नारी सर्वप्रथम केवल नारी है – फिर चाहे वह जननी हो अथवा लाड़ली |सद्य:प्रसवा हो या प्रसव की चिर -कालिक प्रतीक्षा में रत | प्रिया हो अथवा प्रिय—प्रतीक्षा में खोई विरहिणी |
यह संवाद नारी का नारी से है – एक मौन संवाद |
किन्तु आश्चर्यजनक – यह मौन बोलता है , इन बोलों में आवाज़ है |
(एक सत्य प्रसंग –यह जानने पर कि गर्भस्थ शिशु रोगी एवं अल्प-जीवी होगा संतान की स्वस्थ दीर्घायु की कामना रखने वाली का माँ का विचलित होकर गर्भपात की इच्छा ज़ाहिर करना और कानून द्वारा इंकार करने पर ) 1) अजन्मा-- मैं तेरी माँ हूं,शिशु अजन्मे! माँ-एक सम्बंध जो होता है पर्याय अपने वंश -वर्धन का संपूर्ण अध्याय दयाका, करुणा का, समर्पण का। वही माँ,आज रोकती है तेरा आगमन धरा पर चाहती है ,तेरा अकाल अवसान रूप रखती देह का होना निष्प्राण त्राण - जन्मोत्तर दुःख की छाया से पल -पल ,सांसों को तरसती कष्ट-काया से क्योंकि ,तू- मेरे अजन्मे! मात्र देहाकर्षण की फलोत्पत्ति नहीं है मेरा अनिर्वचनीय सुख है मात्र संपत्ति नही है। मेरी साधना का चरम प्रसाद है तू,मेरी भावना का आह्लाद है तू,तेरी निरोगी काया मेरा अभीष्ट है। जन्मोपरांत ,वही इच्छित है, ईष्ट है। मेरी कोख मे तेरा निर्माण तेरी माँ की यज्ञ - साधना है। क़ानून नियम नहीं आराधना है। अतः,यह माँ विरोध करती है आरोपित नियम का। त्याग करती है गर्भनिर्मित रोगी काया के संवर्धन का। नहीं स्वीकार्य जन्मोपरांत,हर पल तेरी मृत्यु सुख-श्वांस को तरसता तेरा शैशव ,तेरा यौवन,तेरी आयु। अतः- न नियम ,न समाधान गर्भस्थ, अर्ध-निर्मित,दोष-रोग युक्त काया का अवसान। क्योंकि ,शिशु अजन्मे! मैं तेरी माँ हूं । ************* (रहस्य जनित एवं वेदना जनित ‘आरुषि ‘ का अपनी माँ से एक संवाद ) 2) अच्छा होता मुझे धारण करते ही करा दिया होता गर्भक्षय मिटा दिये होते सब संशय अथवा, यदि गर्भकाल मे न जुटा पाईं थी साहस या दुस्साहस , तो मेरे जन्मते ही दबा देती टेंटुआ या दबा देती ज़िंदा माटी में , फेंक देती किसी घाटी मे| कर देती जल-प्रवाह नदी या सागर मे टोकरी या गागर मे विकल्प तो थे माँ! पापबोध भी नहीं होता शोक भी नहीं होता , बिटिया का मारना विषय नहीं है शोक का संताप का, बिछोह का पर, अफ़सोस ! आपने अपनाया व्युत्क्रम पहले की प्रतीक्षा दी अग्नि-परिक्षा दो-चार दिन नहीं घड़ी नहीं , पल नहीं पूरे बारह साल एक युग , एक काल दिया जन्म पाला तन पोसा मन पूरे चौदह साल सुख और साध्य जीने को उत्कंठा हंसने को साम्राज्य और अचानक उस रात आप सोई रहीं दूसरी दुनिया मे खोई रहीं , और जब एक प्रश्न ने काटी मेरी गर्दन छीना जीवन और यौवन आप सोई थीं समीप मे या खोई थी अतीत मे?! सुना था,माँ जान लेती है गूंगे शिशु की पीड़ा भी रुदन भी ,क्रीड़ा भी पर ,लेकिन,किंतु,परंतु- आप सह गयीं मुझ पर होते आघात और प्रतिघात जैसे मैं थी अनाथ अकेली, असहाय घर सरीखे निर्जन वन मे निरुपाय ओह माँ! नहीं बता सकती मैं अब कोई सच या झूठ पर आप क्यों हो मूक?आपके निर्विघ्न सोए रहने का नहीं है दुःख ,किंतु क्यों हो अब चुप?बोलो ना?बोल दो ना?