Wednesday, August 24, 2011

पांच कवितायें ..... शशि पाधा की ... स्त्री जीवन के विभिन्न रंग

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1

तुम तो सदा रहे अनजान ___



तुम तो रहे तटस्थ सदा
मैं लहरों सी चंचल गतिमान
संग बहे, न संग चले
क्या इसका तुझे हुआ था भान?


श्यामल शीतल साँझ सलोनी
सपनों सी संग बनी रही
मांझी के गीतों की गुंजन
इन अधरों पे सजी रही


    मन्द पवन छुए जो आँचल
   मन्द -मन्द मैं गाऊँ गान
  मेरे गीतों की सरगम से
तुम तो सदा रहे अनजान।


अस्ताचल पर बैठा सूरज
बार -बार क्यों मुझे बुलाये
स्वर्णिम किरणों की डोरी से
बांध कभी जो संग ले जाये


      इक बार कभी जो लौट न आऊँ
     दूर कहीं भर लूं उड़ान
    टूटे बन्धन की पीड़ा का
   तुझे हुआ थोड़ा अनुमान?


पल -पल जीवन बीत गया
साधों का घट रीत गया
लहरों ने न तुझे हिलाया
और किनारा जीत गया


    तुम तो, तुम ही बने रहे
   थी मुझसे कुछ पल की पहचान
  पागल मन क्यों फिर भी कहता
  तुझ में ही बसते मन प्राण ?
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नारी चेतना ___




न समझे मुझे अब कोई निर्बला
शक्ति रूपा हूँ, नारी हूँ मैं वत्सला।


कोमलाँगी हूँ, अबला न समझे कोई
न धीरज की सीमा से उलझे कोई,
मन की कह दूँ तो पत्थर पिघल जाएंगे
चुप रहूँ तो विवशता न समझे कोई ।


न मैं सीता जिसे कोई राम त्याग दे
न मैं द्रौपदी जिसे दाँव में हार दे ,
न मैं राधा जिसे न ब्याहे कृष्ण
मैं हूँ मीरा जो प्रेम का दान दे ।


अपने कंपन से पर्वत कँपा दूंगी मैं
शीत झरनों में अग्नि जला दूंगी मैं,
आज सूरज को दीपक दिखा सकती हूँ
चांद निकले तो घूंघटा उठा दूंगी मैं ।


मैं नदी हूँ, किनारा तोड़ सकती हूँ
बहती धारा का मुख मोड़ सकती हूँ,
जी चाहे तो सागर से मिल लूंगी मैं
जी चाहे तो रास्ता छोड़ सकती हूँ।


मैं धरा हूँ, मैं जननी, मैं हूँ उर्वरा
मेरे आँचल में ममता का सागर भरा,
मेरी गोदी में सब सुख की नदियाँ भरीं
मेरे नयनों से स्नेह का सावन झरा।

दया मैं , क्षमा मैं , हूं ब्रह्मा सुता
मैं हूँ नारी जिसे पूजते देवता ।
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3
पाहुन ___



वासंती पाहुन घर आया
डार देह की खिली-खिली
           आशाओं के फूल खिले
                 नेह की गगरी भरी- भरी

उड़ -उड़ जाये चुनरी मोरी
जाने कितने पंख लगे
छम-छम बोले पायल मोरी
कंगना मन की बात कहे

           ओझल न हो पल भर साजन
                 अँखियाँ मोरी जगी- जगी ।

कभी निहारूँ सुन्दर मुख मैं
कभी मैं सूनी माँग भरूँ
चन्दन कोमल अँग सँवारे
धीमे - धीमे पाँव धरूँ

           चाह से तुमने देखा जैसे
                 मैं मिस्री की डली- डली

उर से उभरे गान सुरीले
मनवा डोले- डोले
बाहें बन्धनवार बनें जब
गाऊँ हौले- हौले

           प्राणों की बगिया में मोरे
                 केसर कलियाँ झरी- झरी

फाल्गुन की रुत लौट के आई
आँगन बगिया झूमे
गगन विहारी चँदा पल-पल
मुझ विरहन को ढूँढे

           किरण जाल न डाल चितेरे
                 आज हुई मैं नई-नई |
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4
अनुभूति ___



नील गगन की नील मणि सी
ऊषा की अरुणाई सी
नव कलियों के मृदुल हास सी
सावन की पुरवाई सी


दर्पण देख सके न रूप
थोड़ी छाया थोड़ी धूप
अपनी तो पहचान यही है
और मेरा कोई नाम नहीं है।


रेखाओं से घिरी नहीं मैं
न कोई सीमा न कोई बाधा
आकारों में बँधी नहीं मैं
सूर्य ¬¬-चाँद यूँ आधा -आधा


खुशबू के संग उड़ती फिरती
कोई मुझको रोक न पाए
नदिया की धारा संग बहती
कोई मुझको बाँध न पाए


