Wednesday, September 19, 2012

कनकलता बरुआ और डॉ,एनी बेसेंट की पुण्यतिथि पर विशेष ....गर्व है हमें ...



कनकलता बरुआ
Photo: कनकलता बरुआ (२२ दिसंबर, १९२४ - २० सितम्बर, १९४२ भारत की शहीद पुत्री हैं जो भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में जा मिली। मात्र १८ वर्षीय कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हो, लेकिन त्याग व बलिदान में उसका कद किसी से कम नहीं।
कनकलता बरुआ का जन्म २२ दिसंबर, १९२४ को कृष्णकांत बरुआ के घर में हुआ था। ये असम के बांरगबाड़ी गाँव की निवासी थे। इनकी माता का नाम कर्णेश्वरी देवी था। कनकलता मात्र पाँच वर्ष की हुई थी कि उनकी माता की मृत्यु हो गई। उनके पिता कृष्णकांत ने दूसरा विवाह किया, किंतु सन् १९३८ ई. में उनका भी देहांत हो गया। कुछ दिन पश्चात् सौतेली माँ भी चल बसी। इस प्रकार कनकलता अल्पवय में ही अनाथ हो गई। कनकलता के पालन–पोषण का दायित्व उसकी नानी को संभालना पड़ा। वह नानी के साथ घर–गृहस्थी के कार्यों में हाथ बँटाती और मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी। इतने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद कनकलता का झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर होता गया।
जब मई १९३१ ई. में गमेरी गाँव में रैयत सभा आयोजित की गई, उस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थी। फिर भी सभा में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम बोस के साथ उसने भी भाग लिया। उक्त सभा के आयोजन का प्रबंध विद्यार्थियों ने किया था। सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता ज्योति प्रसाद आगरवाला (अग्रवाल) थे। उनके अलावा असम के अन्य प्रमुख नेता भी इस सभा में सम्मिलित हुए थे। ज्योति प्रसाद आगरवाला राजस्थानी थे। वे असम के प्रसिद्ध कवि और नवजागरण के अग्रदूत थे। उनके द्वारा असमिया भाषा में लिखे गीत घर–घर में लोकप्रिय थे। अगरवाला के गीतों से कनकलता भी प्रभावित और प्रेरित हुई। इन गीतों के माध्यम से कनकलता के बाल–मन पर राष्ट्र–भक्ति का बीज अंकुरित हुआ।
सन् १९३१ के रैयत अधिवेशन में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया। इसी घटना के कारण असम में क्रांति की आग चारों ओर फैल गई। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को भी उससे बल मिला। मुम्बई के कांग्रेस अधिवेशन में ८ अगस्त, १९४२ को ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ। यह ब्रिटिश के विरूद्ध देश के कोने–कोने में फैल गया। असम के शीर्ष नेता मुंबई से लौटते ही पकड़कर जेल में डाल दिये गये। गोपीनाथ बरदलै, सिद्धनाथ शर्मा, मौलाना तैयबुल्ला, विष्णुराम मेधि आदि को जेल में बंद कर दिए जाने पर मोहिकांत दास, गहन चंद्र गोस्वामी, महेश्वर बरा तथा अन्य लोगों ने आंदोलन की बागडोर संभाली। अंत में ज्योति प्रसाद आगरवाला को नेतृत्व संभालना पड़ा। उनके नेतृत्व में गुप्त सभा की गई। फलतः आंदोलन को नई दिशा मिली। पुलिस के अत्याचार बढ़ गए और स्वतंत्रता सेनानियों से जेलें भर गई। कई लोगों को पुलिस की गोली का शिकार बनना पड़ा। शासन के दमन–चक्र के साथ आंदोलन भी बढ़ता गया। एक गुप्त सभा में २० सितंबर, १९४२ ई. को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया।
उस समय तक कनकलता विवाह के योग्य हो चुकी थी। उसके अभिभावक उसका विवाह करने को उत्सुक थे। किंतु वह अपने विवाह की अपेक्षा भारत की आजादी को अधिक महत्वपूर्ण मान चुकी थी। भारत की आजादी के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर थी। २० सितंबर, १९४२ के दिन तेजपुर से ८२ मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाना था। सुबह–सुबह घर का काम करने के बाद वह अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी। कनकलता आत्म–बलिदानी दल की सदस्या थी। गहपुर थाने की ओर चारों दिशाओं से जुलूस उमड़ पड़ा था। उस आत्मबलिदानी जत्थे में सभी युवक और युवतियाँ थीं। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा थामे कनकलता उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। जुलूस के नेताओं को संदेह हुआ कि कनकलता और उसके साथी कहीं भाग न जाएँ। संदेह को भाँप कर कनकलता शेरनी के समान गरज उठी– “हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?" ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, जैसे नारे से आकाश को गुँजाती हुई थाने की ओर बढ़ चली। आत्म–बलिदानी जत्था थाने के क़रीब जा पहुँचा। पीछे से जुलूस के गगनभेदी नारों से आकाश गूंजने लगा। उस जत्थे के सदस्यों में थाने पर झंडा फहराने की होड़–सी मच गई। हर एक व्यक्ति सबसे पहले झंडा फहराने को बेचैन था। थाने का प्रभारी पी.एम. सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता ने उससे कहा – हमारा रास्ता मत रोकिए। हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाने आए हैं। उसके बाद हम लौट जायेंगे।
थाने के प्रभारी ने कनकलता को डाँटते हुए कहा कि यदि तुम लोग एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे। इसके बावजूद भी कनकलता आगे बढ़ी और कहा – ‘हमारी स्वतंत्रता की ज्योति बुझ नहीं सकती। तुम गोलियाँ चला सकते हो, पर हमें कर्तव्य–विमुख नहीं कर सकते।’ इतना कह कर वह ज्यों ही आगे बढ़ी, पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली कनकलता ने अपनी छाती पर झेली। गोली बोगी कछारी नामक सिपाही ने चलाई थी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियाँ चलती रहीं। परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए। उन युवकों के मन में स्वतंत्रता की अखंड ज्योति प्रज्वलित थी, जिसके कारण गोलियों की परवाह न करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसके हाथों का तिरंगा झुका नहीं। उसकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गये। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया।
शहीद मुकंद काकोती के शव को तेजपुर नगरपालिका के कर्मचारियों ने गुप्त रूप से दाह–संस्कार कर दिया, किंतु कनकलता का शव स्वतंत्रता सेनानी अपने कंधों पर उठाकर उसके घर तक ले जाने में सफल हो गए। उसका अंतिम संस्कार बांरगबाड़ी में ही किया गया। अपने प्राणों की आहुति देकर उसने स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक मजबूती लाई। स्वतंत्रता सेनानियों में उसके बलिदान से नया जोश उत्पन्न हुआ। इस तरह अनेक बलिदानियों का बलिदान हमारी स्वतंत्रता की नींव के पत्थर हैं। उनके त्याग और बलिदान की बुनियाद पर ही स्वतंत्रता रूपी भवन खड़ा है। बांरगबाड़ी में स्थापित कनकलता मॉडल गर्ल्स हाईस्कूल जो कनकलता के आत्म–बलिदान की स्मृति में बनाया गया है, आज भी यह भवन स्वतंत्रता की रक्षा करने की प्रेरणा दे रहा है।
[अंतर्जाल से साभार ]

