Tuesday, September 6, 2011

एक स्त्री के रूप में "महादेवी वर्मा" गीता पंडित की दृष्टि से

 
( भाग 1 )

....
......

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार


आहा !! प्रेम का तीर्थ, आज की मीरा महादेवी वर्मा
छायावादी युग के सुन्दरतम स्तंभों में से एक, ....परिचय स्वयम देती हुई कहती हैं...


तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!
तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही विस्मत मिश्रित हाला
तेरा ही मानस मधुशाला
फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या
?

चित्रित तू मैं हूँ रेखा क्रम,मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया-छाया में रहस्यमय
प्रेयसी प्रियतम का अभिनय क्या?



जन्म मरण निश्चित हैं इस परिचय से अधिक आलौकिक कोई परिचय हो सकता है क्या
लेकिन एक अलग परिप्रेक्ष्य में महादेवी वर्मा...   एक स्त्री के रूप में ...जब सोचती हूँ तो....

सब की सीमा बन सागर सी,
हो असीम आलोक-लहर सी,
तारोंमय आकाश छिपा
रखती चंचल तारक अपने में!
शाप मुझे बन जाता वर सा,
पतझर मधु का मास अजर सा,
रचती कितने स्वर्ग एक
लघु प्राणों के स्पन्दन अपने में!


पीड़ा का महा ज्वार आंदोलित होने लगता है और प्रश्न अनगिन सम्मुख आकर 


खड़े हो जाते हैं | फरुखाबाद के 


वकीलों परिवार में 
जन्म लेने के बाद भी ___
वही असमय विवाह और फिर पीड़ा का अतिरेक कहाँ से कहाँ ले गया ___
सांसारिक मोह–माया से दूर...... कहीं अपने मन के कोष्ठ में नीड़ बना चिड़िया ने
स्वयम की श्वासों के लियें दाना पानी की व्यवस्था की शब्द के संसार में खोकर .....


छंद-रचना-सी गगन की
रंगमय उमड़े नहीं घन,
विहग-सरगम में न सुन
पड़ता दिवस के यान का स्वन,
पंक-सा रथचक्र से लिपटा अँधेरा है ।


रोकती पथ में पगों को
साँस की जंजीर दुहरी,
जागरण के द्वार पर
सपने बने निस्तंद्र प्रहरी,
नयन पर सूने क्षणों का अचल घेरा है ।
.......

वर इसे दो एक कह दो
मिलन के क्षण का उजाला!

झर इसी से अग्नि के कण,
बन रहे हैं वेदना-घन,
प्राण में इसने विरह का
मोम सा मृदु शलभ पाला?


आह !!!
पीड़ा की पराकाष्ठा .तो देखिये....


मेरी मृदु पलकें मूँद-मूँद,
छलका आँसू की बूँद-बूँद,
लघुत्तम कलियों में नाप प्राण,
सौरभ पर मेरे तोल गान,
बिन माँगे तुमने दे डाला, करुणा का पारावार मुझे!
चिर सुख-दुख के दो पार मुझे|
क्यों अश्रु न हो श्रृंगार मुझे!
.....


यह न झंझा से बुझेगा,
बन मिटेगा मिट बनेगा,
भय इसे है हो न जावे
प्रिय तुम्हारा पंथ काला!


कल्प-युगव्यापी विरह को एक सिहरन में सँभाले,
शून्यता भर तरल मोती से मधुर सुधि-दीप बाले,
क्यों किसी के आगमन के
शकुन स्पन्दन में मनाती?
...प्राण में चातक बसाती,
...सुप्त प्रहरी को जगाती,
...सजल दीपक राग गाती |


ये भी_____


किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?


 

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


 

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !
आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो,
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है ....
........

लेखनी चीत्कार करती हुई...


दीप को अब दूँ विदा, या
आज इसमें स्नेह ढालूँ ?
दूँ बुझा, या ओट में रख
दग्ध बाती को सँभालूँ ?
किरण-पथ पर क्यों अकेला दीप मेरा है ?
यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है ?


हर शब्द, हर भाव, हर गीत जैसे मन की ऋचायें,  हवन का सुगन्धित धूम्र
अंतर से उच्चारित वेद ...पावन करते जाते हैं मन को, मन के अंदर बैठे
उस स्वजन को जो उस भावना में तल्लीन होकर अपने स्व को भूल जाता है
और एकाकार हो जाता है उस लय में,  उस सुर में,  उस सरगम में जो महादेवी के
गान में बजती है, तरंगित होती है |

क्रमश:


शत-शत नमन मेरा   
माँ सरस्वती पुत्री माहादेवी को |

नत-मस्तक
गीता पंडित  ..
यह भी....

7 comments:

गीता पंडित said...

चेतन रामकिशन ‎(फेसबुक)

"अनमोल रचना!

महादेवी वर्मा जी- दीदी जी, अभी उनकी रचना पर कमेन्ट की योग्यता तो नहीं हैं किन्तु,
बस इतना ही कहता हूँ कि"

... " उनके भावों के ये धारा, अमृत मधु समान!
महादेवी जी को करता हूँ मैं शत शत प्रणाम!"

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी पैनी दृष्टि का जवाब नहीं!

sharad Chandra Gaur said...

sarthak kavitai

praveen pandit said...

हिन्दी काव्य साहित्य की अमर ज्योति महादेवी वर्मा जी की स्मृति को प्रणाम | उनकी रचनाएँ निश्चय ही काल जयी हैं| उनकी ही चार पंक्तियों के साथ मेरा श्रद्धा पूर्ण नमन -- घिरती रहे रात
न पथ रूँधती ये गहनतम शिलाएँ
न गति रोक पातीं पिघल मिल दिशाएँ
चली मुक्त मैं ज्यों मलय की मधुर बात ------

अनुपमा पाठक said...

बेहद सुन्दर प्रस्तुति...
आपकी दृष्टि से महादेवी जी को पढ़ना अच्छा लगा!
आभार!
अन्य कड़ियों की भी प्रतीक्षा रहेगी!

Mithilesh said...

महादेवी के काव्य में भाव समृद्धि तथा शैल्पिक सौन्दर्य का आकर्षक समन्वय है। महादेवी जी के काव्य का प्रधान रस श्रृंगार है। महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है और इन अनुभूतियों को नए सिरे से उकेर दिया है तुमने गीता। अच्छा लगा, बधाई .......

Mithilesh said...

महादेवी के काव्य में भाव समृद्धि तथा शैल्पिक सौन्दर्य का आकर्षक समन्वय है। महादेवी जी के काव्य का प्रधान रस श्रृंगार है। महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है और इन अनुभूतियों को नए सिरे से उकेर दिया है तुमने गीता। अच्छा लगा, बधाई .......