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मैं नारी तुम नर हो दोनों एक दुसरे के पूरक हैं,
फिर कैसा संघर्ष है बोलो मौन पले क्यूँ अंतर में ||
'प्रेम" जीवन का सुंदरतम आभास "विवाह समझौते" का बंधक बनकर रह जाना चाहिए क्या...? या प्रेम का वो छोटा सा पौधा जो दोनों ने रोपा था एक ऐसा बरगद बनकर आये जिसकी छाया में
समस्त संसार विश्रान्ति पा सके |
स्त्री प्रेम है प्रेम की भाषा को सरलता से समझती और समझाती है फिर क्यूँ पीड़ा का अतिरेक सिंधु उसके कजरारे नयनों में छलछलाता रहता है ? क्यूँ मौन अपनी बाहें पसारकर उसे अपने में समाहित कर लेता है ? मन का छौना मूक हो जाता है और श्वासें केवल सलीब पर टंगी हुई .........क्यूँ ...?????
" मैंने केवल तुमको चाहा
तुम सुधियों के मीत हो गए,
सपनों की नगरी के पाखी
एक-एक करके सभी खो गए | |"
ऐसा नहीं कि पुरुष अनजान है इस पीड़ा से , वो जानता है पीड़ित भी होता है और तब उसकी लेखनी से ऐसा निकलता है जैसा कवि माया मृग की लेखनी से निकला, संवेदनाएं झकझोर देती हैं...
और अंतस मुखरित हो उठता है....
गीता पंडित
....
.........
१)
स-चेत स्वीकार
ओ प्रियतमा
तुम्हारे चेहरे पर गहराती झाइयां
तुम्हारे गुज़रे हुए कल में
झेली हुई धूप के निशान हैं|
सूरज की एक एक किरण से
रोशनी के लिए
कितना लड़ी हो तुम |
और तब से लगातार
उकरता रहा तुम्हारा इतिहास ;
चेहरे के सुनहरी पृष्ठ |
इन्हें छिपाओ मत प्रिय !
दुपट्टे से ढंकने की
कोशिश न करो |
मेरी प्रियतमा !
मैं तुम्हें
तुम्हारे पूरे अतीत सहित
स्वीकार करता हूँ |
२)
बहुत बहाने थे
बहुत बहाने थे
ठहर जाने को
मैं ठहर सकता था |
कोयल की कूक ने
बांधा
अपने स्वर से ,
मोर ने
रास्ता रोक
पंख फैला लिए |
क्रोंचो ने
लंबी कतार से
बार – बार खींची
लक्ष्मण रेखा |
मैं बहल सकता था |
मैं ठहर सकता था |
दैत्य ने
अट्टहास कर----
बढाए
अपने अपने हज़ार पंजे |
लंबे लंबे
नाखूनों में
कसमसाने लगी
मेरे खून की प्यास |
सिंह ने दहाड़ कर
गज ने गला फाड कर
चेताया मुझे ;
मैं सिहर सकता था |
मैं ठहर सकता था |
किन्तु
तुम पर थीं मेरी आँखें ,
तुम में था
मेरा प्रिय ,
मेरा श्रेय |
रास्ता
अभी बहुत बाकी था
पगडंडी
अभी –
बहुत दूर----
जाती थी |
३)
पुनर्गठन
सन्दर्भों से कटा हुआ
एक नितांत फीका स्वाद
जीभ पर |
नथुनों पर चढती
रेतीली गंध ,
और किरचते कणों में
मेरा-तुम्हारा-हमारा
वर्त्तमान खोजते हुए
एक उकताहट है |
एक आस्वस्ति भरी
उकताहट ,
संबंधों का पुनर्गठन
एक यातना है ,
सिर्फ एक यातना
तनी हुई रस्सी की मानिंद |
कुछ तुमसे
कुछ मुझसे
खिंची हुई रस्सी |
४)
काली नायिका
और अब
जबकि मैंने अपनी नायिका के
होंठों पर रंगी लिपस्टिक पोंछ दी है |
उसके काले होंठ
सुंदर न सही- पर सच्चे तो हैं |
उसके मेहंदी रंगे हाथों से
कहीं अच्छे हैं ,
उसके खुरदरे , कटे – फटे ,कुरूप हाथ ;
जिसमें साफ़ देखता हूँ मैं
सुंदरता के मापदंडों को
बदल डालने के मजबूत संकल्प |
मैं – जबकि कलम पकडे
निठल्ला हो बैठा हूँ
मेरी नायिका - कस्सी –फावड़ा थामे
मुझे सिखा रही है
कविता की रचना नहीं
कविता उपजाना
और लिख जाना ,
सुनहरी अक्षरों को नहीं
सुनहरी दानों का इतिहास |
................
