1)
देहरी पर आती
पीली धूप के ठीक बीच खड़े थे तुम
प्रखर रश्मियों के बीच
कोई न समझ सका था तुम्हारा प्रेम
पूरे आंगन में, बिखरी पड़ी थी
तुम्हारी याचना,
पिता का क्रोध
भाई की अकड़
माँ के आँसू
शाम बुहारने लगी जब दालान
मैंने चुपके से समेट लिया
गुनगुनी धूप का वो टुकड़ा
क़ैद है आज भी वो
मखमली डिबिया में
रोशनी के नन्हे सितारे वाली डिबिया
नहीं खोलती मैं
सितारे निकल भागें दुख नहीं
बिखर जाए रोशनी परवाह नहीं
गर निकल जाए
डिबिया से तुम्हारी परछाई का टुकड़ा
तो क्या करूंगी मैं?
पीली धूप के ठीक बीच खड़े थे तुम
प्रखर रश्मियों के बीच
कोई न समझ सका था तुम्हारा प्रेम
पूरे आंगन में, बिखरी पड़ी थी
तुम्हारी याचना,
पिता का क्रोध
भाई की अकड़
माँ के आँसू
शाम बुहारने लगी जब दालान
मैंने चुपके से समेट लिया
गुनगुनी धूप का वो टुकड़ा
क़ैद है आज भी वो
मखमली डिबिया में
रोशनी के नन्हे सितारे वाली डिबिया
नहीं खोलती मैं
सितारे निकल भागें दुख नहीं
बिखर जाए रोशनी परवाह नहीं
गर निकल जाए
डिबिया से तुम्हारी परछाई का टुकड़ा
तो क्या करूंगी मैं?
......
2) दक्ष गृहिणी
गुस्सा जब उबलने लगता है दिमाग में
प्रेशर कुकर चढ़ा देती हूँ गैस पर
भाप निकलने लगती है जब एक तेज़ आवाज़ के साथ
ख़ुद-ब-ख़ुद शांत हो जाता है दिमाग
पलट कर जवाब देने की इच्छा पर
पीसने लगती हूँ, एकदम लाल मिर्च
पत्थर पर और रगड़ कर बना देती हूँ
स्वादिष्ट चटनी
जब कभी मन किया मैं भी मार सकूँ किसी को
तब धोती हूँ तौलिया, गिलाफ़ और मोटे भारी परदे
जो धुल सकते थे आसानी से वॉशिंग मशीन में
मेरे मुक्के पड़ते हैं उन पर
और वे हो जाते हैं उजले, शफ़्फ़ाक सफ़ेद
बहुत बार मैंने पूरे बगीचे की मिट्टी को
कर दिया है खुरपी से उलट-पलट
गुड़ाई के नाम पर
जब भी मचा है घमासान मन में
सूती कपड़ों पर पानी छिड़क कर जब करती हूं इस्त्री
तब पानी उड़ता है भाप बन कर जैसे उड़ रही हो मेरी ही नाराज़गी
किसी जली हुई कड़ाही को रगड़ कर घिसती रहती हूँ लगातार
चमका देती हूँ और लगता है बच्चों को दे दिए हैं मैंने इतने ही उजले संस्कार
घर की झाड़ू-बुहारी में
पता नहीं कब मैं बुहार देती हूँ अपना भी वजूद
मेरे परिवार में, रिश्तेदारों में, पड़ोस में
जहाँ भी चाहें पूछ लीजिए
सभी मुझे कहते हैं
दक्ष गृहिणी।
प्रेशर कुकर चढ़ा देती हूँ गैस पर
भाप निकलने लगती है जब एक तेज़ आवाज़ के साथ
ख़ुद-ब-ख़ुद शांत हो जाता है दिमाग
पलट कर जवाब देने की इच्छा पर
पीसने लगती हूँ, एकदम लाल मिर्च
पत्थर पर और रगड़ कर बना देती हूँ
स्वादिष्ट चटनी
जब कभी मन किया मैं भी मार सकूँ किसी को
तब धोती हूँ तौलिया, गिलाफ़ और मोटे भारी परदे
जो धुल सकते थे आसानी से वॉशिंग मशीन में
मेरे मुक्के पड़ते हैं उन पर
और वे हो जाते हैं उजले, शफ़्फ़ाक सफ़ेद
बहुत बार मैंने पूरे बगीचे की मिट्टी को
कर दिया है खुरपी से उलट-पलट
गुड़ाई के नाम पर
जब भी मचा है घमासान मन में
सूती कपड़ों पर पानी छिड़क कर जब करती हूं इस्त्री
तब पानी उड़ता है भाप बन कर जैसे उड़ रही हो मेरी ही नाराज़गी
किसी जली हुई कड़ाही को रगड़ कर घिसती रहती हूँ लगातार
चमका देती हूँ और लगता है बच्चों को दे दिए हैं मैंने इतने ही उजले संस्कार
घर की झाड़ू-बुहारी में
पता नहीं कब मैं बुहार देती हूँ अपना भी वजूद
मेरे परिवार में, रिश्तेदारों में, पड़ोस में
जहाँ भी चाहें पूछ लीजिए
सभी मुझे कहते हैं
दक्ष गृहिणी।
.......
