Thursday, September 20, 2012

लेखक समाज और जनता का चौकीदार होता है... कुँवर नारायण ..



 


कुंवर नारायण के किसी परिचय की ज़रूरत नहीं है. ८० पार की उम्र हो गई है लेकिन साहित्य-साधना उनके लिए आज भी पहली प्राथमिकता है. भारत में साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे जा चुके इस लेखक से शशिकांत ने बातचीत की. प्रस्तुत है आपके लिए- जानकी पुल.


रचना जीवन मूल्यों से जुड़कर अभिव्यक्ति पाती है। लेखक का हदय बड़ा होना चाहिएअन्यथा आपका लेखन बनावटी-सा लगता है। जिस दौर में मैंने पढऩा-लिखना शुरू कियाहमारे बीच ऐसे कई लेखक थेजिनकी रचनाओं में और उनके व्यक्तित्व में सामाजिक सरोकार और जीवन-दृष्टि स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। उस समय भी और आज भी जब-जब मैं लिखने बैठता हूं तो मुझे उन लेखकों की याद आती है। 

हमारी नई पीढ़ी के लेखकों को उनकी भाषाउनके साहित्य और उनकी जीवन दृष्टि से प्रेरणा लेनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर मशहूर चित्रकार वानगॉग को ही देखा जाए। उनकी जिंदगी में एक समय इतनी गरीबी आ गई थी कि उनके पास कैनवास खरीदने के पैसे तक नहीं होते थे। लेकिन फिर भी कला के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर कोई आंच नहीं आई। वे दवाई के डिब्बे पर चारकोल से पेंटिंग करते थे। क्योंकि कलर खरीदने के पैसे भी उनके पास नहीं होते थे। और आज उनकी वे पेंटिंग बहुत महंगे बिक रहे हैं।

दरअसल सच्चे लेखक और कलाकार में खुद को अभिव्यक्त करने की हुड़क होती है। एक बड़े कवि-लेखक में इस तरह का सामाजिक सरोकार होना ही चाहिए। निराला और उनके समकालीन कई बड़े कवियों पर यह लागू होती है। मेरी नजर में आज भी ऐसे बहुत से लेखक हैं और ऐसा लेखन हो रहा है जिसमें सामाजिक सरोकार स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। लेकिन यह भी सच है कि कुछ ऐसे भी लेखक हैं जिनके  लेखन में समाजिक सरोकार बनावटी सा लगता है।

आपको समझना चाहिए कि आज हमारी जिंदगी काफी जटिल हो गई है। कई तरह की समस्याएं हमारे सामने हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि यदि समस्याएं और चुनौतियां बढ़ी हैं तो उनका सामना करने का हमारा सामर्थ्य भी बढ़ा है। हर जमाने में समस्याएं रहती हैं और हर पीढ़ी को उनका सामना करना पड़ता है। लेकिन आज हम एक ऐसे कठिन समय में जी रहे हैं जिसमें मुश्किलें काफी बढ़ गई हैं। वे कौन कौन सी मुश्किलें हैंउन मुश्किलों से कैसे निपटा जाएहमारे समय के लेखकों को इसका उपचार खोजना होगा।

हमारे समय के लेखक पूरी शक्ति के साथ इसके इलाज के बारे में नहीं सोच पा रहे हैं। यह सच हो सकता है। लेकिन हमारे बीच के कुछ लेखकों का ध्यान इन समस्याओं पर जा रहा है। हमें इसका संतोष भी होना चाहिए। दरअसल जब से पंजाब का विभाजन हुआ हैउसके बाद कम से कम यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा साहित्य अपने समय और समाज की समस्याओं के प्रति निरपेक्ष रहा है। साहित्यकारों की दृष्टि अपने आसपास की समस्याओं पर रहती है। यह छूटनेवाली नहीं हैखासकर तब जब हम एक ऐसे कठिन और अत्याचारी समय में रह रहे हैं।