कनकलता बरुआ (२२ दिसंबर, १९२४ - २० सितम्बर, १९४२ भारत की शहीद पुत्री हैं जो भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में जा मिली। मात्र १८ वर्षीय कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हो, लेकिन त्याग व बलिदान में उसका कद किसी से कम नहीं।

कनकलता बरुआ का जन्म २२ दिसंबर, १९२४ को कृष्णकांत बरुआ के घर में हुआ था। ये असम के बांरगबाड़ी गाँव की निवासी थे। इनकी माता का नाम कर्णेश्वरी देवी था। कनकलता मात्र पाँच वर्ष की हुई थी कि उनकी माता की मृत्यु हो गई। उनके पिता कृष्णकांत ने दूसरा विवाह किया, किंतु सन् १९३८ ई. में उनका भी देहांत हो गया। कुछ दिन पश्चात् सौतेली माँ भी चल बसी। इस प्रकार कनकलता अल्पवय में ही अनाथ हो गई। कनकलता के पालनपोषण का दायित्व उसकी नानी को संभालना पड़ा। वह नानी के साथ घरगृहस्थी के कार्यों में हाथ बँटाती और मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी। इतने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद कनकलता का झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर होता गया।

जब मई १९३१ ई. में गमेरी गाँव में रैयत सभा आयोजित की गई, उस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थी। फिर भी सभा में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम बोस के साथ उसने भी भाग लिया। उक्त सभा के आयोजन का प्रबंध विद्यार्थियों ने किया था। सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता ज्योति प्रसाद आगरवाला (अग्रवाल) थे। उनके अलावा असम के अन्य प्रमुख नेता भी इस सभा में सम्मिलित हुए थे। ज्योति प्रसाद आगरवाला राजस्थानी थे। वे असम के प्रसिद्ध कवि और नवजागरण के अग्रदूत थे। उनके द्वारा असमिया भाषा में लिखे गीत घरघर में लोकप्रिय थे। अगरवाला के गीतों से कनकलता भी प्रभावित और प्रेरित हुई। इन गीतों के माध्यम से कनकलता के बालमन पर राष्ट्रभक्ति का बीज अंकुरित हुआ।

