Wednesday, September 14, 2011

पाँच कवितायें ......... मधुरिमा सिंह

1)
 
   भ्रूणकाया
 
 
मुझे 

बहुत अच्छा लगा था 
उस दिन

जब पहले पहल 
     मेरी माँ को 
     मेरे
 आने का पता चला 

उसके हाथ में थी 
भ्रूण परीक्षण की रिपोर्ट
जिसे उसने कारीडोर में
बैठे मेरे पिता को देते हुए कहा था
"लड़की" है

मेरे पिता  
मेरी दो बहनों के साथ  
बैठे खेल रहे थे  
मुझे घुंघराले बालों वाली  

दोनों बहने

बहुत प्यारी लगी थीं
किन्तु चौंक पड़े थे पिता 
  

कुछ कठोर-सा 
हो गया था उनका स्वर
"
चलो इसे कहीं गिरवा देते हैं"

 

माँ पत्थर की तरह  
शून्य में निहारती रही दूर तक  
फिर धीरे से बोली "नहीं" 
"पागल हो क्या  
दो तो पहले से ही हैं  
फिर एक और  
मुझे सिर्फ बेटा चाहिए" बोले पिता
माँ मना करती ही रही  
अंतिम क्षण तक

अस्पताल का वह 'शल्यकक्ष
वह ईथर की बदबू  
मुझे बहुत भयावह  
लग रही थी

मैंने कहना चाहा  
अपने पिता से  
आने दो मुझे  
मै भी बैठना चाहती हूँ  
माँ की गोद में  
झुलना चाहती हूँ  
तुम्हारी बाँहों में  
खेलना चाहती हूँ  
हरे-भरे मैदानों में  
बच्चों के साथ

किन्तु अपनी नष्ट भ्रूण-काया को  
अस्पताल की  
कूड़े की बाल्टी में  
फेके जाने के समय तक भी 
मै कुछ कह नहीं पाई थी  
काँप कर रह गए थे मेरे होंठ 


      क्योंकि मै औरत थी
             .........






2)
रात हमारी आँखों से फिर बही कहानी अम्मा की ।


रात हमारी आँखों से फिर बही कहानी अम्मा की ।
खिड़की से सटकर महकी जब रात की रानी अम्मा की ।

कढ़ी भात खट्टी चटनी और दाल परोंठे गोभी के,दही दूध अदरक लहसुन सी गंध सुहानी अम्मा की ।

बेसन की सोंधी रोटी-सा यह भी मुझको याद अभी,पीठ फेरकर पानी पीकर भूख छुपानी अम्मा की ।

घर के सुख में उसने खुद को पूरा - पूरा बाँट दियादो जोड़े सूती धोती में गई जवानी अम्मा की 

आज अचानक उसको देखा अम्मा जैसी लगती थी,चाची के टूटे छज्जे पर दही मथानी अम्मा की ।

बाबा की वह गिरी हवेली दादी का तुलसी का चौरा,पिछवाड़े की नीम भी जाने उमर खपानी अम्मा की ।

जब गैया की पूँछ थी खींची गौरैया का अंडा फोड़ा,मेरे साथ नहीं सोना यह सज़ा सुनानी अम्मा की ।

छोड़-छाड़ कर चले गए सब किसको उसका याद रहा,बस बाबू को याद रही वो चिता जलानी अम्मा की 


जब बच्चे के होने में मै तड़फ - तड़फ कर रोई थी,तब देखी थी अपने जैसी पीर उठानी अम्मा की ।

मैंने अम्मा की झुर्री को धीरे- धीरे ओढ़ लिया,कैसे मै बिटिया से कह दूँ बात पुरानी अम्मा की ।
..........





3)

       हाँ मै औरत हूँ

हाँ मै औरत हूँ
एक महावृक्ष
गमले में उगा हुआ
सज्जाकक्षों में सजा हुआ
अतिथियों तथा आगंतुको की
जिज्ञासा और प्रशंसा का पात्र
वे भी प्रयोग में लाना
चाहते हैं वह कला
जिससे वृक्षोंलताओं,
फूलों और फलों को
बौना बनाकर
अन्तः कक्षों को सजाया जा सके
   

मेरे स्वामी बताते हैं
यह कला कोई
दुःसाध्य नहीं
सरल सी प्रक्रिया है
एक जटिल अनुवांशिक दोष की