मेरी माँ ! ************** (जीवन काल में घटी एक अनपेक्षित घटना के कारण निर्दोष अहिल्या का पत्थर बन जाना प्रतीक मात्र नहीं है जीवन के प्रति सामाजिक व पारिवारिक निष्ठुरता का | आज भी , लगता है , सब कुछ जस का तस है |) 3) राम! तूने किया था कभी शिलावत हो गयी अहिल्या का उद्दार मात्र चरण-स्पर्श से राम! शिला बन गयी है आज भी अहिल्या न्यूनाधिक, उन्हीं कारणों से जो हैं विद्यमान सनातन से अब तक जस के तस , राम! करोगे इस शिला का उद्दार हो तैय्यार, लेकिन, ना लगाना अपने चरण यह होगा इस शिला का मरण खडी हो जायेगी यह शिला स्वयं भी , लड जायेगी यह शिला स्वयं भी , राम! आ सकते हो इस राह, तो आओ और, दो शिला के साहस को सम्पूर्णता गरिमा को मान्यता नहीं, उसे मुक्ति नहीं चाहिए सहयोग पीडा का उत्सर्ग कर पुनः हास्य का प्रबल संयोग आशीर्वचन नहीं, दो स्पंदन सांत्वना का , चरण-रज नहीं, दो अवलंबन , भावना का | दोगे राम? ************* (त्रेता का अत्यंत संवेदित किन्तु भुलाया हुआ चरित्र | महलों के राजसी वैभव के बीच पूर्ण एकाकिनी –एक नारी—मांडवी ) 4) मैं, मांडवी हूं , रघुकुल की आर्या भरत-भार्या नितांत एकाकिनी राजमहल की वन-वासिनी | संबोधन सीता से---- आर्ये! आप के वनगमन से पीडित हूं मैं भी संतप्त , शोक-मग्ना , लेकिन, यह् सच है कि, खग-म्रग, पशु-पक्षियों के बीच प्रक्रति की अनन्य उपलब्धियों के बीच , सरि-सरोवरों के किनारे गुनगुने सूर्य और चुलबुले चन्द्रकी रश्मियों के छत्र-तले , अपने मीत-आराध्य के संसर्ग में, वनवास में रहते हुए भी राजरानी हैं आप सत्य कहा ना मैने, आर्ये! संबोधन उर्मिला से --- भगिनि! तुम एकाकी हो कौशलपुर में और, मैं व्यथित हूं तुम्हारी व्यथा से लेकिन, सत्य कहूं तुम्हें मानसिक तोष तो है कि, लखन भ्रात्र, तुम्हारे नाथ प्रभु राम की सेवा में संलग्न दास की भांति सेवा-कर्म-मग्न पुण्य के अधिकारी, विलक्षण आज्ञाकारी और , लखन-वामा होने के कारण उस पुण्य-तोष में बराबर की हो अधिकारिणी सत्य कहा ना मैने ,उर्मिल ! संबोधन श्रुतिकीर्ति से -- लघुनी ! सगे-सहोदरों से बिछोह ज्येष्ठ भ्रात्र-भगिनि के प्रेम से वंचित तुम मुझे है इसका शोक लेकिन, लघुनी ! शत्रु, तुम्हारे प्रियतम साथ हरदम प्रात-सांय निशि-वासर सुख(और दुख )में भी संग-संग, रघुपुर के राजभवन में, लघुनी! क्या पीडा,क्या व्यथा कह सुन सकती हो अपनी कथा | संबोधन स्वयं से----- और मैं , लुप्त-प्राय परिचय बैठी राजभवन में सच कहूं, ना घर में,ना वन में ना प्रभु संग,ना पिया संग ना सुख- संयोग,ना रूप रंग ना दिवस की,ना निशा की, ना राह की,ना दिशा की, ना मैं भरत-अनुगामिनी हां,मैं रति-विलापिनी ना पाप,ना पुण्य ना काज,ना अकर्मण्य भरत का नंदी-ग्राम राम की चरण-पादुका मेरे प्रियतम का सुखधाम मेरा कौन है? अच्छा होता चली जाती प्रभु-सेवा-व्रती सी, लखन-यति सी, पीछे-पीछे श्रीराम के वन-ग्राम में, अथवा प्रीत-पगी सी मोह बंधी सी प्रियतम के पीछे अंखियों को मींचे पति-सुख आराधिका आर्ये सीता सी साधिका अथवा उर्मिला सी त्यागिनी या श्रुतिकीर्ति सी सुख-साधिनी लेकिन, मैं मांडवी कुछ नहीं कुछ भी तो नहीं कभी यहां,कभी वहां चौदह वर्ष के लियेभरत-भार्या भी कहां मैं हूं एकाकिनी राजमहल की वनवासिनी मात्र, और कुछ भी नहीं | |
रचनाकार प्रवीण पंडित
आलेख
गीता पंडित
9 comments:
"हम और हमारी लेखनी" आभारी है आपकी
प्रवीण पंडित जी...
