फ़िल्म उपन्यास और फिर कविता संग्रह " उमराव जान " पर .....कोइ तो बात होगी उस व्यक्तित्व की जो चुम्बक की तरह संवेदनाओं को अपने आँचल से बाँध लेती है " प्रभात पाण्डेय " का " उमराव जान " कविता संग्रह एक लंबी कविता है जो एक अलग दृष्टिकोण से उसे देखता है , दुखी होता है और आज के परिप्रेक्ष्य में जब उस चरित्र को रखता है तो कुछ इस तरह कहता है____
......
.......
अतीत तो हमेशा -हमेशा ही दूर...
......
.......
अतीत तो हमेशा -हमेशा ही दूर...
बहुत दूर...
फिर भी पास-पास ही
बालू के घरौंदे गढता
उछलता-कूदता
नाचता-गाता-गुनगुनाता
कभी दरिया के इस पार
कभी दरिया के उस पार|
........
तुम्हारी कब्र पर जाकर
मैं उदास नहीं हुआ
खुश भी नहीं
चुपचाप देखता रहा
नहर का पानी
जिसका बहाव रुका-रुका
और
झुका-झुका हरसिंगार
तुम्हारे सिरहाने
……...
तनिक सच-सच बतलाना तो उमराव जान
क्या तुम्हें प्यास नहीं लगा करती इन दिनों
.............
.............
इसी लक्ष्मण टीले पर
रुका था लक्ष्मण का रथ
झंझावातों के बीच..
गंगा का फूट-फूट कर रोना
लहरों का टूट-टूट कर बिखरना
बिलखना बूँद-बूँद घटाओं का
बिलखना पेड़-पौधों-लताओं का
क्या धरती - क्या आकाश
व्याकुल-विह्वल बाहुपाश
सीता की खातिर
सब उदास
सब उदास
.......….
तुमने देखा तो उमराव जान
हतप्रभ सब के सब
अम्बपाली ने जब
नगरवधू होना तो स्वीकारा
पर वज्जीसंघ के रिवाज को सरेआम धिक्कारा |
उसके अंग-अंग कम्पन
रूप-यौवन पर यह कैसा बंधन
कैसा गणराज्य
कैसी सरकार
कहलाये जो नगरवधू
वहीँ बीच बाजार |
............
............
और फिर
तनिक करीब जब हुआ तुम्हारी कब्र के
बांध टूट से गए तमाम सब्र के
देखा वहां तो
महज पत्थरों का था हुजूम
चुपचाप उनके नीचे दबी पड़ी थी तुम
जिस्म दाहिना तुम्हारा
उस पर से वो सड़क
या खुदा!
दिल तुम्हारा कभी रहा था धड़क ।
पूछा तो
कुछ न बोला
सिरहाने का हरसिंगार
शाखों से टपका दिए उसने
फूल दो-चार ।
..........
धर्म और मज़हब की बात
ये उनकी बात है
पर जीने का हक़ औरत का
नहीं खैरात है | |
साभार "उमराव जान" से
(कविता संग्रह प्रभात पाण्डेय)
प्रेषक
गीता पंडित
साभार "उमराव जान" से
(कविता संग्रह प्रभात पाण्डेय)
प्रेषक
गीता पंडित
18 comments:
पीर तेरी तो रही अजानी
नयना बरसें कहें कहानी |
हाय री हत भागी नारी!!!!!!! तेरे किसी रूप ने उसे आकर्षित नहीं किया |
नेह की गंगा यमुनी बनी दौडती रही जीवन भर ...
आह!!!!!
bahut pyari si rachna.......
बहुत सुंदर लिखा है प्रभात जी ने ! 'उमराव जान' से पुनः मिलने जैसा है, उस किताब को पढ़ना ।
बड़ी मार्मिक रचना है प्रभात पाण्डेय जी की ! कोई उमराव जान ,सीता,और अम्बपाली की जगह खुद को रख कर देखे और उस संत्रास ,आतंक,और तड़प से होकर गुजरे
जिसे देह से कट कर अलग हुआ अंग अनुभव करता है ,तभी वह उस संवेदना को छू सकेगा जिसे कवि ने भोगा और जिया है अपनी कविता में ! गीता जी आपको बधाई,जो हमें इस कविता से जोड़ा !
बढ़िया... प्रभात जी की यह रचना वाकई अच्छी होगी.. इसके अंश दिलचस्प है... आभार
ek pyaari si rachna , jisne man moh liya , aur mujhe kuch likhne ke liye bhi prerit kiya ... dhanywaad.
सुनाता रहा हाशिम ढेर सारी बातें .....
बातें उन रातों की भी
जब इर्दगिर्द की तमाम क़ब्रों पर
कन्दीलों की टिमटिमाहट,
...तुम्हारी क़ब्र पर -
हाँ, तुम्हारी क़ब्र पर उमराव जान
साल दर साल
चराग़ का नामोनिशान तक नहीं ....