जहां तक लेखक और सत्ता के बीच संबंध का प्रश्न हैसाहित्य के साथ लेखक का संबंध जटिल रहा है। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण हैं कि सत्ता के साथ रहते हुए भी लेखकों ने अच्छे साहित्य की रचना की है। लेकिन ज्यादातर लेखकों ने सत्ता से बाहर रहकर अच्छा लिखा है और खतरे भी उठाए हैं। फिरदौसी ने महमूद के वक्त महमूद को खुश करने के लिए शाहनामा’ लिखा। महमूद गजनवी ने फिरदौसी को यह वचन दिया था कि वह हर शब्द के लिए एक दीनार देगा। वर्षों की मेहनत के बाद जब फिरदौसी शाहनामा’ लेकर महमूद गजनवी के पास गया तो महमूद को वह किताब पसंद नहीं आई। उसने उसे प्रत्येक शब्द के लिए एक दीनार नहीं बल्कि एक दिरहम का भुगतान करने का आदेश दिया। फिरदौसी खाली हाथ अपने घर लौट गया। यह वादाखिलाफी थी जैसे किसी कवि के  प्रति शब्द एक रुपये देने का वचन देकर प्रति शब्द एक पैसा दिया जाए। उसके बाद फिरदौसी ने महमूद के खिलाफ लिखने लगा। उसके बाद महमूद को  उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि फिरदौसी को उसी दर पर भुगतान किया जाए जो तय की गयी थी। महमूद ने आदेश दे दिया। दीनारों से भरी गाड़ी जब फिरदौसी के घर पहुंची तो उसकी लाश निकल रही थी। पूरी उम्र गरीबीबेबसी और फटेहाली में काटने के बाद फिरदौसी मर चुका था।

जो लेखक सत्ता के साथ रहते हैं उन्हें देखना चाहिए कि सत्ता जनता के प्रति प्रतिबद्ध है या नहींक्योंकि एक लेखक के लिए आम जनता का हित सर्वोपरि है। लेखक को जनता का प्रतिनिधि होना चाहिए। राज्यसत्ता तभी तक जब तक वह जनता के पक्ष में है। अगर राजसत्ता जनता से जुड़े अपने सरोकारों से पीछे हट जाती है तो लेखक को भी सत्ता से नाता तोड़ लेना चाहिए। एक सच्चे लेखक के लिए सबसे पहली और जरूरी चीज है- आजादी। वह अपने पक्ष बदल सकता है क्योंकि वह समाज और जनता का चौकीदार है।

इस बात में कुछ सच्चाई है कि आज कुछ लेखक सत्ता और बाजार का समर्थन कर रहे हैं। मैं साहित्य और कला के उत्सवों के आयोजन के खिलाफ नहीं हूं लेकिन ऐसे मौकों पर हमारा ध्यान साहित्य और कला से जुड़े विषयों और मुद्दों पर केंद्रित रहना चाहिए। ऐसे उत्सव यदि लेखकों और पाठकों का ध्यान खींचते हैं और उन्हें एक दूसरे के साथ संवाद करने के मौके देते हैं तो ऐसे साहित्यिक उत्सव जरूर आयोजित होने चाहिए। मैं साहित्य उत्सवों को एक अवसर के रूप में देखता हूं।

इस संदर्भ में एक उदाहरण मैं देना चाहूंगा। अशोक वाजपेयी ने जब भोपाल में भारत भवन बनाया तब वे देश और दुनिया भर के लेखकोंकलाकारों को वहां आमंत्रित करते थे। हमलोग वहां एक साथ बैठते थे और साहित्य एवं कला के मुद्दे पर गंभीर बातचीत करते थे। जहां तक नई पीढ़ी के लेखकों का सवाल हैमैं उनसे बार-बार कहता हूं कि श्रेष्ठ लेखन के लिए अध्ययन अत्यंत जरूरी है। जीवन का अनुभव हर किसी के पास होता हैलेकिन अध्ययन से आपके जीवनानुभव में प्रखरता आ जाती है। पढ़ते हुए आप दूसरे के जीवनानुभवों और विचारों से गहरे रूप से जुड़ते हैं आत्म-मंथन करते हैं और खुद को, समय को और समाज की समस्याओं को बेहतर ढंग से अभिव्यक्ति कर पाते हैं। दरअसल, अध्ययन का एक संश्लिष्ट रूप है लेखन का। अपने जीवन में मुझे हमेशा पढऩे में दिलचस्पी रही है। इसलिए पढऩे-लिखने को मैं एक संयुक्त कर्म मानता हूं।

प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार
http://www.jankipul.com/2011/02/blog-post_25.html?spref=fb


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