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1) गर्भ भार
संभल कर , बहुरिया ,
त्रिशला देवी के सोलहों सपनों का सच
तेरे गर्भ मे है |
नहीं,
दिव्यता का आलोक
केवल तीर्थंकरों की माताओं के ही
आनन पर नहीं विराजता ,
हर बेटी , हर बहू
जब गर्भ भार वहन करती है
उतनी ही आलोकित होती है |
हिरण्यगर्भ है
हर स्त्री !
उसके भीतर प्रकाश उतरता है ,
प्रभा उभरती है ,
प्रभामंडल जगमगाते हैं ,
प्रकाश फूटता है
उसी के भीतर से |
प्रकाश सोया रहता है
हर लड़की के घट में ,
और जब वह माँ बनती है
नहा उठती है
अपने ही प्रकाश में ,
अपनी प्रभा में |
अपने प्रभामंडल में |
संभल कर , बहुरिया ,
तेरे अंग-अंग से किरणें छलक रही हैं |
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2) मुझे पंख दोगे
मैंने किताबें मांगी
मुझे चूल्हा मिला ,
मैंने दोस्त मांगा
मुझे दूल्हा मिला |
मैंने सपने मांगे
मुझे प्रतिबंध मिले ,
मैंने संबंध मांगे
मुझे अनुबंध मिले |
कल मैंने धरती मांगी थी
मुझे समाधि मिली थी ,
आज मैं आकाश माँगती हूँ
मुझे पंख दोगे ?
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4) अम्मा , ग़रज़ पड़े चली आओ चूल्हे की भटियारी !
दो बेटे हैं मेरे
बहुत प्यार से धरे थे मैंने
इनके नाम बलजीत और बलजोर |
गबरू जवान निकले दोनों ही
जब जोट मिलाकर चलते ,
सारे गाँव की छाती पर साँप लॉट जाता
मेरे छातियाँ उमग उमग पड़तीं ,
मैं बलि बलि जाती
अपने कलेजे के टुकड़ों की |
वक्त बदल गया
कलेजे के टुकड़ों ने
कलेजे के टुकड़े कर दिये
ज़मीन का तो बँटवारा किया ही
मां भी बाँट ली |
ज़मीन के लिए लड़े दोनों
-अपने अपने पास रखने को ,
मां के लिए लड़े दोनों
-एक दूसरे के मत्थे मढने को |
बलजोर ने बरजोरी लगवा लिया अंगूठा
तो मां उसके काम की न रही ,
बलजीत के भी तो किसी काम की न रही |
दोनों ने दरवाज़े बंद कर लिए ,
मैं बाहर खड़ी तप रहीं हूँ भरी दुपहरी ,
दो जवान बेटों की मां |
जीवन भर रोटी थेपती आई
आज भी जिसका चूल्हा झोंकूँ ,
रोटी दे दे ___ शायद | |
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साभार (कविता कोष) से
प्रेषिका
गीता पंडित
6 comments:
sundar ye kavetaye
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
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आज मैं आकाश मांगती हूं ...
सभी रचनाएं बेहतरीन बन पड़ी है प्रस्तुति के लिये आभार ।
ओह! "अम्मा.... ने तो विचलित कर दिया...
तीनों उम्दा रचनाएं हैं....
ऋषभ जी को सादर बधाई एवं आभार...
रिश्ते कुछ ज्यों के त्यों, और कुझ इस कदर कि माँ तक का बँटवारा ..... आज के दिनों की जमीनी हकीकत को बयाल करती दिस को छूती कविताएं.
सारी रचनाएँ बहुत ही खूबसूरत दोस्त |
तीनो ही बहुत बढ़िया पर दूसरी बहुत अच्छी लगी....
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