की नींद
वह स्त्री आराम चाहती है जो सिर्फ़ बस में मिलता है
स्त्री इस नींद भरे सफ़र में ही हासिल कर पाती है
अपने लिए समय
स्त्री के चेहरे पर ग़म या ख़ुशी के कोई निशान नहीं है
वहाँ एक पथरीली उदासी है
जो साँवली त्वचा पर बेरुख़ी से चस्पाँ कर दी गई है
उसके एक हाथ की लकीरों में बर्तन माँजने से भरी कालिख़ है
तो दूसरे हाथ में ख़राब समय को दर्शाती पुरानी घड़ी है
जल्दबाजी में सँवारे गये बालों में अंदाज़ से काढ़ी गई माँग है
और माँग में झुँझलाहट से भरा गया सिंदूर है
आपाधापी से भरी दुनिया में अब
वह भूल चुकी है माँग और सिंदूर के रिश्ते की पुरानी परिभाषा
स्त्री की आँखों में नींद का एक समुद्र है
जिसमें आकण्ठ डूब जाना चाहती है वह
लेकिन घर और दफ़्तर के बीच पसरा हुआ रेगिस्तान
उसकी इच्छाओं को सोख लेता है
स्त्री इस महान गणतंत्र की सिटी बस में नींद लेती है
गणतंत्र के पहरुए कृपया उसे डिस्टर्ब न करें
उसे इस हालत तक पहुँचा देने वाले उस पर न हँसें
उसकी दो वक्तों की नींद
इस महान् लोकतंत्र के बारे में दो गम्भीर टिप्पणियाँ हैं
इन्हें ग़ौर से सुना जाना चाहिए |
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दादी की खोज में ___
उस गुवाड़ी में यूँ अचानक बिना सूचना दिये मेरा चले जाना
घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
मेरी दादी की बहन थी
मुझे ग़ौर से देखने लगी
अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
बिना बताए ही पहचान लिया मुझे
‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’
मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार
थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
एक पुरानी सभ्यता की तरह
थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
उसके साथ आये
चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
उनके पीछे एक लड़की और लड़का
स्कूल-यूनिफार्म में
कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी
मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला
मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी
ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
कहते हैं पिताजी
‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’
उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
अपनी दादी को खोजते-खोजते
अपनी बेटी तक चला आया
जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
उनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल में | |
घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
मेरी दादी की बहन थी
मुझे ग़ौर से देखने लगी
अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
बिना बताए ही पहचान लिया मुझे
‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’
मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार
थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
एक पुरानी सभ्यता की तरह
थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
उसके साथ आये
चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
उनके पीछे एक लड़की और लड़का
स्कूल-यूनिफार्म में
कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी
मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला
मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी
ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
कहते हैं पिताजी
‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’
उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
अपनी दादी को खोजते-खोजते
अपनी बेटी तक चला आया
जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
उनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल में | |
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साभार (कविता कोष से )
प्रेषिता
गीता पंडित
4 comments:
dono rachnao me beshumar anubhav ki chhaap chhodte hue do sadiyon ke darshan kara diya.
bahut sunder, gehan abhivyakti.
बेहतरीन रचना...
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें, आभारी होऊंगा .
donon hi rachnayen bahut hi behaterin hai......... sunder parstuti.
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