सन् १९३१ के रैयत अधिवेशन में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया। इसी घटना के कारण असम में क्रांति की आग चारों ओर फैल गई। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को भी उससे बल मिला। मुम्बई के कांग्रेस अधिवेशन में ८ अगस्त, १९४२ को अंग्रेजों भारत छोड़ोप्रस्ताव पारित हुआ। यह ब्रिटिश के विरूद्ध देश के कोनेकोने में फैल गया। असम के शीर्ष नेता मुंबई से लौटते ही पकड़कर जेल में डाल दिये गये। गोपीनाथ बरदलै, सिद्धनाथ शर्मा, मौलाना तैयबुल्ला, विष्णुराम मेधि आदि को जेल में बंद कर दिए जाने पर मोहिकांत दास, गहन चंद्र गोस्वामी, महेश्वर बरा तथा अन्य लोगों ने आंदोलन की बागडोर संभाली। अंत में ज्योति प्रसाद आगरवाला को नेतृत्व संभालना पड़ा। उनके नेतृत्व में गुप्त सभा की गई। फलतः आंदोलन को नई दिशा मिली। पुलिस के अत्याचार बढ़ गए और स्वतंत्रता सेनानियों से जेलें भर गई। कई लोगों को पुलिस की गोली का शिकार बनना पड़ा। शासन के दमनचक्र के साथ आंदोलन भी बढ़ता गया। एक गुप्त सभा में २० सितंबर, १९४२ ई. को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया।

उस समय तक कनकलता विवाह के योग्य हो चुकी थी। उसके अभिभावक उसका विवाह करने को उत्सुक थे। किंतु वह अपने विवाह की अपेक्षा भारत की आजादी को अधिक महत्वपूर्ण मान चुकी थी। भारत की आजादी के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर थी। २० सितंबर, १९४२ के दिन तेजपुर से ८२ मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाना था। सुबहसुबह घर का काम करने के बाद वह अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी। कनकलता आत्मबलिदानी दल की सदस्या थी। गहपुर थाने की ओर चारों दिशाओं से जुलूस उमड़ पड़ा था। उस आत्मबलिदानी जत्थे में सभी युवक और युवतियाँ थीं। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा थामे कनकलता उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। जुलूस के नेताओं को संदेह हुआ कि कनकलता और उसके साथी कहीं भाग न जाएँ। संदेह को भाँप कर कनकलता शेरनी के समान गरज उठी– “हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?" ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, जैसे नारे से आकाश को गुँजाती हुई थाने की ओर बढ़ चली। आत्मबलिदानी जत्था थाने के क़रीब जा पहुँचा। पीछे से जुलूस के गगनभेदी नारों से आकाश गूंजने लगा। उस जत्थे के सदस्यों में थाने पर झंडा फहराने की होड़सी मच गई। हर एक व्यक्ति सबसे पहले झंडा फहराने को बेचैन था। थाने का प्रभारी पी.एम. सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता ने उससे कहा हमारा रास्ता मत रोकिए। हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाने आए हैं। उसके बाद हम लौट जायेंगे।

थाने के प्रभारी ने कनकलता को डाँटते हुए कहा कि यदि तुम लोग एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे। इसके बावजूद भी कनकलता आगे बढ़ी और कहा – ‘हमारी स्वतंत्रता की ज्योति बुझ नहीं सकती। तुम गोलियाँ चला सकते हो, पर हमें कर्तव्यविमुख नहीं कर सकते।इतना कह कर वह ज्यों ही आगे बढ़ी, पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली कनकलता ने अपनी छाती पर झेली। गोली बोगी कछारी नामक सिपाही ने चलाई थी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियाँ चलती रहीं। परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए। उन युवकों के मन में स्वतंत्रता की अखंड ज्योति प्रज्वलित थी, जिसके कारण गोलियों की परवाह न करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसके हाथों का तिरंगा झुका नहीं। उसकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गये। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया।