3) बदलती परिभाषा
बचपन में कहती थी माँ
प्यार नहीं होता हँसी-खेल
वह पनपता है दिल की गहराई में
रोंपे गए उस बीज से
जिस पर पड़ती है आत्मीयता की खाद
होता है विचारों का मेल।
साथ ही समझाती थी माँ
प्रेम नहीं होता गुनाह कभी
वह हो सकता है कभी भी
उसके लिए नहीं होते बंधन
न वह क़ैद है नियमों में
आज अचानक बदल रही है माँ
अपनी ही परिभाषा
उसके चेहरे पर उभर आया है भय
जैसे किया हो कोई अपराध उसने
अब समझाती है वह
परियों और राजकुमारियों के किस्सों में
पनपता है प्यार
या फिर रहता है क़िताबों के चिकने पन्नों पर
लेकिन एक दिन आएगा
जब तुम कर सकोगी प्यार, सच में
ज़माना बदल जाएगा
प्रेम का रेशमी अहसास
उतर आएगा, खुरदुरे यथार्थ पर
तब तक, बस तब तक
बन्द रखो अपनी आँखें
और समेट लो सुनहरे सपने।
प्यार नहीं होता हँसी-खेल
वह पनपता है दिल की गहराई में
रोंपे गए उस बीज से
जिस पर पड़ती है आत्मीयता की खाद
होता है विचारों का मेल।
साथ ही समझाती थी माँ
प्रेम नहीं होता गुनाह कभी
वह हो सकता है कभी भी
उसके लिए नहीं होते बंधन
न वह क़ैद है नियमों में
आज अचानक बदल रही है माँ
अपनी ही परिभाषा
उसके चेहरे पर उभर आया है भय
जैसे किया हो कोई अपराध उसने
अब समझाती है वह
परियों और राजकुमारियों के किस्सों में
पनपता है प्यार
या फिर रहता है क़िताबों के चिकने पन्नों पर
लेकिन एक दिन आएगा
जब तुम कर सकोगी प्यार, सच में
ज़माना बदल जाएगा
प्रेम का रेशमी अहसास
उतर आएगा, खुरदुरे यथार्थ पर
तब तक, बस तब तक
बन्द रखो अपनी आँखें
और समेट लो सुनहरे सपने।
.......
