Monday, March 19, 2018

आठ कवितायें ---केदारनाथ सिंह



*ओहो ।दुःखद।*
हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति।
प्रिय कवि की कविताऐं साझा कर रही हूँ-
 
*यह पृथ्वी रहेगी*
 
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
 
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।
.......
 
 
*सृष्टि पर पहरा*
 
 
जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते
 
कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना
 
उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते
........
  
 

दुख हूँ मैं एक नये हिन्दी कवि का
बाँधो...
मुझे बाँधो
पर कहाँ बाँधोगे
किस लय, किस छन्द में?
ये छोटे छोटे घर
ये बौने दरवाजे
ताले ये इतने पुराने
और साँकल इतनी जर्जर
आसमान इतना जरा सा
और हवा इतनी कम कम
नफरतयह इतनी गुमसुम सी
और प्यार यह इतना अकेला
और गोल -मोल
बाँधो
मुझे बाँधो
पर कहाँ बाँधोगे
किस लय , किस छन्द में?
क्या जीवन इसी तरह बीतेगा
शब्दों से शब्दों तक
जीने
और जीने और जीने ‌‌और जीने के
लगातार द्वन्द में?
.....
 

जाऊंगा कहाँ
रहूँगा यहीं
 
किसी किवाड़ पर ...
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूँगा
 
किसी पुराने ताखे
या सन्दूक की गंध में
छिपा रहूँगा मैं
 
दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में
अपने स्थायी पते के
अक्षरों के नीचे
 
या बन सका
तो ऊंची ढलानों पर
नमक ढोते खच्चरों की
घंटी बन जाऊंगा
या फिर माँझी के पुल की
कोई कील
 
जाऊंगा कहाँ
 
देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बादल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊंगा उनके संग...
 .......

 
 ५
 उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
...... 
 
६ 
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है...
 ......

 
७ 
सारा शहर छान डालने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुँचा
कि इस इतने बड़े शहर में
मेरी सबसे बड़ी पूँजी है
मेरी चलती हुई साँस...
मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूँजी
जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा
खर्च कर देता हूँ |
......




उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —
सुधियों की चादर अनबीनी,


दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की

साँस रोक कर खड़े हो गए
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में —
भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की

थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में —
और चमकने लगी रुखाई,

प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।
 .......
 
*केदारनाथ सिंह*
 
 
प्रेषिता
गीता पंडित (सम्पादक शलभ प्रकाशन)

३/९/२०१८  

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