शहीद मुकंद काकोती के शव को तेजपुर नगरपालिका के कर्मचारियों ने गुप्त रूप से दाहसंस्कार कर दिया, किंतु कनकलता का शव स्वतंत्रता सेनानी अपने कंधों पर उठाकर उसके घर तक ले जाने में सफल हो गए। उसका अंतिम संस्कार बांरगबाड़ी में ही किया गया। अपने प्राणों की आहुति देकर उसने स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक मजबूती लाई। स्वतंत्रता सेनानियों में उसके बलिदान से नया जोश उत्पन्न हुआ। इस तरह अनेक बलिदानियों का बलिदान हमारी स्वतंत्रता की नींव के पत्थर हैं। उनके त्याग और बलिदान की बुनियाद पर ही स्वतंत्रता रूपी भवन खड़ा है। बांरगबाड़ी में स्थापित कनकलता मॉडल गर्ल्स हाईस्कूल जो कनकलता के आत्मबलिदान की स्मृति में बनाया गया है, आज भी यह भवन स्वतंत्रता की रक्षा करने की प्रेरणा दे रहा है।

.................
.................




डॉ,एनी बेसेंट 

Photo: डॉ एनी बेसेन्ट ( १ अक्टूबर १८४७ - २० सितम्बर १९३३ ) अग्रणी थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। सन १९१७ में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।
भारत की मिट्टी से गहरा लगाव रखने वाली प्रख्यात समाजसेवी, लेखिका और स्वतंत्रता सेनानी एनी बेसेंट ने कई मौकों पर अन्याय का कड़ा प्रतिरोध करके 'आयरन लेडी' की छवि बनाई थी। एनी बेसेंट भारतीय दर्शन एवं हिन्दू धर्म से बहुत आकर्षित थी और थियोसॉफी का प्रसार करने के लिए भारत आईं थी। उन्हें भारत से अद्भुत प्रेम एवं अनुराग था और भारतवासियों द्वारा उन्हें दिया गया सम्मान एवं आदर भी दर्शनीय था। आध्यात्मिक और राजनीतिक रूप से सोए हुए भारत को जगाने के लिए भारत को अपना घर कहने वाली एनी बेसेंट ने दुनिया भर के धर्मों का गहन अध्ययन किया। उन धर्मों को जाना परखा और समझा कि वेद और उपनिषद का धर्म ही सच्चा मार्ग है।
१८६६ को एनी को धार्मिक, आध्यात्मिक, रहस्यवाद की पुस्तकें पढ़ने का शौक़ हुआ। उसी दौरान ईसा के प्रति लगाव हुआ। १८६७ को एनी बेसेंट का विवाह २२ वर्ष की उम्र में गिरजाघर के पादरी 'रेवेरेंड फ्रैंक बेसेंट' से हुआ। १८६८-७० के मध्य एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया, किन्तु स्वभाव से स्वतंत्र विचारशील एवं धार्मिक प्रवृत्ति के कारण उनका अपने पति से अन्तर्विरोध रहा और इसी कारण से उन्होंने पति से संबंध विच्छेद कर मानवता से नाता जोड़ने का संकल्प लिया। उनके दोनों बच्चे ब्रिटिश क़ानून के अनुसार उनके पति के पास रहे। ईश्वर, बाइबिल और ईसाई धर्म पर से उनकी आस्था डिग गई। पादरी-पति और पत्नी का परस्पर निर्वाह कठिन हो गया इसी कारण वैचारिक मतभेद के चलते विवाह-सम्बन्ध कटुता के चलते विच्छेद हो गए। 'फ्रूट्स ऑफ फिलॉसफी' लेख में 'बर्थ-कन्ट्रोल' परिवार-परिसीमन पर लेख लिखकर समाज-सुधार की पक्षधर एनी द्वारा धर्म की अवज्ञा की गई। इस विद्रोहीपन के कारण पति द्वारा उत्पीड़न के चलते १८७३ में उनका तलाक हो गया। धर्म विरुद्ध लेख लिखने पर मुक़दमा चला। न्यायाधीश उनके तर्कों से सहमत थे पर जूरी नहीं। दंड को अपील में माफ कर दिया गया और न्यायालय ने पुत्री दे दी, पर पुत्र छीन लिया। 
