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1)
चाँद और औरत ---
चाँद और औरत ---
चाँद को हाथ में लिए एक मामूली
चमकीला पत्थर समझ कर
महीनों तक एक स्त्री पता नहीं कैसे प्रेम की नींद में चलती रही |
चमकीला पत्थर समझ कर
महीनों तक एक स्त्री पता नहीं कैसे प्रेम की नींद में चलती रही |
सपना टूटने पर वह फिर अंधकार में थी |
अकेली |
उधर आसमान में टंगा हुआ था
चमचमाता चाँद ,स्त्री के सपने पर हँसता
और रोता , उस तरह
अपने चाँद होने पर |
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चमचमाता चाँद ,स्त्री के सपने पर हँसता
और रोता , उस तरह
अपने चाँद होने पर |
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2)
वह---
वह---
वह फिर आई |
जैसे आती हैं स्त्रियाँ
जीवन में
वैसे नहीं |
वैसे नहीं |
वह कोई स्त्री थी ही नहीं |
स्त्री के शरीर में
स्त्री से कुछ अधिक थी |
स्त्री से कुछ अधिक थी |
वह जब जाएगी
मुझ में से ले जाएगी
न जाने कितनी मेरी मृत्यु |
मुझ में से ले जाएगी
न जाने कितनी मेरी मृत्यु |
मेरा कितना एकांत
मैं फिर भी जीऊँगा |
मैं फिर भी जीऊँगा |
अकेला |
और
उसके लौटने की प्रतीक्षा करूँगा
अपनी हर मृत्यु के बाद |
उसके लौटने की प्रतीक्षा करूँगा
अपनी हर मृत्यु के बाद |
अपने हर एकांत में ||
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3)
उपन्यास जैसी प्रेम –कहानी ---
उपन्यास जैसी प्रेम –कहानी ---
मुझे तुमसे कुछ कहना है –मैंने फोन पर कहा |
रुकिए , मुझे जाना है - वहाँ |
सबसे छोटी उँगली उठाते शायद उसने कहा हो |
टोयलेट जाने को उद्यत एक स्त्री से
प्रेम-निवेदन नहीं किया जा सकता
मुझे लगा |
प्रेम-निवेदन नहीं किया जा सकता
मुझे लगा |
और टूट गया वहीं
वह संवाद
उस बात को आज कई बरस हुए |
वह संवाद
उस बात को आज कई बरस हुए |
प्रतीक्षा में अब और
बूढ़ा हो गया हूँ |
बूढ़ा हो गया हूँ |
अब वह भी , अधेड़ होने की तरफ अग्रसर
क्या वहीं होगी
भीतर
बाहर आने से डरती हुई |
क्या वहीं होगी
भीतर
बाहर आने से डरती हुई |
कि पता नहीं उससे मैं क्या कह बैठुंगा | |
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4)
एक अदृश्य उपस्थिती की तरह बचे रहना---
कभी तुम्हारे अकेलेपन में चला आऊँगा
जैसे
दरवाज़े पर दस्तक
और खोजने पर
किसी को बाहर खड़ा नहीं पाओगी
रहूँगा
तुम्हारे भीतर
नि:शब्द , उम्र भर
और तुम्हें लगेगा
तुम बातें कर रही हो
अपने मौन से ----
जैसे
दरवाज़े पर दस्तक
और खोजने पर
किसी को बाहर खड़ा नहीं पाओगी
रहूँगा
तुम्हारे भीतर
नि:शब्द , उम्र भर
और तुम्हें लगेगा
तुम बातें कर रही हो
अपने मौन से ----
जब नहीं रहूँगा
तब भी होऊंगा
कि न होना , तब किसी भी होने से ज़्यादा वाचाल होगा
कितना भूलोगी , क्या – क्या याद रखोगी
भूलना और
याद रखना , तब
दोनों अर्थहीन हो जाते हैं , जब हमें अकारण लगता है
जैसे अभी-अभी हुई है दस्तक
और बाहर
कोई खड़ा है प्रतीक्षारत |
.....
साभार
प्रेषिका
गीता पंडित
12 comments:
अच्छी प्रस्तुति।
एक से बढ़कर एक रचनाएँ ...सम्यक विषयों को बखूबी अभिव्यक्त किया है ...आपका आभार
वह कोई स्त्री थी ही नहीं | स्त्री के शरीर में
स्त्री से कुछ अधिक थी |...sarthak aur sunder chayan ke liye sadhuwad Gitaji..!!..
aap ka mere blog per tashreef lane aur meri nazm ki sarahne ke liye tahe-dil se shukriya....:)
chaand ko chamkeela patthar samjhkar... adbhut aur phir tab na hona kisi bhee hone se zyaada vachaal hoga... sundar abhivyakti.
बहुत ही सुंदर,
साभार,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
प्रेम की उत्कृष्ट कविताओं के लियें आभारी है " हम और हमारी लेखनी हेमंत शेष जी की..
आभार और
अभिनंदन आपका..
वह कोई स्त्री थी ही नहीं |
स्त्री के शरीर में
स्त्री से कुछ अधिक थी |
...वह जब जाएगी
मुझ में से ले जाएगी
न जाने कितनी मेरी मृत्यु |
मेरा कितना एकांत
मैं फिर भी जीऊँगा |
अकेला |
और
उसके लौटने की प्रतीक्षा करूँगा
अपनी हर मृत्यु के बाद |
अपने हर एकांत में |
........बेहद सुंदरऔर मेरी मन पसंद...
आभार...
वाह. क्या कहने। बहुत सुंदर
बहुत सुंदर प्रस्तुति।
Aapka hardik aabhar itani sundar rachana ke liye
अद्भुत और अनमोल | बहुत समय से इतनी सारगर्भित व नए तेवर मे लिखी रचनाएँ नहीं पढ़ीं |
रहूँगा
तुम्हारे भीतर
नि:शब्द उम्र भर
और तुम्हें लगेगा
तुम बातें कर रही हो
अपने ही मौन से |
और यह भी --
वह जब आएगी
मुझ से ले जाएगी
न जाने कितनी मेरी मृत्यु
मेरा कितना एकांत
मैं फिर भी जीऊँगा
अकेला |
विशेष हैं सभी रचनाएँ स्वयं में |
आभार ,मूल लेखन और उसकी प्रस्तुति के लिए |
मुझे इस बात का शुक्रिया आप सब प्रिय पाठकों से भी पहले डॉ. गीता पंडित का ही करना चाहिए जो मुझे इस ब्लॉग पर सहसा आप सब से मिलने का मौका दिया...में इधर एक इलेक्ट्रोनिक षड़यंत्र का शिकार टाइप तो रहा, पर अधिकांश ज़हीन बहनों ने, जिनमें गीता जी जैसी विदुषी भी शामिल हैं,मेरे कहे को अन्यथा लेना तो दूर उस कथित रचना को सार्थक ढंग से समझा....अगर आपको वक्त हो तो आप फेसबुक पर मेरे पेज पर रोज एक नयी कविता पढ़ सकते हैं.....स्वागत और आपका आभार....
विनम्र-
हेमंत शेष
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