आह !!!!!!!!!!!
" पीर की कैसी कहानी लिख रही है लेखनी "
सादर
गीता पंडित
उस रात
चाँद नहीं निकला था
आकाश अँधेरे से
सरोबार था,
पुरुष ने स्त्री को देखा
उसने उसकी देह की भाषा
पढ़ ली थी,
उसको बहलाया फुसलाया
उसके कसीदे में गीत लिखे
उस पर कविताएं लिखी
उसको आजादी का अर्थ बताया
तरक्की के गुण बताये,
आखेट पर निकलने का शौक रखने
वाले की तरह
जगह जगह जाल बिछाया
नारी मुक्ति की बात कही
उसके रूप का वर्णन किया
सपनों के स्वपनिल संसार का
झूठ बोला,
स्त्री ने प्यार भरी आँखों से
उसकी आँखों में झांका,
तीतर की तरह पंख फड़फड़ाता
पुरुष उसको
निरीह सा लगा
वह उसे देखकर मुस्कराई
और सपनो के सुनहरे संसार में
उड़ने लगी,
आकाश की उत्कंठा में
लुका-छिपी का खेल देर-देर तक
चलता रहा
थके हुए क्षणों से
जिस चीज पर नारी नीचे गिरी
वह पुरुष का करीने से
बिछाया हुआ बिस्तर था.........आर रवि ..एक विद्रोही कवि
बेहद सराहनीय ...भारत में एक ढौर ( जानवर ) से ज्यादा कीमत नहीं समझी गई स्त्री की ...कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक चीज समझी स्त्री को यहाँ ...झूठा दंभ वारले वाले अतीत की ना जाने कितनी बड़ाई करते है मगर हमारी पौराणिक स्त्री भी कितने कठीन दौर से गुज़री आप अंदाजा लगाइए ..आज भी स्तिथि बहुत ज्यादा अच्छी नहीं ...
अच्छा लगा इस रचना से गुजरना...क्या यह पूरी कविता है...शायद नहीं..पूरी कैसे मिल सकती है?
अशोक पाण्डेय जी ! ये अंश हैं केवल मात्र उस कविता संग्रह के ....
आभार...
सभी मित्रों का आभार...
भविष्य में भी इसी स्नेह की कामना करती हूँ....
शुभ-कामनाएं..
गीता पंडित
आर रवि जी आपकी सुंदर सार्थक रचना के लियें ..आभार और बधाई..
" हम और हमारी लेखनी "
की तरफ से अभिनन्दन
और आभार आदरणीय प्रभात पाण्डेय जी का
सादर
गीता पंडित
उमराव जन ‘रुसवा ‘ की , उमराव जान मुजफ्फर अली की और अब प्रभात पाण्डेय जी की उमराव जान ---मूलतः कुछ भी नहीं बदला |
उमराव जान की आत्मा जस की तस |
प्रभात जी ! सिर्फ पुस्तक नहीं है आपकी उमराव जान ,एक शजरा है अपने आप में | सोने पर सुहागा यह , कि माहौल ज्यों का त्यों ,अंदाज़ ज्यों का त्यों और ज़ुबान ज्यों की त्यों |
भई वाह ! क्या कहना !
दिल बाग़ बाग़ होता है , तो कई बार ज़ुबान या कहिए कलम ख़ामोश हो जाती है | जैसे कि मैं , न चाहते हुए भी , ख़ामोश रहा | क्यों कि गुम था उमराव में , और अभी भी हूँ |
“ पूछा तो
कुछ न बोला
सिरहाने का हारसिंगार
शाखों से टपका दिये उसने
फूल दो चार |”
मैं भी ख़ैरमकदम करता हूँ उमराव का , और कड़ी-दर-कड़ी , कदम –दर-कदम अपने पाठकों से रु-ब-रु कराने के लिए आपका शुक्रिया |
बेशक यह काफी नहीं है प्रभात जी !
प्रवीण पंडित
ravi kumar, ek vidrohi kavi ki kavita, mujhe bahut achi lagi
बहुत सुन्दर !
सर्जक संवेदना के हाथों से कितनी पाकीजा और संजीदा मूर्ति बनाता है, ऐसी प्राण-प्रतिष्ठा कर देता है कि हम उससे बतियाते हैं, देर तक! सारी जाति-धरम-पवित्रता के फिजूल की सीमाएँ तोड़!
मन कहता है लौट जाऊँ इतिहास में दो बोल सुन आऊँ, सबसे बताऊँ कि हमने उस अथाह चुप्पी को छुआ जिसका चेहरा आने वाला वक्त जाने कितनी बार बनाएगा/बिगाड़ेगा! कहूँ कि एक समयातीत रूह से मिला जिसकी पाकीजगी को जालिम समाज ने कभी रूपजीवा, नगर-वधू, तवायफ, वेश्या जाने क्या क्या कहा!!
पुनः शुक्रिया!!
Post a Comment