राजेश जोशी के ये विचार प्रीति सिंह परिहार से बातचीत पर आधारित हैं. राजेश जोशी के लिए साहित्य हमेशा सबसे बड़ी प्राथमिकता रही है. हमारे दौर के इस प्रमुख कवि की यह बातचीत पढते हैं- जानकी पुल.
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लेखक की तरह लिखना सत्तर के शुरूआती दशक
में शुरू किया. शुरू से ही झुकाव कविता की तरफ रहा. बाद में कुछ कहानियां भी
लिखीं. हालांकि मैं नाटक, कहानी और आलोचना जैसी कई विधाओं में लिखता हूं, पर
मेरी मूल विधा कविता ही है. एक टेंपरामेंट होता है, जो
आपकी विधा तय कर देता है. मुझे जल्द ही महसूस हो गया था कि मेरा मूल स्वभाव
कविता का है. पहली कविता कौन सी लिखी ये तो याद नहीं, लेकिन
पहली कविता प्रकाशित हुई ‘इसलिए’ शीर्षक से वातायन में. यह कविता किसी संग्रह में नहीं है.
शुरुआती कविताएं एक खास प्रभाव में लिखी गयी थीं. जल्द ही लगा कि जो कुछ लिख रहा
हूं, वह मेरा अपना नहीं है. मुझे अपनी कविता की खोज करनी है, जिसमें
मेरा अनुभव और मेरी बात हो. यह वह समय था जब कविता की एक नयी पीढ़ी आ रही थी.
हालांकि, उनमें कई उम्र में मुझसे छोटे थे, लेकिन अरुण कमल,विष्णु
नागर और मैं, हम सब एक साथ शुरू कर रहे थे. तब सबमें कोई संपर्क नहीं था. कोई
एक दूसरे को जानता तक नहीं था, पर सब कहीं न कहीं यह
महसूस कर रहे थे कि अब कविता का दृश्य बदलना चाहिए. इस पीढ़ी ने बहुत नयी और अलग
तरह की कविताएं दी, जिसमें जीवन के आस-पास के दृश्य, रोजर्मरा की चीजें, आम
बोलचाल की भाषा थी. यह कविता में एक तरह का प्रस्थान था. कई लोग नयी दिशा में
कदम बढ.ा रहे थे. बिना एक दूसरे को जाने और बिना एक दूसरे को पढे..
रचना प्रक्रिया एक बहुत ही टेढ.ा सवाल है. कई लोगों ने इसकी व्याख्या करने की कोशिश है,लेकिन मुझे लगता है कि कभी भी हम रचना की प्रक्रिया को नहीं जान सकते. अगर रचना प्रक्रिया को हम जान लेंगे, तो उसका उत्पादन करने लगेंगे. लेकिन रचना को एक प्रोडक्ट की तरह पैदा नहीं किया जा सकता. प्रोडक्ट बनाना एक मैकेनिकल प्रोसेस है, क्रिएटिव नहीं. दोनों में बुनियादी अंतर है. रचना की प्रक्रिया एक तरह से रहस्यमयी होती है, जिसे हम कुछ समझते हैं, कुछ नहीं. जरूरी नहीं कि एक रचना जिस ढंग से शुरू हुई है, दूसरी भी उसी ढंग से आपके पास आ सके. कभी एक दृश्य से कविता मिलती है, कभी एक शब्द या वाक्य से. इसलिए रचना प्रक्रिया के बारे में बताना मुश्किल है. यह सही है कि कोई दृश्य या उससे बना बिंब मुझे पहले आकर्षित करता है फिर बहुत दिन तक दिमाग में घूमता रहता है और आगे चलकर पहले से अवचेतन में प.