एक विदेशी महिला जब भारत में रहने लगी तो उन्होंने स्वयं को कभी विदेशी नहीं समझा। हिन्दू धर्म पर व्याख्‍यान से पूर्व वह 'ॐ नम: शिवाय' का उच्चारण करती थी। विलक्षण स्मरण शक्ति, नोट्स नहीं बनाती थी। वेशभूषा के प्रति अत्यन्त सावधान रहती थी। समय की अत्यंत पाबंद थी। 'मेम साहब' कहलाना पसंद नहीं करती थी। 'अम्मा' नाम उन्हें पसंद था। भारत से प्रेम किया और भारतवासियों ने उन्हें 'माँ बसंत' कहकर सम्मानित किया
सन १८८२में वे 'थियोसॉफिकल सोसायटी' की संस्थापिका 'मैडम ब्लावत्सकी' के संपर्क में आईं और पूर्ण रूप से संत संस्कारों वाली महिला बन गईं। सन् १८८९ में उन्होंने घोषणा कर स्वयं को 'थियोसाफिस्ट' घोषित किया और शेष जीवन भारत की सेवा में अर्पित करने की घोषणा की। १६ नवंबर १८९३ को वे एक वृहद कार्यक्रम के साथ भारत आईं और सांस्कृतिक नगर काशी (बनारस) को अपना केन्द्र बनाया। उन्होंने काशी के तत्कालीन नरेश 'महाराजा प्रभु नारायण सिंह' से भेंट की और उनसे कामच्छा स्थित 'काशी नरेश सभा भवन' के समीप की भूमि प्राप्त कर ७ जुलाई १८९८ को 'सेंट्रल हिन्दू कॉलेज' की स्थापना की। सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह, जातीय व्यवस्था, विधवा विवाह आदि को दूर करने के लिए 'ब्रदर्स ऑफ सर्विस' नामक संस्था बनाई। इस संस्था की सदस्यता पाने के लिये नीचे लिखे प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे। 
डा. एनी बेसेन्ट जानती थीं कि बिना राजनीतिक स्वतंत्रता के इन सभी कठिनाइयों का समाधान सम्भव नहीं है। उन्होंने अपने ४० वर्ष भारत के सर्वांगीण विकास में व्यतीत किए। उस समय महामना मदन मोहन मालवीय एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे परंतु नियमानुसार इसके लिए एक कॉलेज का होना अनिवार्य था। मालवीय जी ने एनी बेसेंट के समक्ष 'सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज' का प्रस्ताव रखा तो एनी बेसेंट ने तत्काल स्वीकार करते हुए कहा - 'मेरे पास जो कुछ भी है वह देश के लिए ही है, यह विद्यालय आपका ही है पंडित जी!' वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सह संस्थापिका के रूप में जानी जाती हैं। एनी बेसेंट ने भारत में पुनर्जागरण हेतु शिक्षा, नारी शिक्षा, आध्यात्मिक साहित्य का सृजन एवं विकास, धर्म का प्रसार, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में कार्य प्रारंभ कर दिया। वे एक अत्यंत कुशल संस्थापिका, लेखिका एवं उच्चकोटि की वक्ता थीं। भारत को स्वतंत्र कराने के प्रति वह चिन्तित थीं एवं इस दिशा में कार्य करने के लिए यहाँ के राजनीतिज्ञों से भी संपर्क बनाने लगी थीं। देशवासियों ने उन्हें माँ वसंत कहकर सम्मानित किया तो महात्मा गांधी ने उन्हें वसंत देवी की उपाधि से विभूषित किया।
