ब्रेस्ट कैंसर
(वबिता टोपो की उद्दाम जिजीविषा को निवेदित)
दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुपफाओं में
जाले लगे!
'कहते हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!
निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी,सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-पफुदे नन्हे पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी!
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,अंग-संग मेरे लगे ऐसे,दूभर हुआ सड़क पर चलना!
बुल बुले, अच्छा हुआ, पफूटे!
कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम के बाहर।
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीफों के हीरे, हलो।
कहो, कैसे हो?'जैसे कि स्मगलर के जाल में ही बुढ़ा गई लड़की
करती है कार्यभार पूरा अंतिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर किए
और मेज पर रख दिए अपनी
तकलीपफ के हीरे!
अब मेरी कोई नहीं लगतीं ये तकलीफें,
तोड़ लिया है उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!
जाने दो, जो होता है सो होता है,मेरे किए जो हो सकता था-मैंने किया,
दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुपफाओं में
जाले लगे!
'कहते हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!
निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी,सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-पफुदे नन्हे पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी!
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,अंग-संग मेरे लगे ऐसे,दूभर हुआ सड़क पर चलना!
बुल बुले, अच्छा हुआ, पफूटे!
कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम के बाहर।
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीफों के हीरे, हलो।
कहो, कैसे हो?'जैसे कि स्मगलर के जाल में ही बुढ़ा गई लड़की
करती है कार्यभार पूरा अंतिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर किए
और मेज पर रख दिए अपनी
तकलीपफ के हीरे!
अब मेरी कोई नहीं लगतीं ये तकलीफें,
तोड़ लिया है उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!
जाने दो, जो होता है सो होता है,मेरे किए जो हो सकता था-मैंने किया,
दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने!
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुपफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधो नहाएँ
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियाँ!
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुपफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधो नहाएँ
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियाँ!
........
इच्छा होती तब वह उन के बीच धंसा लेता अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो तो उन में छुपा लेता अपना मुंह
कर देता उसे अपने आंसुओं से तर
वह उस से कहता तुम यूं ही बैठी रहो सामने
मैं इन्हें जी भर के देखना चाहता हूँ
और तब तक उन पर आँखें गडाए रहता
जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से
या लजा कर अपनी हाथों में छुपा नहीं लेती उन्हें
अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थाम कर वह उस से कहता
ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी
मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना
वह उन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता
उन के बारे में उसकी बातें सुन सुन कर बौराई ---
वह भी जब कभी खड़ी हो कर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफे सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुंह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें
वह जब भी घर से निकलती इन दोनों पर
दाल ही लेती अपनी निगाह ऐसा करते हुए हमेशा
उसे कॉलेज में पढ़े बिहारी आते याद
उस वक्त उस पर इनके बारे में
सुने गए का नशा हो जाता दो गुना
वह उसे कई दफे सब के बीच भी उन की तरफ
कनखियों से देखता पकड़ लेती
वह शरारती पूछ भी लेता सब ठीक तो है
वह कहती हाँ जी हाँ
घर पहुँच कर जांच लेना
मगर रोग , ऐसा घुसा उस के भीतर
कि उन में से एक को ले कर ही हटा देह से
कोई उपाय भी न था सिवा इस के
उपचार ने उदास होते हुए समझाया
अब वह इस बचे हुए एक के बारे में
कुछ नहीं कहता उस से, वह उस की तरफ देखता है
और रह जाता है, कसमसा कर
मगर उसे हर समय महसूस होता है
उस की देह पर घूमते उस के हाथ
क्या ढूंढ रहे हैं, कि इस वक्त वे
उस के मन से भी अधिक मायूस हैं
उस खो चुके के बारे में भले ही
एक-द्दोसरे से न कहते हों वे कुछ
मागत वह, विवश, जानती है
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उन के बीच से
..............
प्रेषिका
गीता पंडित
साभार
1 comment:
Gita Pandit ji ka blog achha hai ... aur ye post padhni to zaroori hai ...
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