आज श्रमिक-दिवस पर यह गीत सभी कामगारों को समर्पित ___
सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई ,
अजब यह सवेरा , कि बाकी अँधेरा
गगन तो हंसा पर धरा हंस न पाई |
अभी ब्याह के नाम पर बिक रहे हैं
यहाँ राम लाखों , यहाँ कृष्ण अनगिन ,
उमा और सीता रुदन मूक करती
गरीबी अभागिन न बनती सुहागिन |
अभी हाट में रूप नीलाम होता
अभी द्रोपदी का फटा चीर खिंचता,
कहीं बिक रहें हैं सुदामा अनेकों
कहीं दुःख में धर्म-ईमान बिकता |
अभी हर नगर में , अभी हर डगर में,
पनपती बुराई , बिलखती भलाई
सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई |
मिलों की इन्हीं चिमनियों में युगों से
धुआँ बन श्रमिक का लहू उड़ रहा है,
हुआ कल यहाँ जो , वही आज शोषण ,
धनिक जी रहा है , श्रमिक मर रहा है ,
अभी नित यहाँ शोषितों के शवों पर
किसी के गगन तक महल उठ रहे हैं ,
कहीं नित दीवाली , कहीं घोर मातम
कहीं अश्रुगंगा , कहीं कहकहे हैं ,
कहीं महफ़िलें, प्यालियाँ और साकी
कहीं दीन की आह देती सुनाई ,
सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई |
उठो, राष्ट्र के कर्णधारों ! जवानों !
उठो , देश के अन्नदाता किसानों !
विषमता मिटा दो , गरीबी भगा दो
उठो क्रांति के आज सोते तरानों !
महल हिल उठें ये , कुतुब , ताज काँपें
नई जागरण भैरवी को गुंजाओ ,
छिपी जो ऊषा ओट में आज धन की
उसे दीन का द्वार , आँगन दिखाओ |
हँसें सब कमेरे , हँसें सब बसेरे
करो देश से दूर सारी बुराई ,
सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई | |
मदन 'शलभ'
शीघ्र प्रकाश्य (गीत संग्रह )से
(यह रचना कई काव्य संकलनों में भी छप चुकी है )
प्रेषिता
गीता पंडित
5 comments:
श्रमिक दिवस पर अच्छी और सार्थक रचना......
सार्थक, सामयिक, बधाई
मज़दूर या यूं कहें कि श्रमिक दिवस पर प्रस्तुत आपकी यह पोस्ट अभी तक जितनी रचनाएं हमने पढ़ी हैं, उनमें सर्वश्रेष्ठ है।
वाह दी क्या कहू शब्द साथ नहीं दे रहे है मेरे मौन को ही मेरे संवाद समझिये........अभिर्भूत कर दिया..........
वाह दी क्या कहू शब्द साथ नहीं दे रहे है मेरे मौन को ही मेरे संवाद समझिये........अभिर्भूत कर दिया..........
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