डे अनुभव भी उससे जुड़ जाते हैं. मेरे ख्याल से मेरी ही नहीं, हर लेखक के लेखन की मूल चिंता एक ही होती है कि वह उस आदमी की तरफ से बोल सके ,जिसे समाज की संरचनाओं में न्याय नहीं मिला. जो इत्यादि है. वास्तव में जिनके दम पर दुनिया चल रही है, जो मूल उत्पादन कर्म कर रहे हैं, वही समाज में सबसे अधिक उपेक्षित हैं. मेरी कविता व्यवस्था में मौजूद इस मूलभूत अन्याय के विरुद्ध है. कुछ लोग कहते हैं, मैं तो अपने अंदर की कविता लिखता हूं. अंदर क्या, बाहर से अलग है? मेरी कविताओं में परिवार, दोस्त और शहर भी हैं. मुझे अपने शहर से बहुत लगाव रहा है और उस पर मैंने बहुत लिखा है. अपना शहर छोड़ कर मैं कहीं और नहीं रह सकता. जीवन के अनुभवों के साथ लेखन में कल्पना की बहुत भूमिका होती है. हम जिसे कल्पना कहते हैं, दरअसल, वह वास्तविकता है. स्वप्न भी एक रियलिटी है. सपना तो आपने ही देखा, अब आप अगर रियल हैं तो आपका स्वप्न भी रियल है. कल्पना एक रियलिटी से चलते हुए दूसरी रियलिटी में आती है. साहित्य तो कल्पना के बिना संभव ही नहीं है. लेखन एक जागृत स्वप्न है और जागृत स्वप्न तो कल्पना ही है. पहले कवि को कवि तब तक नहीं माना जाता था जब तक वह नाटक नहीं लिख लेता था. महाकवि कालिदास को भी तब स्वीकृति मिली जब उन्होंने नाटक लिखे. मैंने कवि कहलाने के लिए गद्य नहीं लिखा. दरअसल, हमारे पास बहुत से अनुभव होते हैं और सब कविता में नहीं अटते. तब लगता है कि इसके लिए कहीं और जाना चाहिए. कविता बहुत कुछ एक साथ कहने की इजाजत नहीं देती. हो सकता कि इतना कुछ कविता में कह सकने का हमारा सार्मथ्य न हो. दुनिया में ऐसे कई कवि हैं, जिन्होनें गद्य लिखा. अब तो कविता भी गद्य में लिखी जाती है. आप गद्य से निजात नहीं पा सकते. हर आदमी को लगता है कि उसके पास एक उपन्यास है. मुझे भी लगता है. लेकिन उपन्यास लिखने के लिए जिस आत्मविश्वास की जरूरत होती है, वह मेरे भीतर नहीं है. ‘किस्सा कोताह’को एक तरह से मैंने आख्यान की तरह लिखा है. उसे लिखने का श्रेय मेरे मित्र अखिलेश को जाता है. तद्भव के वृत्तांत कॉलम के लिए उनके कहने पर मैंने उसे लिखना शुरू किया था. मुझे नहीं लगता था कि मैं इतना सारा गद्य एक साथ लिख सकता हूं. इसे मैंने बड़ी सरलता के साथ लिखा. बिना रोक-टोक के, सिलसिलेवार चलने की बाध्यता से मुक्त होकर. मेरी लेखन में रात को सड़कों पर भटकने का जिक्र बहुत बार है. दरअसल, इस तरह की रातें मेरी जिंदगी में शामिल हैं. हम लोग अकसर निशाचर कहे जाते थे. पढाई के दिनों में भोपाल के जिस इलाके में हम रहते थे, वहां कई दुकानें रात भर खुली रहती थीं. लंबी पटियेबाजी यानी पटियों में बैठ कर गप्पें मारना भोपाल की संस्कृति का हिस्सा है. हम अकसर रात को पटियेबाजी करते. कई बार रात देर से लौटते, तो पिता नाराज होकर अंदर से दरवाजा बंद कर देते, फिर हम प्लेटफार्म पर रात गुजारते. स्टेशन पर हमने कई रातें गुजारी हैं. मुझे हमेशा से रात बहुत आकर्षित करती रही है. ‘किस्सा कोताह’ में भी मैंने एक जगह लिखा है, ‘जिसने दुनिया बनायी होगी उसको रातें जागने के लिए बनाना था, दिन सोने के लिए.’ एक खास तरह का एकांत भी देती है रात. अगर आप लेखक हैं तो ये एकांत और भी मायने रखता है. अब रात को इस तरह भटकना उतना संभव नहीं, फिर भी थोड़ा बहुत तो है ही. ऐसा जरूरी नहीं कि हम हमेशा अपने मनमाफिक और अच्छी कविताएं लिखें. कई कविताएं बहुत महत्वाकांक्षा के साथ शुरू होती हैं, पर बनती खराब हैं. कभी अचानक अपनी किसी कविता से इंटीमेसी हो जाती है और उससे बाद तक जु.डे रह सकते हैं और किसी से धीरे-धीरे अलग भी हो सकते हैं. लेकिन कविता में पड़ाव जैसा कुछ नहीं होता. बहुत बार दिमाग में कविता की कोई पंक्ति आती है और आप उस नोट नहीं कर पाते फिर दूसरे दिन ढूंढ.ते रहिए, वह आपको नहीं मिलती. रघुवीर सहाय अपने अंतिम दिनों में एक नोटबुक और पेंसिल साथ में रखते थे. मैंने जब पढ.ा तो लगा कि मुझे भी ऐसा करना चाहिए पर ऐसा हो नहीं पाता. आप सब चीजें याद नहीं रख सकते, न ही सब चीजें नोट कर सकते. पहले मैं सामान्यत: रात में लिखता था, अब मैं दोपहर में लिखता हूं. लेखन के लिए एकांत जरूरी होता है और दोपहर में घर एकदम खाली होता है. पत्नी आफिस चली जाती हैं. कोई और भी उस वक्त नहीं आता. अब मैं सीधे कंप्यूटर पर लिखता हूं, पहले टाइपराइटर पर लिखता था,अरसा पहले हाथ से लिखता था. शुरू से आदत रही है कि मैं 10 मिनिट के एक पीरियड के बाद कभी चाय, कभी पानी पीने के बहाने उठ जाता हूं. लेकिन घर से बाहर नहीं निकलता. यह सब करते हुए भी जब तक अपने आप में हूं, कोई डिस्टर्ब न करे, रचना मेरे दिमाग में चलती रहती है. कोई दूसरा आ जाये और उससे बात करनापड़े तो लय टूट जाती है. मेरे समकालीनों में अरुण कमल, विजय कुमार और मंगलेश डबराल मुझे पसंद हैं. पहले मैं चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल बहुत प्रिय हैं. विनोद कुमार शुक्ल जितने अच्छे कवि हैं,उतने अच्छे गद्यकार भी हैं. वे कम बोलते हैं और उसमें सीखने के लिए बहुत होता है. उन्होंने कहा कि कविता जब समाप्त हो तो उसमें उसका थॉट कनक्लूड न हो. कविता के साथ अगर थॉट कनक्लूड हो जायेगा तो पढ.ने वाले को सोचने का मौका ही नहीं मिलेगा. इस तरह उनसे ही सीखा कि कविता के अंत के साथ उसके विचार का भी अंत नहीं करना चाहिए. मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे त्रिलोचन शास्त्री और नागार्जुन जैसे वरिष्ठ लेखकों का सानिध्य मिला. निराला मेरे सबसे प्रिय कवियों में हैं. एक दौर था कि भोपाल साहित्य का खास तौर पर कविता का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था. भारतीय भाषा का शायद ही ऐसा कोई कवि हो जो भोपाल न आया हो. जबसे नयी सरकार आयी, स्थितियां बदल गयीं. प्रेमचंद मुझे काफी पसंद हैं. उनका लिखा आज भी प्रासंगिक लगता है. गोदान पढ.