प्रेषिका
गीता पंडित
13 comments:
बहुत बहाने थे …मैं सिहर सकता था , मैं ठहर सकता था…किन्तु तुम पर थीं मेरी आँखें
बहुत सुंदर
कविताएं कहीं मन को छू गईं।
सारी कवितायें बेहतरीन मनोभावों का संग्रह हैं।
ओ प्रियतमा
तुम्हारे चेहरे पर गहराती झाइयां
तुम्हारे गुज़रे हुए कल में
...
झेली हुई धूप के निशान हैं|
सूरज की एक एक किरण से
रोशनी के लिए
कितना लड़ी हो तुम |
मर्मान्तक पंक्तियाँ...
आभार माया मृग जी ...
आभार माया मृग जी...
कवितायें बेहतरीन,मन को छू गईं।
काव्यसंग्रह के बारे में अच्छी जानकारी ... अच्छी रचनाएँ पढवाने के लिए आभार
"हम और हमारी लेखनी" की तरफ से
माया मृग जी !आपका हार्दिक अभिनंदन
आभार और
शुभ-कामनाएं..
सस्नेह
गीता पंडित
बहुत खास , बहुत ही अलग दृष्टिकोण से रची गई रचनाएँ --- मन भीगा भीगा सा लगा |
सुनहरी दानों के माध्यम से कविता उपजाती हुई काली नायिका , तानी रस्सी के मानिंद संबंधों के पुनर्गठन की यातना , रास्ते के बचे रहने के बावजूद आँखों का तुम पर ही रहना उर प्रियतमा को उसके पूरे अतीत के साथ स्वीकार कर लेने की बलवती आकांक्षा -- सब कुछ नितांत नया सा और मन मे घर करता सा है |
komal bhavnaao ko bahut komal shabdo me hee vayakt kiya hai kavi ne. shabd bojh nahi bante aur bhavnaaye apna aakash dhoondh leti hai. meri or se maya mrig ji ko bahut badhai aur aapka dhanyvaad gitaji.
काव्यसंग्रह के बारे में अच्छी जानकारी ... अच्छी रचनाएँ पढवाने के लिए आभार
नारी-जीवन नदी के जीवन की तरह होता है। नारी का जीवन केवल देते जाने का नाम है, स्नेह...ममता..प्रेम..कोमलता...मधुरिमा और भी बहुत कुछ लेकिन पाने की कोई लालसा लालसा ही रह जाती है... यही कारण है कि -
बहुत दु:खी रहती है नदी इन दिनों
नदी,
बहुत दु:खी रहती है नदी इन दिनों !
पर्वत की कोख से फूटी पीड़ा को
समेटे,
पिता की सजल आँखों से दूर....
विदा होती हुई नदी...
पत्थरों से लड़ती ...परास्त होती हुई ,
पछाड़ खाती लहरों को
सीने से चिपकाए -
रोती कलपती...
आगे बढ़ती हुई नदी...
तटों के स्पर्श से -
सिहर-सिहर उठती नदी...
कुछ सोचती ...बुदबुदाती...
अक्सर खोई –खोई -सी रहती है नदी !
अपना सब कुछ देती हुई…..
अत्मसमर्पित होने को बेचैन -
लालसा भरी नदी !
सपना देखती नदी !!
सागर के वक्ष से सटी...
स्वयं को विलीन करती हुई नदी...
नि:शब्द ...नीरव क्षणों को जीती हुई नदी...
खाली-खाली-सी , सहमी-सहमी-सी नदी...
थकी ...उदास नदी !
सन्नाटों भरी ज़िन्दगी जीती हुई नदी...
इन दिनों बहुत दु:खी रहती है !
बहुत दु:खी रहती है नदी इन दिनों !!
नदी
बहुत दु:खी रहती है नदी इन दिनों (1)
नदी,
बहुत दु:खी रहती है नदी इन दिनों !
पर्वत की कोख से फूटी पीड़ा को
समेटे,
पिता की सजल आँखों से दूर....
विदा होती हुई नदी...
पत्थरों से लड़ती ...परास्त होती हुई ,
पछाड़ खाती लहरों को
सीने से चिपकाए -
रोती कलपती...
आगे बढ़ती हुई नदी...
तटों के स्पर्श से -
सिहर-सिहर उठती नदी...
कुछ सोचती ...बुदबुदाती...
अक्सर खोई –खोई -सी रहती है नदी !
अपना सब कुछ देती हुई…..
अत्मसमर्पित होने को बेचैन -
लालसा भरी नदी !
सपना देखती नदी !!
सागर के वक्ष से सटी...
स्वयं को विलीन करती हुई नदी...
नि:शब्द ...नीरव क्षणों को जीती हुई नदी...
खाली-खाली-सी , सहमी-सहमी-सी नदी...
थकी ...उदास नदी !
सन्नाटों भरी ज़िन्दगी जीती हुई नदी...
इन दिनों बहुत दु:खी रहती है !
बहुत दु:खी रहती है नदी इन दिनों !!
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