एनी बेसेंट के जीवन का मूल मंत्र था - कर्म। वह जिस सिद्धांत पर विश्वास करती थीं उसे अपने जीवन में उतार लेती थीं। वह स्वभावत: धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। उनके राजनीतिक विचारों की आधारशिला उनके आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्य थे। उनका विचार था कि अच्छाई के मार्ग का निर्धारण बिना आध्यात्म के संभव नहीं है। राष्ट्र का विकास एवं निर्माण तभी संभव है, जब उस देश के विभिन्न धर्मों, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। उनका उद्देश्य हिन्दू समाज एवं उसकी आध्यात्मिकता में आई विकृतियों को दूर करना था।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ राजनेता वसंत साठे के मुताबिक एनी बेसेंट एक ऐसी महिला थीं जिनकी इच्छाशक्ति और संघर्ष करने की क्षमता ही उनकी पूंजी और पहचान थी। उन्होंने कहा कि बेसेंट एक नई सोच और क्षमता लेकर आईं और उन्होंने भारत की महिलाओं में एक नई चेतना का संचार किया।
भारत की ओर आकर्षित होने के कारण उन्हें लगा कि मेरा कर्मक्षेत्र भारत ही हो सकता है। १६ नवम्बर १८९३ को भारत के तूतिकोरन बंदरगाह पर उतरीं।
लगभग ५०५ ग्रंथों व लेखों की लेखिका डा. एनी बेसेन्ट ने 'हाऊ इण्डिया रौट् फॉर फ्रीडम' (१९१५) में भारत को अपनी मातृभूमि बतलाया है।
'इण्डिया : ए नेशन' नामक जो पुस्तक जब्त कर ली गयी थी उसमें उन्होंने स्वायत्त-शासन की विचार धारा प्रतिपादित की है।
१९१७ में नज़रबन्द किये जाने से पहले सत्तर वर्षीय वृद्धा ने अपने भारत के भाइयों और बहनों को आखिरी सन्देश दिया था- मैं वृद्धा हूँ, किन्तु मुझे विश्वास है कि मरने के पहले ही मैं देखूंगी कि भारत को स्वायत्त-शासन मिल गया है।
१८७८ में ही उन्होंने प्रथम बार भारतवर्ष के बारे में अपने विचार प्रकट किये। उनके लेख तथा विचारों ने भारतीयों के मन में उनके प्रति स्नेह उत्पन्न कर दिया। अब वे भारतीयों के बीच कार्य करने के बारे में दिन-रात सोचने लगीं। १८८३ में वे समाजवादी विचारधारा की ओर आकर्षित हुईं। उन्होंने 'सोसलिस्ट डिफेन्स संगठन' नाम की संस्था बनाई। इस संस्था में उनकी सेवाओं ने उन्हें काफी सम्मान दिया। इस संस्था ने उन मजदूरों को दण्ड मिलने से सुरक्षा प्रदान की जो लन्दन की सड़कों पर निकलने वाले जुलूस में हिस्सा लेते थे। १८८९ में एनी बेसेन्ट थियोसोफी के विचारों से प्रभावित हुईं। उनके अन्दर एक शक्तिशाली अद्वितीय और विलक्षण भाषण देने की कला निहित थी। अत: बहुत शीघ्र उन्होंने अपने लिये थियोसोफिकल सोसायटी की एक प्रमुख वक्ता के रूप में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को थियोसोफी की शाखाओं के माध्यम से एकता के सूत्र में बाधने का आजीवन प्रयास किया। बड़े ही सौभाग्य की बात हुई की उन्होंने भारत को थियोसोफी की गतिविधियों का केन्द्र बनाया। उनका भारत आगमन १८९३ में हुआ। सन् १९०६ तक इनका अधिकांश समय वाराणसी में बीता। वे १९०७ में थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया। धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य प्रारम्भ किया। भारत के लिये राजनीतिक स्वतंत्रता आवश्यक है इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने 'होमरूल आन्दोलन' संगठित करके उसका नेतृत्व किया।
२० सितम्बर १९३३ को वे ब्रह्मलीन हो गई। आजीवन वाराणसी को ही हृदय से अपना घर मानने वाली बेसेन्ट की अस्थियाँ वाराणसी लाई गयीं और शान्ति-कुञ्ज से निकले एक विशाल जन-समूह ने उन अपशेषों को ससम्मान सुरसरि को समर्पित कर दिया।
[अंतर्जाल से साभार ] 