बस एक छिछले से पात्र में
रोपना होता है एक महावृक्ष
और करना होता है
विकास की प्रक्रिया में हस्तक्षेप
समय-समय पर
छाँटते रहें उसकी टहनियाँ
नोचते रहें किसलय और कोपलें
साथ ही उसकी जड़ें
इस ख़ूबसूरती से काटते
और तराशते रहें
ताकि वह अधिक गहरे न उतरे
किन्तु माटी से उखड़े भी नहीं


मै देखती हूँ
घर के बाहर
चलती हुई
ख़ुशबू भरी तेज़ हवाएँ
मै भी
गमले में उगे महावृक्ष की तरह
खुली हवाओं में घूम नहीं सकती
वर्षा में भींग नहीं सकती
क्योंकि मै औरत हूँ


मुझसे मेरी ज़मीन
और आसमान इस तरह
से छीना गया
कि मुझे पता ही
नहीं चला
और जब तक
मै यह षड्यंत्र
समझ पाती
बहुत देर
हो चुकी थी
कई युगों के अथक श्रम से
मुझे शयनकक्षों तथा अन्तःपुरों में
कुशलतापूर्वक
सजाया जा चुका था


मेरी जड़ें अपनी
ज़मीन की गहराइयाँ
खो चुकी थी ,
मेरी चिंतना की
टहनियाँ छाँटी जा चुकी थी
मेरी अभिव्यक्ति और
संवेदना की कोपलें
नुच चुकी थीं
मेरी मुट्ठियों में
मेरा आकाश नहीं
मेरे आकाश का
आभास भर था


हाँ , मै औरत हूँ
पुरुष की हथेली पर
बौना करके
उगाया गया
एक महावृक्ष |
......... 




4)
कैसे भोग लगाऊँ

कैसे भोग लगाऊँ
जोगी ,
कैसे भोग लगाऊँ

पाप से जूठी मन की तुलसी कैसे भोग लगाऊँ
जनम-जनम की भोगी काया कैसे सेज सजाऊँ

तेरे मन की भूलभुलैया सदा-सदा खो जाऊँ
भोग की नदिया में अग्नि के आखर फूल चढ़ाऊँ

जोगी मै तो कफ़न भी अपना केसरिया रंगवाऊँ
तन की लकड़ी चिता की लकड़ी साथ-साथ जलवाऊँ

तेरी कुटिया के द्वारे पर अपनी राख बिछाऊँ
जले हाथ की जली लकीरें भाग कहाँ पढवाऊँ

पत्थर के पन्नो पर जोगी काँच का कलम चलाऊँ
मधु तेरे बिन जीना कैसा कैसे तुझे बताऊँ
..........




 
5)
मुट्ठी का सच


जब से तुमने
मेरी हथेली पर
कोई अमूर्त-सी अनुभूति
और मूर्त-सी संवेदना
रखकर मेरी मुट्ठी
बंद कर दी थी ।
तब से मै निरंतर
यह बंद मुट्ठी
लिए जी रही हूँ ।


कभी कभी मन करता है
खोलकर देखूँ
कि वह क्या था ?
कोई सम्बन्धअनुबंध
या कोई अधिकार ?
अथवा जन्म-जन्मान्तरों
की सहयात्रा का स्वीकार ?


शनैः शनैः मेरी बंद मुट्ठी
भीतर ही भीतर
पसीजती रही
और वह जो कुछ भी था
मेरे रोम-रोम में समाता हुआ
मेरी चेतना का अंग बन गया ।
और अचानक ही मुझे लगा कि
मेरी मुट्ठी खाली है 


आज सोंचती हूँ यदि तुम्हे
तुम्हारी धरोहर लौटाना चाहूँ भी ,
तो लौटा नहीं सकती ।
फिर चाहे वह कोई
यथार्थ हो अथवा स्वप्न
या किसी अधिकार का भ्रम
या स्वयं तुम ....।।
........


साभार (कविता कोष से )

प्रेषिका 
गीता पंडित 

8 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 16/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

लीना मल्होत्रा said...

sashak abhivyakti.. andar se footi hain kavitaayen.. samvednaao ke dhraatal se.. abhaar.

रजनीश तिवारी said...

पांचों कविताएं उत्कृष्ट और प्रभावशाली हैं । धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ ।

रजनीश तिवारी said...

पांचों कविताएं उत्कृष्ट और प्रभावशाली हैं । धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ ।

संध्या शर्मा said...

सभी रचनाये एक से बढकर एक हैं... नारी के मन की पीड़ा उकेर दी है आपने इनमे....

रेखा said...

बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति ...

nitasha said...

man ko chhu gayi kavitayen.

सागर said...

behtreen....