Tuesday, June 16, 2015

कुछ कविताएँ ..... दिनेश शुक्ल

......
 
केवल लय ही नहीं
बहुत कुछ आने वाला है कविता में
कविता में ही नहीं थकी हारी दुनिया के चप्पे-चप्पे में
चट्टानें फोड़-फोड़ कर
कोदों, साँवाँ, तीसी जैसे भूले बिसरे
और उपेक्षित जीवन के
अगणित अंकुर जगने वाले हैं
रेगिस्तानी बालू में
ये लहरें जो सुगबुगा रही हैं
रेत की नहीं
खालिस पानी की लहरें हैं
फिर से दूध उतर आया है
धरती की बूढ़ी छाती में
.........
 
 
 
 
 
"सिरहाने"
क्या धरा है नींद के उष्णीश पर
...
एक पुस्तक अधपढी
अधखुला सा एक हाथ
एक चिंता
दो खुली आँखें
और
अनगिन निष्पलक पल
और किंचित
तुम्हारा आभास...
........
 
 
 

 
वह गली उधर से उधर ही
किसी तरफ़ मुड़ती चली जाती थी
और जाने कहाँ जा निकलती ...
बहुत प्रयत्न के बाद भी
उन पाँच में से
एक भी कभी जान नहीं पाया
गली का गंतव्य

 
तब रातें बहुत जल्द ही
शुरू हो जाती थीं,
कण्ठ कुछ देर से फूटता था,
हाफ़पैण्ट पहन कर एक अच्छी उमर तक
लड़के स्कूल जाया करते थे
यानें नवें दसवें ग्यारवें तक भी

 
उस गली में उड़ती हुई साइकिलें
दिखाई पड़तीं अचानक
जैसे साइबेरिया की चिड़ियों का
कोलाहल अचानक ही
आसमान को भरता चला आये
और फिर दूर क्षितिज में
धीरे-धीरे मंद होता हुआ घुल जाय

 
चिड़ियाँ आँखों-सी थीं
आँखें चिड़ियों-सी
गौरैयाँ, गलरियाँ, मैनायें, ललमुनियाँ ...
साइकिलें लोहे की नहीं
बल्कि टाफ़ी या चीनी की बनी हुई
और आवाज़ें फूलों के गले से
आती हुई सुगंध की तरह
धीरे-धीरे हवा में घुल जाने वाली ...

 
हाँ भाई,
होते हैं कुछ आस्वाद
जो अनुभूति को छूते ही घुल जाते हैं
और शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध को
चपत लगा कर
कहाँ-कहाँ कैसे रोमावलियों को
जगाते हुए, अल्पजीवी
नदियों की तरह शरीरों पर
बहते निकल जाते हैं

 
शरीर की चट्टानों पर
उन धाराओं के निशान छूट गये हैं
चक्रिल, ऋजु, वलय, परवलय,
गड्ढे... अजब-अजब आकृतियाँ
कहीं-कहीं तो अब भी बचा रह गया है
किसी-किसी गोखुर में थोड़ा-सा पानी
जिसमें चौथ के चंद्रमा का प्रतिविम्ब
घात लगा कर बैठा रहता है

 
वह गली अब भी है
सिर्फ़ इतना पता चला है कि
वह एक नदी है
और यह भी कि उसका एक छोर
आकाशगंगा से जुड़ा है

 
चीलें आकाश में मंडला रही हैं
अपने अण्डे चीलें आकाश में सेती हैं
चीलें ग्रीष्माकाश की प्रचंडता को
कम कर रही हैं
गली में सायकिलें अब नहीं आतीं
वहाँ दोनों तरफ़ सिर्फ़ दूकानें ही दूकानें हैं
……… 
 

 
              
डूब कर
तैरती सफ़ेद चील
बादलों की सफ़ेद झील मे...
अधखिली बकावली
की कली खोल कर
रात-रात भर भरती चाँदनी
सारा संगीत संसार का
जिसकी अनुगूँज
देखी वह बीज-ध्वनि
नीलिमा-मे-उड़ती धवल हंसावली...
रात की अनवरत
वर्षा मे धुल-धुल कर
श्वेत होता अरुणोदय
काँटों से उलझती
ढीठ उन उँगलियों में
फूल हैं कपास के
खिलखिला के खेत-खेत
खिल उठा है काँस
सत्य का पुंडरीक
उद्भासित
हृदय के सरोवर में
आ लेकिन कहाँ से रही है
ये ढेर-ढेर श्वेताभा
प्रतिविम्बित हो-हो कर
ये सारी उज्ज्वलता.....
आज तो तुम थीं अमावस की साड़ी में
मेरे ही पास
ओ मेरी आत्मा की सुवास
..........
 
 
 

 
वर्षों की तो शुरुआत भी नहीं हुई थी
तब दिन ढलते नहीं थे
जब मन हुआ
आ जाया करता था चाँद..
माँ के आंचर-सी गहरी गाढ़े दूध की नींद
जहां से लौटना
कि उतरना सातवें आसमान से....
एक हल्की-सी ढलान
जिस पर चढ़ते-चढ़ते सुबह गाय बन जाती थी
जिसका कि नाम होता था सरसुता
...........
 
 
 
 
 
कक्षा-सी सुदूर नक्षत्र की
कक्षा सातवीं
लड़कों मे लड़कियां थोड़ी-थोड़ी बाक़ी अभी
लड़कियों मे लड़के- पंजों मे ताकत बराबर की
छत खपरैल की
जुलाई से सितंबर तक टपकती रही उस साल
कमरे में नमी और देह में रसायन
रिसते रहे
और तब
शुरू हुआ बटवारा बेंचों का अनजाने
शुरू हुआ वर्षों का बीतना
उसी साल...
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घाट की सीढ़ियों के कगार पर
बैठा बिसूरता बिठूर
गंगा पद्माकर की
अठारह-सौ-सत्तावन की गंगा
गंगा खोती हुई ...
तुम्हारे पाँव कीचड़ मे लथपथ श्वेतकमल
तुम आईं सूर्यों के देश से
तुम्हारे पास शब्दों के खोये हुये अर्थ थे
चित्तभूमि भरी आभा से तुम्हारी
सचेत किया तुमने कि अंधकार
जड़ें जमा चुका है हम सब के बीच
और उसने भेस ऐसा बनाया है इस बार
कि उसे समझ कर भी समझ न पाओ तुम
बल्कि बंद कर लो अपनी आंखे
और देख कर भी कुछ न देखो
ठिठका हुआ समय
गंगा के प्रतिहत प्रवाह-सा
लेकिन अब तुम हो मेरे साथ
मेरी अंतःसलिला !
कल-कल करती ऊर्मिल जल-सी.
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प्रेषिता
गीता पंडित
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