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सुन्दर लड़की
जो हो गयी खड़ी मचान पर
पहनकर झीने कपड़े
वह तुमको क्या कहना चाहती है!
क्या यह
कि तुम अपनी सूखी हडिडयों के खंजर
घोंप दो उसके भीतर एक साथ दस-दस
कि ओ, अपनी ताकत तले चरमराए
ओ, हारे हुए पुरुष
आ, और मेरी ऊर्जा का अघ्र्य दे
अपनी दम तोड़ती शिराओं को
नहीं, यह नहीं
मचान पर वहाँ अपनी देह में व्यवस्थित
खड़ी थामे हुए चौकस
अपने घोड़ों को सन्नद्ध सेना की तरह
वह कह रही है
कि लो, यह रही मैं पूरी की पूरी
और वह रहा तू
अब इस फासले को इंसान होकर तय कर।
अब न बीच में समाज है
जो मेरी मुश्कें बाँधकर
ले जाए डाल दे मुझे तेरे बिछौने पर
न धर्म
जो कील दे मेरी जीभ
भर दे मेरे कानों में sanskrit का शीशा
मैं हूँ अब और तू है
ये रहा मेरा जिस्म हाड़ और मांस का
जीवित
और वह रहा तेरा
लोहे का और सोने का। पीब का, मवाद का।
सदियों से जिन्हें तू देखना चाहता था
ये रहे वे सब उभार, सब चढ़ाव और उतार
जिनके लिए तू इतना उड़ा, इतना डूबा, उतराया
यह रहा वह सब
अब गढ़ अपनी खाल में खुद को दुबारा
रच खुद को नए सिरे से
रचेता!
हो उतना ही आकर्षक अपनी निरवसनता में
जितनी होती है निष्कलुषता
ताकत के पंजों से रहित
जितना कमनीय होता है खरगोश
जितनी हूँ मैं
उतना हो!
प्रेषिता
गीता पंडित
1 comment:
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
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