ते हुए लगता है कि हमारे पास इतना महान उपन्यास है. उत्रीसवीं और बीसवीं सदी के यूरोपियन उपन्यास भी यह हिम्मत नहीं कर पा रहे थे कि किसी किसान को कें्र द्र में रखकर इस तरह से लिख सकें. मध्यवर्ग ही उस समय नायक होता था. टॉल्सटॉय को लेनिन ने किसान क्रांति का लेखक कहा है, पर उनका भी नायक मिडिल क्लास ही है. हमारे लिए गर्व की बात है कि हिंदी में बीसवीं सदी के बिलकुल शुरुआत में ऐसा उपन्यास लिखने वाला उपन्यासकार हुआ. वर्तमान में मुझे ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह का लेखन पसंद है. विश्व साहित्य मैंने बहुत ज्यादा नहीं पढ.ा. लेकिन जितना पढ.ा उसके अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि आप उसे उस तरह नहीं पकड़ सकते जैसे अपनी भाषा की रचनाओं को पकड़ते हैं. इसमें एक व्यवधान होता है कि आप उस समाज को नहीं जानते, खासतौर पर गद्य में. वह एक तरह का अधूरा पाठ होता है. इसलिए पूरी तरह से उसे आत्मसात नहीं कर सकते. यह ठीक है कि जो महान लेखक हुए,वे पूरी दुनिया में महान हैं और सबको पसंद आते हैं. मनुष्यों की वास्तविक समस्या पर उन्होंने बहुत गहराई से जाकर सोचा है. लेकिन उन्हें पढ.कर भी मैं पूरी तरह नहीं, अधूरा ही जान पाता हूं. समाज में लेखक की भूमिका बहुत सारी चीजों से जुड़ी है. लेकिन क्या हमारा समाज सचमुच ऐसा समाज है जिसमें लेखक के लिए कोई जगह है? जैसे बांग्ला समाज में लेखक की बहुत बड़ी भूमिका है. जब महाश्वेता देवी रैली का नेतृत्व करती हुई राइटर्स बिल्डिंग तक जाती हैं, तो सीएम अपनी कुर्सी से उठकर नीचे आ जाते हैं. रचनात्मक क्षेत्रों से जु.डे लोग जब पश्चिम बंगाल में तीस साल से चली आ रही वाम सरकार से नाराज हुए, तो उसका प्रभाव वहां के समाज पर पड़ा. वहां सत्ता का परिदृश्य ही बदल गया. सबसे पहली बात है कि समाज में क्रिएटिव आदमी की स्थिति क्या है. उसकी क्या सचमुच कोई स्थिति हैं? हिंदी समाज में किसी की कोई स्थिति बनने नहीं दी गयी. हिंदी समाज ने खुद भी थोड़ी सी गलतियां कीं. जब तीन भाषा फार्मूला आया तो उन्होंने तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत को घुसेड़ दिया. जबकि तीसरी भाषा के रूप में प्रादेशिक भाषा पढ़ाना चाहिए था. दूसरी कोई भी प्रादेशिक भाषा अब हिंदी को विरोधी भाषा के तौर पर देखती है. अंगरेजी अखबार हिंदी के लेखक को छह लाइन भी जगह नहीं देते क्योंकि उसका सबसे बड़ा डर हिंदी है. इस देश की सबसे बड़ी आबादी हिंदी भाषी है फिर भी हिंदी ऐसी स्थिति में है कि उसका विरोध ज्यादा है. खुद हिंदी बोलने वाले ही उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. हमने उसे शिक्षा की भाषा नहीं बनाया, कॅरियर की भाषा नहीं बनाया. इसलिए हिंदी में अभी लेखक की स्थति ऐसी नहीं है कि वो कुछ कहे तो उसका असर हो. फिर भी अखबारों में आप देखें, जब कोई सामाजिक या राजनीतिक परेशानी आती है, तो लेखकों का बोलना महत्वपूर्ण माना जाता है. समाज उस पर ज्यादा विश्वास करता है |
गीता पंडित
साभार
1 comment:
behtareen aalekh..
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