डॉ एनी बेसेन्ट ( १ अक्टूबर १८४७ - २० सितम्बर १९३३ ) अग्रणी थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। सन १९१७ में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।

भारत की मिट्टी से गहरा लगाव रखने वाली प्रख्यात समाजसेवी, लेखिका और स्वतंत्रता सेनानी एनी बेसेंट ने कई मौकों पर अन्याय का कड़ा प्रतिरोध करके 'आयरन लेडी' की छवि बनाई थी। एनी बेसेंट भारतीय दर्शन एवं हिन्दू धर्म से बहुत आकर्षित थी और थियोसॉफी का प्रसार करने के लिए भारत आईं थी। उन्हें भारत से अद्भुत प्रेम एवं अनुराग था और भारतवासियों द्वारा उन्हें दिया गया सम्मान एवं आदर भी दर्शनीय था। आध्यात्मिक और राजनीतिक रूप से सोए हुए भारत को जगाने के लिए भारत को अपना घर कहने वाली एनी बेसेंट ने दुनिया भर के धर्मों का गहन अध्ययन किया। उन धर्मों को जाना परखा और समझा कि वेद और उपनिषद का धर्म ही सच्चा मार्ग है।

१८६६ को एनी को धार्मिक, आध्यात्मिक, रहस्यवाद की पुस्तकें पढ़ने का शौक़ हुआ। उसी दौरान ईसा के प्रति लगाव हुआ। १८६७ को एनी बेसेंट का विवाह २२ वर्ष की उम्र में गिरजाघर के पादरी 'रेवेरेंड फ्रैंक बेसेंट' से हुआ। १८६८-७० के मध्य एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया, किन्तु स्वभाव से स्वतंत्र विचारशील एवं धार्मिक प्रवृत्ति के कारण उनका अपने पति से अन्तर्विरोध रहा और इसी कारण से उन्होंने पति से संबंध विच्छेद कर मानवता से नाता जोड़ने का संकल्प लिया। उनके दोनों बच्चे ब्रिटिश क़ानून के अनुसार उनके पति के पास रहे। ईश्वर, बाइबिल और ईसाई धर्म पर से उनकी आस्था डिग गई। पादरी-पति और पत्नी का परस्पर निर्वाह कठिन हो गया इसी कारण वैचारिक मतभेद के चलते विवाह-सम्बन्ध कटुता के चलते विच्छेद हो गए। 'फ्रूट्स ऑफ फिलॉसफी' लेख में 'बर्थ-कन्ट्रोल' परिवार-परिसीमन पर लेख लिखकर समाज-सुधार की पक्षधर एनी द्वारा धर्म की अवज्ञा की गई। इस विद्रोहीपन के कारण पति द्वारा उत्पीड़न के चलते १८७३ में उनका तलाक हो गया। धर्म विरुद्ध लेख लिखने पर मुक़दमा चला। न्यायाधीश उनके तर्कों से सहमत थे पर जूरी नहीं। दंड को अपील में माफ कर दिया गया और न्यायालय ने पुत्री दे दी, पर पुत्र छीन लिया। 

एक विदेशी महिला जब भारत में रहने लगी तो उन्होंने स्वयं को कभी विदेशी नहीं समझा। हिन्दू धर्म पर व्याख्‍यान से पूर्व वह 'ॐ नम: शिवाय' का उच्चारण करती थी। विलक्षण स्मरण शक्ति, नोट्स नहीं बनाती थी। वेशभूषा के प्रति अत्यन्त सावधान रहती थी। समय की अत्यंत पाबंद थी। 'मेम साहब' कहलाना पसंद नहीं करती थी। 'अम्मा' नाम उन्हें पसंद था। भारत से प्रेम किया और भारतवासियों ने उन्हें 'माँ बसंत' कहकर सम्मानित किया

सन १८८२में वे 'थियोसॉफिकल सोसायटी' की संस्थापिका 'मैडम ब्लावत्सकी' के संपर्क में आईं और पूर्ण रूप से संत संस्कारों वाली महिला बन गईं। सन् १८८९ में उन्होंने घोषणा कर स्वयं को 'थियोसाफिस्ट' घोषित किया और शेष जीवन भारत की सेवा में अर्पित करने की घोषणा की। १६ नवंबर १८९३ को वे एक वृहद कार्यक्रम के साथ भारत आईं और सांस्कृतिक नगर काशी (बनारस) को अपना केन्द्र बनाया। उन्होंने काशी के तत्कालीन नरेश 'महाराजा प्रभु नारायण सिंह' से भेंट की और उनसे कामच्छा स्थित 'काशी नरेश सभा भवन' के समीप की भूमि प्राप्त कर ७ जुलाई १८९८ को 'सेंट्रल हिन्दू कॉलेज' की स्थापना की। सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह, जातीय व्यवस्था, विधवा विवाह आदि को दूर करने के लिए 'ब्रदर्स ऑफ सर्विस' नामक संस्था बनाई। इस संस्था की सदस्यता पाने के लिये नीचे लिखे प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे। 

डा. एनी बेसेन्ट जानती थीं कि बिना राजनीतिक स्वतंत्रता के इन सभी कठिनाइयों का समाधान सम्भव नहीं है। उन्होंने अपने ४० वर्ष भारत के सर्वांगीण विकास में व्यतीत किए। उस समय महामना मदन मोहन मालवीय एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे परंतु नियमानुसार इसके लिए एक कॉलेज का होना अनिवार्य था। मालवीय जी ने एनी बेसेंट के समक्ष 'सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज' का प्रस्ताव रखा तो एनी बेसेंट ने तत्काल स्वीकार करते हुए कहा - 'मेरे पास जो कुछ भी है वह देश के लिए ही है, यह विद्यालय आपका ही है पंडित जी!' वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सह संस्थापिका के रूप में जानी जाती हैं। एनी बेसेंट ने भारत में पुनर्जागरण हेतु शिक्षा, नारी शिक्षा, आध्यात्मिक साहित्य का सृजन एवं विकास, धर्म का प्रसार, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में कार्य प्रारंभ कर दिया। वे एक अत्यंत कुशल संस्थापिका, लेखिका एवं उच्चकोटि की वक्ता थीं। भारत को स्वतंत्र कराने के प्रति वह चिन्तित थीं एवं इस दिशा में कार्य करने के लिए यहाँ के राजनीतिज्ञों से भी संपर्क बनाने लगी थीं। देशवासियों ने उन्हें माँ वसंत कहकर सम्मानित किया तो महात्मा गांधी ने उन्हें वसंत देवी की उपाधि से विभूषित किया।

