Thursday, August 30, 2012

तीन नयी कवितायें ....... हेमंत शेष की ..

 



हेमंत शेष ____ हिन्दी साहित्य का यह एक ऐसा नाम है जिसे किसी परिचय की आवश्यकता नहीं  यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी |

 गद्य और पद्य में समानरूप से अपनी खास पहचान रखने वाले, बिहारी पुरस्कार से सम्मानित, ख्यात कवि, कथाकार, संपादक, आलोचक और कला-समीक्षक हेमंत शेष समकालीन हिंदी साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. उनकी कविताएँ सिर्फ कविताएँ नहीं बल्कि एक चिलचिलाता यथार्थ है जिसकी चमक हर वर्ग के पाठक को चौंधिया सकने की क्षमता रखती है.

28 दिसम्बर, 1952 को जयपुर (राजस्थान, भारत) में जन्म हेमंत शेष ने एम.ए.(समाजशास्त्र) राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से 1976 में किया और तुरंत बाद ही वह प्रशासनिक सेवा में चयनित कर लिए गए. प्रतापगढ़, राजस्थान में कलेक्टर पद पर कार्य कर चुके हेमन्त शेष वर्तमान स्मय में राजस्थान राजस्व मंडल, अजमेर में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं.

लीजिये प्रस्तुत हैं उनकी तीन नयी कविताएँ _____





1


हवा इस बीच


कितना कुछ खो गया है इस बीच
कितनी हवा और कितनी पृथ्वी वृक्ष और सन्नाटे
सीढ़ियां बचपन और प्रेम

दिन कुछ और बूढ़े हुए
मैं अपने में और गहरा उतरा डरता-डरता

कहां गया वह स्वाद बाजरे की रोटी का
गुड़ की भेली कहां गई
कहां गईं दो चोटियों वाली मेरी वे चार चचेरी बहनें

मैं इस मोड़ पर अकेला हूं
अपने आप को पहचानने की कोशिशें करता

यों बड़ा हो जाना बुरा नहीं है
बुरे नहीं माथे पर उगते सफेद बाल
न हाथों पर बढ़ आती सलवटें
भले ही हैं वे प्रणाम और नमस्कार जो हमें
गाहे-ब-गाहे मिलते हैं

पर क्या करूं उस गुब्बारे का जिसे
पुराने दिनों के होंठ हमारे भीतर अकसर फुलाते हैं और
हम एक क्षण में पार कर जाते हैं आधी-सदी
लौट कर पूछना चाहते हैं एक चुप दीवार से
कहां गया वह स्वाद बाजरे की रोटी का
गुड़ की भेली कहां गई
कहां गईं बहनें

मौन रहता है काल
और जवाब में हर सुबह उगा देता है मेरे माथे पर एक नया सफेद बाल!


.........




2

ओस-कथा



पत्थर तक का पसीना निकाल देने वाली एक दुपहर
जंगल की ओस ने सोचा-
कंक्रीट के जंगल की सैर करना ।
और वह उड़ चली अपनी समूची ताकत से
पता नहीं वह शहर पहुंच भी सकी या नहीं
कब भाप बन गई

पर तय है ....तय है यह बात
शहर और जून की नृशंस ताकत पर
हमेशा हमेशा भारी पड़ता रहेगा
ओस का वही नन्हा पर बड़ा बहुत-बहुत बड़ा सपना 

...........





3

किसी शाश्वत सनक की तरह पुरानी हिचकियां


वहां सिर्फ उड़ती हुई चट्टानें थीं।
सपनों के हाथ केवल उन्हीं दरवाजों को खटखटाते जो मकानों पर थे ही नहीं ।

बवंडर मटमैले धूल भरे जैसे एकाएक शून्य से उफन पड़ते
और आंधियां संसार भर की पतंगें उड़ाने लगतीं थीं  ।
लोग पुल पार करते हुए देख लेते अपने बचे-खुचे पुण्य।
सुबह हो जाया करती रोज़ सुबह होने की तरह ।
सिर्फ पक्षी अपनी पुरानी आकृतियों में बने रहते।

सभ्यता का सलेटी अवसाद हर शाम डुबो देता संसार भर की कुहनियां एक असमाप्त वुजू में ।
किसी शाश्वत सनक की मानिन्द पुरानी हिचकियां बारम्बार आतीं ।
भीतर बहुत दूर तक गहरा पीला रंग कुछ इस तरह से फैल जाता जैसे विज्ञापन का हो ।

