इच्छा ___
स्वप्न ____
वह बार-बार भागती रही ज्यों अचानक किसी ने नींद में पुकारा कभी किसी मंदिर की सीढ़ी पर बैठी रही घंटों और फिर अँधेरा होने पर लौटी
कभी किसी दूर के संबंधी किसी परिचित के घर दो-चार दिन काटे कभी नैहर चली गई हफ्ते-माह पर थक कर लौटी हर बार मार खा कर भागी हर बार लौट कर मार खाई जानती थी वो कहीं कोई रास्ता नहीं है कहीं कोई अंतिम आसरा नहीं है जानती थी वो लौटना ही होगा इस बार भी
गंगा भी अधिक दूर नहीं थी पास ही थीं रेल की पटरियाँ लेकिन वह जीवन से मृत्यु नहीं मृत्यु से जीवन के लिए भाग रही थी खूँटे से बँधी बछिया-सी जहाँ तक रस्सी जाती, भागती गर्दन ऐंठने तक खूँटे को डिगाती
वह बार-बार भागती रही बार-बार हर रात एक ही सपना देखती ताकि भूल न जाए मुक्ति की इच्छा मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न
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सखियाँ ___
माथे पर जल भरा गगरा लिए ठमक गई अचानक वह युवती
मुश्किल से गर्दन जरा-सी घुमाई दायाँ तलवा पीछे उठाया और सखी ने झुक कर खींचा रेंगनी काँटा
और चल दी फिर दोनों सखियाँ माथे पर जल लिए
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संबंध 1 ____
तुम्हारी देह से छूटा हुआ पहला बच्चा रो रहा था तुम्हारी देह के किनारे और तुम्हारी छाती से दूध छूट नहीं रहा था तुम हार गईं, माँ भी और दादी और तुम्हें घेर कर खड़ी थीं टोले की औरतें जिनकी साड़ियों के कोर गीले थे मुझे बुलाया गया सब हट गईं एक एक कर और माँ ने कहा तुम इसका थन मुँह से लेकर खींचो और माँ भी बाहर हो गई खड़ा रहा मैं जैसे हत्या लगी हो
तुमने हुक खोले और गाय की बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखा मैं काँप गया दोनों स्तन इतने कठोर कैंता के फल से और बच्चा रो रहा था एक ओर
नहीं कह सकता वह सुख था या शोक मैं तुम्हारा देवर तुम्हारा पति या पुत्र मैंने कंठ में रोक लिया था वह दूध
हम अलग हो चुके हैं अब अलग-अलग चूल्हे हैं हमारे और अलग-अलग जीवन वह बच्चा भी अब सयाना है और तुम भी ढल गई हो फिर भी मैं कह नहीं सकता यह कैसा संबंध है मैं तुम्हारा देवर तुम्हारा पति तुम्हारा पुत्र?
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संबंध 2 ___
जब आधा रास्ता आ गया तब अचानक कुछ चमका, कोई नस - समुद्र में गिरने के ठीक पहले लगा पीछे सब छोड़ दिया सूखा
और अब कुछ हो नहीं सकता था, फिर मैं ने सोचा कितनी देर बहेगा खून अपने आप थक्का बन जाएगा।
तेज छुरे-सा खून से सना चमक रहा था धूप में पसीना कंठ के कोटर में जमा।
इतना बोलना ठीक न था मेरा, जो सहती गई इसलिए नहीं कि उसे कुछ कहना न था, बस इसलिए कि मेरे यह कहने पर कि अब बचा ही क्या है उसने उठँगा दी पीठ और देखती रही चुपचाप ढहता हुआ बाँध।
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सम्पादन
गीता पंडित
साभार hindi samay.com से |
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1 comment:
सभी रचनायें पठनीय...खासकर पहली रचना 'स्वप्न' की अन्तिम पंक्ति "बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न" कविता को के उद्देश्य को पूरा करती है
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