शुभ कामनाएँ
साभार
गीता पंडित
जीवन के सत्य पलों को छुती...उदाहरण देती घटनायों से सबक न लेन की इंसानी चरित्र का फितरती नुमा जामा पहने चरिथ्रार्थ करते चित्रण नुमा शब्द जो इतिहास बने ...पर कोमल शब्दों में कटाक्ष भी करती हुई !!!!!!!!सुन्दर कृति पेश करने का शुक्रिया गीता जी !!!!!!Nirmal Paneri
जीवन के सत्य पलों को छुती...उदाहरण देती घटनायों से सबक न लेन की इंसानी चरित्र का फितरती नुमा जामा पहने चरिथ्रार्थ करते चित्रण नुमा शब्द जो इतिहास बने ...पर कोमल शब्दों में कटाक्ष भी करती हुई !!!!!!!!सुन्दर कृति पेश करने का शुक्रिया गीता जी !!!!!!nirmal paneri
चारों ही रचनाएं अद्भुत... आरूषी का संवाद तो अद्वितीय रचना है.... सचमुच रचनाकार की कल्पना, उसका चिंतन भावनाओं के एक अलग ही संसार की उत्पत्ति करता है.... ऐसी अप्रतिम रचना संसार में विचरण का अवसर देने के लिए आपका बेहद आभार गीता दी... और प्रवीण जी को सलाम...
सादर...
"Mandavi ka vanwaas".. apoorv aur pahle kabhi na suni hui bhavanaon ka udbodhan hai... bahut bahut shubhkamnaayen panditji..shesh teeno kavitaayen bhi prashanshniya aur adbhut hai..dhanyawaad..
sabhaar aur naman,
sharda.
राम!
आ सकते हो इस राह,
तो आओ
और,दो शिला के साहस को
सम्पूर्णता
गरिमा को मान्यता
नहीं, उसे मुक्ति नहीं
चाहिए सहयोग
पीडा का उत्सर्ग कर
पुनः हास्य का प्रबल संयोग
आशीर्वचन नहीं,
दो स्पंदन
सांत्वना का
चरण-रज नहीं,
दो अवलंबन ,
भावना का
आज के सन्दर्भ में स्त्री विमर्श पर खरी उतरती मन को झकझोरने वाली सुंदर रचना...आभार प्रवीण जी...अभिनंदन...
जब एक प्रश्न ने
काटी मेरी गर्दन
छीना जीवन और यौवन
आप सोई थीं समीप मे
या खोई थी अतीत मे?!
सुना था,
माँ जान लेती है
गूंगे शिशु की पीड़ा भी
रुदन भी ,क्रीड़ा भी
पर ,
लेकिन,
किंतु,
परंतु-
आप सह गयीं
मुझ पर होते आघात
और प्रतिघात
जैसे मैं थी अनाथ
अकेली, असहाय
मर्मान्तक पीड़ा आरुषि जैसी अनेक लड़कियों के साथ घटित होता हुआ सत्य...बड़ी सहजता के साथ उकेररा आपने....
आभार और बधाई...
चारों रचनायें बेजोड …………मूक कर दिया।
सभी कवितायेँ मर्मस्पर्शी हैं और भावुक भी, और यदि सच कहूँ तो हतप्रभ हूँ जब ये सोचती हूँ कि इन्हें एक पुरुष द्वारा रचा गया, एक पुरुष द्वारा स्त्रीमन को छूना और उसे जस का तस कागज़ पर उकेर देना आसन तो नहीं है न ......प्रवीण जी बहुत बहुत बधाई.......
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