जा तू पड़ जा प्रेम में
तस्लीमा नसरीन मूलतः कवयित्री हैं. कल जब उनकी कविताओं का प्रयाग शुक्ल पाठ कर रहे थे तब बीच-बीच में वे भी यही कह रहे थे, अशोक वाजपेयी ने भी उनकी कविताओं पर बहुत प्रशंसात्मक ढंग से बोला. उनकी कविताओं का संग्रह 'मुझे देना और प्रेम' पढते हुए भी लगा कि उनकी कविताओं में एक खास तरह का आकर्षण है. प्रेम की कुछ बेजोड़ कविताएँ हैं इस संग्रह में, जो प्रयाग शुक्ल के अनुवाद में और भी सुंदर बन पड़ी हैं. कुछ प्रेम कविताएँ उसी संग्रह से- जानकी पुल.
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अभिशाप
प्रेम मुझे तोड़कर बुरी तरह टुकड़े-टुकड़े किए दे रहा है,
मैं अब मैं नहीं, मैं अब पहचान नहीं पा रही अपने को,
अपने शरीर को, अपने मन को, नहीं पा रही.
अपने घूमने-फिरने चलने को नहीं पा रही
देखने को भी नहीं,
कैसी भी तो विचित्र हुई जा रही हूं मैं, बंधुओं के अड्डे में
जब चाहिए हंसना, मैं हंस नहीं रही,
जब करना चाहिए दुःख, कर नहीं रही,
मन को प्रेम से हटाकर किसी और जगह क्षण भर को
भी नहीं कर पा रही स्थिर.
जगत भर में इस समय घिरता आया रहा है अन्धकार,
चांद-सूरज का ठिकाना नहीं, रात-दिन का ठिकाना नहीं,
मेरा जीवन गया, जीवन-यापन गया,
नाश हो गया.
अब यदि देना हो दुश्मन को अभिशाप, मैं
यह कहती नहीं जा तू हो जा कोढ़ी, मर जा तू,
तू मर जा.
अब मैं बड़े सहज भाव से देती हूं
यह कहकर अभिशाप- जा तू पड़ जा प्रेम में.
वह पाखी
तुम्हारा ह्रदय हो गया है जमकर पत्थर
पत्थर मुझे दो, करूँ स्पर्श,
उसे गलने दो.
उड़ने दो प्रेम नाम के पाखी को अपने पिंजरे से,
नहीं तो जायेगा वह मर!
खिंचाव
जितना ही लेते खींच पास आया अपने पांव
आँगन तक आकर लौट जाते उल्टे पांव
जितना ही छिपाते हो कौशल से अपना प्रेम
उतना ही खिंचती चली जाती मैं तुम्हारी ओर.
कंपन-९
आँचल में गाँठ दे बाँधा तुम्हें पल दिन
फिर भी हूं रोई दिन-दिन तुम बिन.
निर्भय
मुझे किसका भय
तुमने तो दिया है अभय कहकर, कि तुम हो
रहो या न रहो
जिसके कारण बधिर हूं, मैं जन्मांध
लूंगी सोच साथ में खड़ा एक जन.
उसके कंधे पर मन ही मन रखकर अंगुलियां पांच
द्विधाहीन जा सकती हूं किसी भी दिशा में मैं.
तुम्हीं ने तो प्रेम देकर कहा है, कि तुम हो.
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प्रेषिका
गीता पंडित
साभार
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