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1
माँ ___ कुँवर बेचैन
माँ!
तुम्हारे सज़ल आँचल नेधूप से हमको बचाया है।
चाँदनी का घर बनाया है।
तुम अमृत की धार प्यासों को
ज्योति-रेखा सूरदासों को
संधि को आशीष की कविता
अस्मिता, मन के समासों को
माँ!
तुम्हारे तरल दृगजल ने
तीर्थ-जल का मान पाया है
सो गए मन को जगाया है।
तुम थके मन को अथक लोरी
प्यार से मनुहार की चोरी
नित्य ढुलकाती रहीं हम पर
दूध की दो गागरें कोरी
माँ!
तुम्हारे प्रीति के पल ने
आँसुओं को भी हँसाया है
बोलना मन को सिखाया है
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2
देख रही है माँ __ यश मालवीय
जाती हुई धूप संध्या की
सेंक रही है माँ
अपना अप्रासंगिक होना
देख रही है माँ
भरा हुआ घर है
नाती पोतों से, बच्चों से
अन बोला बहुओं के बोले
बंद खिड़कियों से
दिन भर पकी उम्र के घुटने
टेक रही है माँ
फूली सरसों नही रही
अब खेतों में मन के
पिता नहीं हैं अब नस नस
क्या कंगन सी खनके
रस्ता थकी हुई यादों का
छेक रही है माँ
बुझी बुझी आँखों ने
पर्वत से दिन काटे हैं
कपड़े नहीं, अलगनी पर
फैले सन्नाटे हैं
इधर उधर उड़ती सी नजरें
फेक रही है माँ
सेंक रही है माँ
अपना अप्रासंगिक होना
देख रही है माँ
भरा हुआ घर है
नाती पोतों से, बच्चों से
अन बोला बहुओं के बोले
बंद खिड़कियों से
दिन भर पकी उम्र के घुटने
टेक रही है माँ
फूली सरसों नही रही
अब खेतों में मन के
पिता नहीं हैं अब नस नस
क्या कंगन सी खनके
रस्ता थकी हुई यादों का
छेक रही है माँ
बुझी बुझी आँखों ने
पर्वत से दिन काटे हैं
कपड़े नहीं, अलगनी पर
फैले सन्नाटे हैं
इधर उधर उड़ती सी नजरें
फेक रही है माँ
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माँ __ गीता पंडित
नाम
मन में बदली छा जाती है |
नेह पत्र पर
लिखे जो तुमने
भाव अभी हैं आज अनूठे
बेल लगी है
संस्कार की
सजा रही जो मन पर बूटे,
बूटे -
बूटे नेह तुम्हारा
मन की छजली भा जाती है |
देह कहीं भी
रहे मगर माँ
मन तो पास तुम्हारे रहता
शैशव में जो
रूई धुनी थी
कात उसे संग-संग में बहता
शब्दों
में आकर हौले से
मन की सजली गा जाती है |
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4
मेरी माँ __ रामेश्वर हिमांशु काम्बोज
चिड़ियों के जगने से पहले
जग जाती थी मेरी माँ ।
ढिबरी के नीम उजाले में
पढ़ने मुझे बिठाती माँ ।
उसकी चक्की चलती रहती
गाय दूहना, दही बिलोना
सब कुछ करती जाती माँ ।
सही वक़्त पर बना नाश्ता
जीभर मुझे खिलाती माँ ।
घड़ी नहीं थी कहीं गाँव में
समय का पाठ पढ़ाती माँ ।
छप्पर के घर में रहकर भी
तनकर चलती –फिरती माँ ।
लाग –लपेट से नहीं वास्ता
खरी-खरी कह जाती माँ ।
बड़े अमीर बाप की बेटी
अभाव से टकराती माँ ।
धन –बात का उधार न सीखा
जो कहना कह जाती माँ
अस्सी बरस की इस उम्र ने
कमर झुका दी है माना ।
खाली बैठना रास नहीं
पल भर कब टिक पाती माँ ।
गाँव छोड़ना नहीं सुहाता
शहर में न रह पाती माँ ।
यहाँ न गाएँ ,सानी-पानी
मन कैसे बहलाती माँ ।
कुछ तो बेटे बहुत दूर हैं
कभी-कभी मिल पाती माँ ।
नाती-पोतों में बँटकर के
और बड़ी हो जाती माँ ।
मैं आज भी इतना छोटा
कठिन छूना है परछाई ।
जब –जब माँ माथा छूती है
जगती मुझमें तरुणाई ।
माँ से बड़ा कोई न तीरथ
ऐसा मैंने जाना है ।
माँ के चरणों में न्योछावर
करके ही कुछ पाना है ।
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प्रेषिका
गीता पंडित
साभार (कविता कोष ) से
5 comments:
सभी रचनाएँ बेजोड़ ...
बहुत ही भावुक करने वाली उम्दा प्रस्तुति। आभार।
मां के प्रति समर्पित लाजवाब कवितां पढ़वाने के लिए शुक्रिया।
माँ के प्यार में निस्वार्थ भाव को समेटती आपकी खुबसूरत रचना....
Adbhut sangrah ..
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