4)
बित्ते भर की चिंदी
पीले पड़ गए उन पन्नों पर
सब लिखा है बिलकुल वैसा ही
कागज़ की सलवटों के बीचबस मिट गए हैं कुछ शब्द।
अस्पष्ट अक्षरों को पढ़ सकती हूं बिना रूके आज भीबित्ते भर की चिंदी मेंसमाई हुई हूँ मैं।
अनगढ़ लिखावट से
लिखी गई है एक अल्हड़ प्रणय-गाथाउसमें मौज़ूद है
सांझे सपने, सांझा भयझूले से भी लंबी प्रेम की पींगेउसमें मौज़ूद है
मुट्ठी में दबे होने का गर्म अहसासक्षण भर को खुली हथेली की ताजा साँस
फिर पसीजती हथेलियों में क़ैद होने की गुनगुनाहट
अर्से से पर्ची ने
देखी नहीं है धूम
न ले पाई है वह चैन की नींद
कभी डायरी
तो कभी संदूकची में
छुपती रही है यहाँ-वहाँताकि कोई देख न ले
और जान न जाएचिरस्वयंवरा होने का राज।
सब लिखा है बिलकुल वैसा ही
कागज़ की सलवटों के बीचबस मिट गए हैं कुछ शब्द।
अस्पष्ट अक्षरों को पढ़ सकती हूं बिना रूके आज भीबित्ते भर की चिंदी मेंसमाई हुई हूँ मैं।
अनगढ़ लिखावट से
लिखी गई है एक अल्हड़ प्रणय-गाथाउसमें मौज़ूद है
सांझे सपने, सांझा भयझूले से भी लंबी प्रेम की पींगेउसमें मौज़ूद है
मुट्ठी में दबे होने का गर्म अहसासक्षण भर को खुली हथेली की ताजा साँस
फिर पसीजती हथेलियों में क़ैद होने की गुनगुनाहट
अर्से से पर्ची ने
देखी नहीं है धूम
न ले पाई है वह चैन की नींद
कभी डायरी
तो कभी संदूकची में
छुपती रही है यहाँ-वहाँताकि कोई देख न ले
और जान न जाएचिरस्वयंवरा होने का राज।
.......
५)
इस बार
इस बार मिलने आओ तो फूलों के साथ र्दद भी लेते आना
बांटेंगे, बैठकर बतियाएंगे
मैं भी कह दूंगी सब मन की।
इस बार मिलने आओ तो
जूतों के साथ
तनाव भी बाहर छोड़ आना
मैं कांधे पे तुम्हारे रखकर सिर
सुनाऊंगी रात का सपना।
इस बार
मिलने आओ तो आने की मुश्किलों के साथ दफ़्तर के किस्से मत सुनाना
तुम छेडऩा संगीत
मैं देखूंगी तुम्हारे संग चांद का धीरे-धीरे आना।
इस बार
मिलने आओ तो वक़्त मुट्ठी में भर लाना
मैं कस कर भींच लूंगी
तुम्हारे हाथ
हम दोनों संभाल लेंगे
फिसलता हुआ वक़्त
यदि असम्भव हो इसमें से कुछ भी
मत सोचना कुछ भी
मैं इंतज़ार करूंगी फिर भी।
बांटेंगे, बैठकर बतियाएंगे
मैं भी कह दूंगी सब मन की।
इस बार मिलने आओ तो
जूतों के साथ
तनाव भी बाहर छोड़ आना
मैं कांधे पे तुम्हारे रखकर सिर
सुनाऊंगी रात का सपना।
इस बार
मिलने आओ तो आने की मुश्किलों के साथ दफ़्तर के किस्से मत सुनाना
तुम छेडऩा संगीत
मैं देखूंगी तुम्हारे संग चांद का धीरे-धीरे आना।
इस बार
मिलने आओ तो वक़्त मुट्ठी में भर लाना
मैं कस कर भींच लूंगी
तुम्हारे हाथ
हम दोनों संभाल लेंगे
फिसलता हुआ वक़्त
यदि असम्भव हो इसमें से कुछ भी
मत सोचना कुछ भी
मैं इंतज़ार करूंगी फिर भी।
.....
आकांक्षा पारे
साभार (कविता कोष)
प्रेषिका
गीता पंडित
3 comments:
सभी रचनाएं लाजवाब....
किसकी तारीफ करूं...
बहुत सुंदर लिखा है....
सच में
बहुत ही सुन्दर और दिल को छू लेने वाली कवितायेँ ! समर्पण भरी प्यारी कृतियाँ !
महज परियों और राजकुमारियों के किस्सों में प्यार का पनपना ..... कागज की सलवटों में मिटते रहना शब्दों का ..... बुहरा जाना अपने ही वुजूद का ..... कविताओं की पंक्तियाँ और शब्द-शब्द पूरी सक्षमता से सम्प्रेषित करने में कामयाब ..... कौन कहता है कि बिलावजह लिखी जा रही है कविता इन दिनों .....
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