जहाँ चलूँ मैं , पंथ वही है
अपनी तो पहचान यही है।
और मेरा कोई नाम नहीं है।


नीले अम्बर के आँगन में
पंख बिना उड़ जाऊँ मैं
इन्द्र धनु की बाँध के डोरी
बदली में मिल जाऊँ मैं


पवन जो छेड़े राग रागिनी
मन के तार बजाऊँ मैं
मन की भाषा पढ़ ले कोई
नि:स्वर गीत सुनाऊँ मैं


जो भी गाऊँ राग वही है
अपनी तो पहचान यही है।
और मेरा कोई नाम नहीं है।


पर्वत झरने भाई बाँधव
नदिया बगिया सखि सहेली
दूर क्षितिज है घर की देहरी्
रूप मेरा अनबूझ पहेली


रेत कणों का शीत बिछौना
शशिकिरणों की ओढ़ूँ चादर
चंचल लहरें प्राण स्पन्दन
विचरण को है गहरा सागर


जहाँ भी जाऊँ नीड़ वही है
अपनी तो पहचान यही है
और मेरा कोई नाम नहीं है।
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5
संधिकाल ___



सुबह की धूप ने अभी
ओस बूँद पी नहीं
आँख भोर की अभी
नींद से जगी नहीं
पंछियों की पाँत ने
नभ की राह ली नहीं
किरणों की डोरियाँ अभी
शाख से बँधी नहीं


शयामली अलक अभी
रात की बँधी नहीं
चाँद को निहारती
चातकी थकी नहीं
तारों की माल मे जली
दीपिका बुझी नहीं
हर शृंगार की कली
शाख से झरी नहीं


धरा को आँख में सजा
चाँद भी रुका-रुका
पुनर्मिलन की आस में
गगन भी झुका झुका
द्वार पर दिवस खड़ा
आँख रात की भरी
विरह और मिलन की
कैसी यह निर्मम घड़ी |
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साभार ( कविता कोष )

प्रेषिका
गीता पंडित

11 comments:

प्रज्ञा पांडेय said...

shashi paadha koun hain ? ye kahan chhupii baithi thii ... abtak milin kyon nahin ... adbhut likhanewaali ham jaisii ye kahan milengi .. geeta ji ...

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

बहुत ही खुबसूरत कवितायें हैं गीता दी...
आदरणीय शशी पाधा को सादर बधाइयां/ आपका आभार...

Pooja mahi said...

sach me har kavita lajawab hai. thanks... in vicharon ko kavita ke roop me vyakt karke aapne hamare man ko halka kiya hai.

uski adalat mai iljam khatm nahi hote hain.
mai roj katghare me kyo khadi rahti hun
kahin chhin na jaye mujhse ye band katghara bhi
bas yahi soch k mai har saja sah leti hun

अनामिका की सदायें ...... said...

sari kavitaye nari ke bhinn bhinn rupon ko darshati sashakt ban padi hain.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सभी रचनाएँ बहुत अच्छी लगी।

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा और गहरी रचनायें...आभार पढ़वाने का.

Sunil Kumar said...

सब कवितायेँ एक से बढ़ बढ़ कर एक और नारी के विभिन्न रूपों को दर्शाती है आपका आभार ..और शशि पाधा को जी बहुत बधाई.......

गीता पंडित said...

हम और हमारी लेखनी " की और से आपका हार्दिक अभिनंदन और आभार...शशी पाधा जी.

लय बध रचनाएं यूँ ही मन को बाँध लेती हैं ऊपर से भावों का सुंदर संगम और भाषा का उजास मन में मिठास घोल देता है...बहुत सुंदर रचनाएं ...

आभार
मंगलकामनाएँ

सादर
गीता पंडित

praveen pandit said...

कभी ऐसा नहीं हो सकता ki शशि जी को न केवल पढ़े बिना , सच कहूँ तो बार बार पढ़े बिना रहा जा सके |
भीतर तक छू जाने वाली अत्यंत स्नेहिल भावमय रचनाएँ हैं |

आभार

Shashi Padha said...

गीता जी ,

आपका बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने इतने साहित्य प्रेमियों से मिलवाया | वास्तव में सब का नाम न लिखते हुए भी मैं आप सब को ह्रदय से धन्यवाद देना चाहूंगी | आप सब का स्नेह बना रहे तभी तो मैं लिख पाऊँगी |
शशि पाधा

Shashi Padha said...

गीता जी,
इतने सारे साहित्य प्रेमियों से मिलवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद | आप सब का अलग नाम न लिखते हुए भी मैं अप सब की आभारी हूँ कि आपने मेरी रचनायों को पढ़ा| आपका स्नेह सदैव प्रेरणा देता रहे , इन्हीं शुभ कामनायों सहित |
शशि पाधा