एनी बेसेंट के जीवन का मूल मंत्र था - कर्म। वह जिस सिद्धांत पर विश्वास करती थीं उसे अपने जीवन में उतार लेती थीं। वह स्वभावत: धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। उनके राजनीतिक विचारों की आधारशिला उनके आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्य थे। उनका विचार था कि अच्छाई के मार्ग का निर्धारण बिना आध्यात्म के संभव नहीं है। राष्ट्र का विकास एवं निर्माण तभी संभव है, जब उस देश के विभिन्न धर्मों, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। उनका उद्देश्य हिन्दू समाज एवं उसकी आध्यात्मिकता में आई विकृतियों को दूर करना था।
पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ राजनेता वसंत साठे के मुताबिक एनी बेसेंट एक ऐसी महिला थीं जिनकी इच्छाशक्ति और संघर्ष करने की क्षमता ही उनकी पूंजी और पहचान थी। उन्होंने कहा कि बेसेंट एक नई सोच और क्षमता लेकर आईं और उन्होंने भारत की महिलाओं में एक नई चेतना का संचार किया।

भारत की ओर आकर्षित होने के कारण उन्हें लगा कि मेरा कर्मक्षेत्र भारत ही हो सकता है। १६ नवम्बर १८९३ को भारत के तूतिकोरन बंदरगाह पर उतरीं।

लगभग ५०५ ग्रंथों व लेखों की लेखिका डा. एनी बेसेन्ट ने 'हाऊ इण्डिया रौट् फॉर फ्रीडम' (१९१५) में भारत को अपनी मातृभूमि बतलाया है।

'इण्डिया : ए नेशन' नामक जो पुस्तक जब्त कर ली गयी थी उसमें उन्होंने स्वायत्त-शासन की विचार धारा प्रतिपादित की है।

१९१७ में नज़रबन्द किये जाने से पहले सत्तर वर्षीय वृद्धा ने अपने भारत के भाइयों और बहनों को आखिरी सन्देश दिया था- मैं वृद्धा हूँ, किन्तु मुझे विश्वास है कि मरने के पहले ही मैं देखूंगी कि भारत को स्वायत्त-शासन मिल गया है।

१८७८ में ही उन्होंने प्रथम बार भारतवर्ष के बारे में अपने विचार प्रकट किये। उनके लेख तथा विचारों ने भारतीयों के मन में उनके प्रति स्नेह उत्पन्न कर दिया। अब वे भारतीयों के बीच कार्य करने के बारे में दिन-रात सोचने लगीं। १८८३ में वे समाजवादी विचारधारा की ओर आकर्षित हुईं। उन्होंने 'सोसलिस्ट डिफेन्स संगठन' नाम की संस्था बनाई। इस संस्था में उनकी सेवाओं ने उन्हें काफी सम्मान दिया। इस संस्था ने उन मजदूरों को दण्ड मिलने से सुरक्षा प्रदान की जो लन्दन की सड़कों पर निकलने वाले जुलूस में हिस्सा लेते थे। १८८९ में एनी बेसेन्ट थियोसोफी के विचारों से प्रभावित हुईं। उनके अन्दर एक शक्तिशाली अद्वितीय और विलक्षण भाषण देने की कला निहित थी। अत: बहुत शीघ्र उन्होंने अपने लिये थियोसोफिकल सोसायटी की एक प्रमुख वक्ता के रूप में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को थियोसोफी की शाखाओं के माध्यम से एकता के सूत्र में बाधने का आजीवन प्रयास किया। बड़े ही सौभाग्य की बात हुई की उन्होंने भारत को थियोसोफी की गतिविधियों का केन्द्र बनाया। उनका भारत आगमन १८९३ में हुआ। सन् १९०६ तक इनका अधिकांश समय वाराणसी में बीता। वे १९०७ में थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया। धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य प्रारम्भ किया। भारत के लिये राजनीतिक स्वतंत्रता आवश्यक है इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने 'होमरूल आन्दोलन' संगठित करके उसका नेतृत्व किया।

२० सितम्बर १९३३ को वे ब्रह्मलीन हो गई। आजीवन वाराणसी को ही हृदय से अपना घर मानने वाली बेसेन्ट की अस्थियाँ वाराणसी लाई गयीं और शान्ति-कुञ्ज से निकले एक विशाल जन-समूह ने उन अपशेषों को ससम्मान सुरसरि को समर्पित कर दिया।   



प्रेषिका 
गीता पंडित  

साभार 

[अंतर्जाल से साभार ]

1 comment:

अनामिका की सदायें ...... said...

dono mahaan aatmao ko pahli baar apke lekh dwara padh kar jana. ani besent ke bare me suna tha lekin deeply jaanne ka aaj mauka mila.

bahut bahut aabhari hun.