Tuesday, January 3, 2012

नव-वर्ष के नाम नेह की .... गीता पंडित ( आज मेरा एक नवगीत मेरे आने वाले संग्रह से )


....
.....


नव - वर्ष के नाम नेह की
देख वसीयत कर जाएँ |

किरण चढी जो 
चौबारे पर
तल में आकर अब वो देखे
हाँडी चूल्हे 
पर रखी है
दाल बिना ये कैसे लेखे

कम्पित हैं तन कम्पित हैं मन
अँखियों में 
सपने कब खेले
कचरे में क्या बीन रहे हैं
कहाँ खिलौने 
के वो मेले

विगत हुआ उसको जाने दें
देख नया कुछ कर जाएँ |

बहुत हुए 
विस्फोट नेह के
नयनों में बहता है सागर
कहीं कांपती 
देह धरा की
बाढ़ सुनामी है मन गागर

कहीं कमल की पाँखुरियों पर
अब भी सूरज 
धधक रहा है
वहीं देख दुश्शासन को अब 
चिड़िया का मन 
दहक रहा है

दर्पण का मन हो ना मैला
मन सुरभी भरकर जाएँ 
नव - वर्ष के नाम नेह की
देख वसीयत कर जाएँ |


.........




गीता पंडित 
(मेरे आने वाले संग्रह से )

10 comments:

sushila said...

अति सुंदर गीताजी ! ’नेह की वसीयत’ अत्यंत पावन भाव और सुंदर कल्पना एवं उपमानों से सजा खूबसूरत गीत ! बधाई !

कल्पना पंत said...

कहीं कमल की पंखुरियों पर अब भी सूरज धधक रहा है... उम्दा!

अंजू शर्मा said...

bahut sunder geet di....man sochne par vivash ho gaya.....

vandana gupta said...

नेह की वसीयत …………वाह गीता जी बहुत सुन्दर ख्याल्………शानदार प्रस्तुति।

RDS said...

"विगत हुआ उसको जाने दें देख नया कुछ कर जाएँ..नव - वर्ष के नाम नेह की देख वसीयत कर जाएँ !! " आनंद आ गया ! नेह की चाहत हर मन मे बस जाये तो यह धरा स्वर्ग हो जाये ! ईश्वर भी तो नेह चाहता होगा । क्यों न वह मेघ से नेह ही बरसा दे !

Naveen Mani Tripathi said...

Vah geeta ji bahut hi yatharthata ke sath lay me apki rachana lagi ... bahut bahut badhai

गीता पंडित said...

आप सभी मित्रों का आभार ...

नव-वर्ष की ढेर सारी शुभ कामनाएँ ..

गीता पंडित said...
This comment has been removed by the author.
गीता पंडित said...

नव - वर्ष के नाम नेह की
देख वसीयत कर जाएँ |


किरण चढी जो चौबारे पर
तल में आकर अब वो देखे
हाँडी चूल्हे पर रखी है
दाल बिना ये कैसे लेखे
कम्पित हैं तन कम्पित हैं मन
अँखियों में सपने कब खेले
कचरे में क्या बीन रहे हैं
कहाँ खिलौने के वो मेले


विगत हुआ उसको जाने दें
देख नया कुछ कर जाएँ |


बहुत हुए विस्फोट नेह के
नयनों में बहता है सागर
कहीं कांपती देह धरा की
बाढ़ सुनामी है मन गागर
कहीं कमल की पाँखुरियों पर
अब भी सूरज धधक रहा है
वही जाँघ दुश्शासन की है
त्रिया का मन दहक रहा है


दर्पण का मन हो ना मैला
मन सुरभी भर कर जाएँ ........ गीता पंडित


(मेरे आने वाले संग्रह से )... फिर से कुछ बदलाव के साथ साभार प्रस्तुत कर रही हूँ...

vidya said...

बहुत सुन्दर कवितायें...दोनों ही..
सादर.