ट्रेफिक से उकताए दो छोटे बच्चे
हर दिन की तरह इन्तजार किया करते मां के घर लौटने का....
उन्हें ‘ खिलेगा तो देखेंगे’ के मुन्ना’ जैसी मार्मिक भूख लग रही होती ।

कभी कहीं रात में दूर से रामधुन की स्वर लहरियां सुनाई देतीं ।
ऐसा लगता जैसे कोई अधेड़ फोटोगा्रफर काला कपड़ा ओढ़ कर
लकड़ी के पुराने कैमरे से ग्रुप-फोटो खींचता हो।
शहर के तांगे किसी तेजाब में डूब कर गायब होने लगते।

कहानी में सब से छोटी बहन सब से कम लालची होती।
बुखार हो आता।

पता नहीं किस आशा में बूढ़ी मांएं निकम्मे बेटों के लिए रोटियां बेला करतीं ।
शोध के नाम पर प्रेमीगण आविष्कृत कर डालते घने छायादार पेड़
और बार बार वे उनके नीचे से निकलना चाहते।

उदासी के पत्थर आत्मा पर पड़ते । पड़ते जाते ।
कुछ नहीं कर पाने की मजबूरी के असंख्य पर्याय होते ।

किसी शाश्वत सनक की मानिन्द पुरानी हिचकियां ।
अक्सर या कभी-कभी लगता था : यह एक लम्बा सपना ही है। पड़ावों की उम्मीद में थकता हुआ।
अब लग रहा है यही है जीवन का सार।

जो लोग कविता लिखते हैं-
उन के बहुत सारे दुःख अलग हैं
कविता में आए लोगों और दृश्यों से ।

........



 हेमंत शेष 
स्थायी पता ___

40/158, Mansarovar
Jaipur-302020
Phone 0141-2391933(Res. Jaipur)
 
Founder-Editor
'Kala-Prayojan' :
 
वर्तमान पता ____
0145-2633885 (Present Res. Ajmer)
Office-0145-262789 : Fax:-0145-2427072
M:09314508026



प्रेषिता
गीता पंडित
                                                                 

5 comments:

virendra sharma said...

तीनों रचनाएं नया बिम्ब विधान लिए आईं हैं ,पैरहन नया लाई हैं .शुक्रिया गीता पंडित जी आपका आपने ये उत्कृष्ट रचना उपलब्ध करवाईं यहाँ भी पधारें -

बृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
लम्पटता के मानी क्या हैं ?

लम्पटता के मानी क्या हैं ?

कई मर्तबा व्यक्ति जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिलतें हैं .अब कोई भले किसी अखबार का सम्पादक हो उसके लिए यह ज़रूरी नहीं है वह भाषा का सही ज्ञाता भी हो हर शब्द की ध्वनी और संस्कार से वाकिफ हो ही .लखनऊ सम्मलेन में एक अखबार से लम्पट शब्द प्रयोग में यही गडबडी हुई है .

हो सकता है अखबार कहना यह चाहता हों ,ब्लोगर छपास लोलुप ,छपास के लिए उतावले रहतें हैं बिना विषय की गहराई में जाए छाप देतें हैं पोस्ट .

बेशक लम्पट शब्द इच्छा और लालसा के रूप में कभी प्रयोग होता था अब इसका अर्थ रूढ़ हो चुका है :

"कामुकता में जो बारहा डुबकी लगाता है वह लम्पट कहलाता है "

अखबार के उस लिखाड़ी को क्षमा इसलिए किया जा सकता है ,उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिला ,पटरी से उतरा हुआ शब्द मिला .जब सम्पादक बंधू को इस शब्द का मतलब समझ आया होगा वह भी खुश नहीं हुए होंगें .
http://veerubhai1947.blogspot.com/
ram ram bhai

HemantShesh said...

no comments are great comment

kanhaiya Lal Pandey said...

यादे है शायद, जो जी ना सके शब्दो मे जने की काबिलेतारिफ एक पद।अति विद्वता से भरपूर। समझ मे आने वाली पँक्तिया, ऐसी रचना लगता है यह तो सबके लिए कुछ ना कुछ है। महोदय यहा आप कामयाब होते है।प्रणाम ग्रहण करे व अनेक 2 बधाई अच्छी रचना के लिए। धन्यवाद

vandana gupta said...

वहां सिर्फ उड़ती हुई चट्टानें थीं। सपनों के हाथ केवल उन्हीं दरवाजों को खटखटाते जो मकानों पर थे ही नहीं ।

बेहद गहन रचनायें।

ANULATA RAJ NAIR said...

बेहद खूबसूरत....

आभार गीता जी.

अनु